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एक फौजी की डायरी-2 उचटी हुई नींद का अफ़साना दूर कहीं पटाखों के फूटने की आवाज़ें आती हैं और किसी अनिष्ट की आशंका से नींद खुलती है चौंक कर| हड़बड़ायी-सी नींद को बड़ा समय लगता है फिर आश्वस्त करने में कि ये कश्मीर नहीं है...छुट्टी चल रही है...घर है, जहाँ तू बेफ़िक्र हो सुकून के आगोश में ख़्वाबों से गुफ़्तगू करती रह सकती है| उचटी हुई नींद का अफ़साना, लेकिन, जाने किस धुन पे बजता रहता है रात भर...वक़्त की उलझनों से परे, समय की दुविधाओं से अलग| सुकून का आगोश फिर कहाँ कर पाता है ख़्वाबों से गुफ़्तगू| किसी असहनीय निष्क्रियता का अहसास जैसे उस आगोश में काँटे पिरो जाता हो...उफ़्फ़ ! अधकहे से मिसरे...अधबुने से जुमले रतजगों की तासीर लिखते रहते हैं करवटों के मुखतलिफ़ रंग से बिस्तर की सिलवटों के बावस्ता...कोई तो कह गया था वर्षों पहले फुसफुसा कर "कश्मीर ग्रोज इन्टू योर नर्व्स"....ओ यस ! इट डज !! इट सर्टेनली डज !!! सुना है, छीनना चाहते हो वो हक़ सारे कभी दीये थे जो तुमने इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये
अहा...! सच में? छीन लो, छीन ही लो फौरन कि सही नहीं जाती अब झेलम की निरंतर कराहें कि देखा नहीं जाता अब और चीनारों का सहमना
कहो कि जायें अपने घर को हम भी अब... खो चुके कई साथी बहुत हुईं कुर्बानियाँ और कुर्बानियाँ भी किसलिये कि बचा रहे ज़ायका कहवे का ? बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ? बनीं रहे लालिमायें सेबों की ? या बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...? ...लेकिन ये जो एक सवाल है, उठता है बार-बार और पूछता है, पूछता ही रहता है कि...बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में? तुम्हें नहीं मालूम कि मुश्किलें कितनी होंगी तब, सबकुछ शुरू से शुरू करने में...फिर से ... रतजगे की तासीर मुकम्मल नहीं होती और सुबह आ जाती है तकिये पर थपकी देती हुई| नींद को मिलता है वापस सुकून भरा आगोश| सुना है, सुबह में देखे हुये ख़्वाब सच हो जाते हैं...!
-गौतम राजरिशी
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