मुखपृष्ठ कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |   संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन डायरी | स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 


डायरी का एक पन्ना जो समर्पित है मुठभेड़ में मारे गये एक

 कुख्यात अपराधी को 

 कंचन चौहान

उसके ना होने के ४ साल सात महीने तीन दिन बाद लिखा गया ये एक दिन,
अमृता प्रीतम के उपन्यासों को पढ़ने के बाद की बेचैनी को कम करने के लिये

१५.०४.२००७ रात्रि १.३६

'आक के पत्ते' हो या 'कोई नही जानता' सब मेरी कहानी नज़र आती हैं। जैसे
हर दुःख मेरा दुःख है। गौतम के सारे वहम् मेरे हैं और बेनू की सारी पूजा
मेरी। मैं ही हूँ वो 'शंखचील' जिसे देख कर काम पर निकलना शुभ होता है।

उस दिन जब तुममे और अंशु में १००/- की शर्त लगी थी, एक गीत की फिल्म को
ले कर, मेरी हालत खराब थी। अंशु के पास सिर्फ २०० रुपये थे, चले जाते, तो
वापस कानपुर कैसे जाता ? और तुम्हारे लिये.. तुम्हारे लिये तो १००/- बहुत
दूर की चीज़ थी उस समय। तुम्हारी तरफ सिर्फ तुम थे even मै भी नही और
अंशु की तरफ ९९.९९ प्रतिशत लोग जो ०.‍०१ प्रतिशत लोग उसकी तरफ नही थे
उनकी संख्या तुमसे शुरू हो कर तुम पर ही खतम होती थी। वाह रे कॉंफीडेंस..
शर्त लगाते हुए सिहरन भी नही आई। मेरे खिलाफ इतने लोग हों तो मैं तो वैसे
ही हार मान लूँ। लगने लगे कि इतने लोग कह रहे हैं, तो सच ही कह रहे
होंगे।

मैं सिर्फ तुम दोनो पर नाराज़ हो सकती थी। मुझे तुम दोनो की आर्थिक
स्थिति मालूम थी। तुम जो अपने हिसाब से करोड़ों की शर्त लगा रहे हो उसे
लाओगे कहाँ से हार जाने पर, और जिसे हार ही जाना था...! कुछ कह भी तो नही
सकती थी।

अंशु ने सबसे विजयी भव का आशीर्वाद लिया, मुझसे भी और तुमने कहा कि मेरे
लिये बस एक ही काफी है...!! और मुझसे आल द बेस्ट कहला कर चल दिये।

तुम दोनो के वापस लौटने पर सच में मुझे अपने पर गुरूर हो आया था, मुझे
ग़लतफहमी हो गई थी कि मैं सच में जिस पर हाथ रख दूँगी वो विजयी ही होगा।
मैं जिस झूठ को चाहूँ, अपने शुभत्व से सच कर दूँ। मुझे खुद ही नही पता
अपने सत्व का। वो कहता है, तो सच कहता है़, मैं ही तो हूँ, जो सब ठीक
किये हूँ उसके जीवन में। मुझे गर्व हो गया कि मैं आगे भी सब ठीक ही कर
लूँगी.......लेकिन सब, सब कुछ खतम हो गया, मेरा घमंड, मेरा आत्म विश्वास,
मैं जमीन पर आ गई, जब पता चला कि मैं तो अपने ही मद में, विश्वास में
प्रार्थनाए किया जा रही हूँ और तुम जाने कब का छोड़ कर जा चुके हो...
दूर.. मालूम नही कहाँ ??

मेरी आवाज़ तुम्हे वापस नही ला सकती। तुम चले क्यों गये ? होते तो कम से
कम तुम्हारे बहाने ही सही, प्रार्थना तो कर लेती, मेरा ही मन सात्विक
होता। लेकिन तुम तो मेरा तप, मेरा ईश्वर सब ले कर चले गये। कुछ भी नही
छोड़ा मेरे लिये। पाँच साल होने को आये, अब तो यादे भी टूटी टूटी आती हैं।
लेकिन किरचें तो और ज्यादा चुभती हैं ना ? धँसती हैं, तो कितनी देर तक
करकती हैं, जब तक सुई से खोद खोद कर निकाल ना फेंको।

कभी कभी लगता है कि ऐसा तो नहीं कि मैने ही ग़लत प्रार्थना कर ली।
द्रोपदी की तरह अपनी ही की गई प्रार्थना का फल भुगत रही हूँ। रटा रटाया
वाक्य था, और तुम तो अब मन में रहते हो तो जानते ही हो कि वो वाक्य आज
पाँच साल भी ब्रश, बाथ, भोजन, शयन की तरह रूटीन में कहा जाता है।
आदतानुसार " हे भगवान मुझे उसका रिश्ता सहजता, पवित्रता और स्नेहशीलता के
साथ, तनाव रहित रिश्ते के रूप में जीवन भर के लिये दे दो। हे प्रभु !"

कितनी चालाकी से मैं वरदान माँगती गयी और कितनी आश्वस्ति से देने वाला
तथास्तु बोलता गया। जीवन भर के लिये मिल गये तुम, बिलकुल सहजता के साथ।
पवित्रता ?? उसमें कहाँ कमी आई? और स्नेहशीलता इससे अधिक क्या होगी कि
जिस से ठीक से बात ३० नवंबर, २००१ को की थी, और आखिरी बार १० जून, २००२
को देखा था, उसे आज भी याद करो, तो चारों तरफ वैसा ही मौसम बन जाता है,
जैसा तब था। कभी चारो तरफ से फुहारे पड़ने लगती हैं और कभी लू के थपेड़ों
में बैठे हम दोनो, अपने अपने सपने बुनते। और तनावरहित... तनाव अब क्या
होगा भला, मैं सबके सामने तुमसे बात करूँ, तब तो बने बातें। मुझे लग रहा
था कि मैं चतुराई से तुम्हारी उम्र और स्नेह दोनो माँग ले रही हूँ, लेकिन
वो जो कहते हैं कि कहीं ऊपर बैठा है...वो तो सबसे चतुर हैं, वो सब खुद ही
कहलाता है और खुद ही करवाता है और फिर खुद ही दण्ड भी देता है...लेकिन
ऐसा क्यों करता हैं वो ? पता है क्या तुम्हे ? वहीं कहीं तो हो ना तुम
भी....!!

सब जानते हैं कि एक कुख्यात अपराधी अपने पिता का बदला लेने के लिये घर से
निकला और ज़रायम के उन कठिन रास्तों पर पहुँच गया, जहाँ से पलटना बहुत
मुश्किल होता है.....!!

सब जानते हैं कि उसकी माँ ने बड़े तप किए, लेकिन ईश्वर की अदालत से उसकी
उम्र ना बढ़वा सकी और आज भी इस बात पर आँसू बहा रही है।

'पर कोई नही जानता' कि कहीं कोई और शख्स है, जो ना रिश्ते में उसकी माँ
है, ना बहन और प्रेमिका तो बिलकुल भी नही, दोस्त का नाम भी तो नही मिला
उसे। वो पता नही कौन है उस जाने वाले की ?

जो भी रिश्ता हो या ना भी हो, 'पर कोई नही जानता' कि उसकी माँ की तरह वो
आज भी सोने से पहले की अंतिम और जागने के बाद की अंतिम प्रार्थना उसके
नाम करती है, जिसने जाने के पहले माँ से तो विदा ली, लेकिन उस भावी चिर
विरहिणी से नही, वो जो उसकी बहन की तरह सोचती रही कि कोई भी मुसीबत पड़ी
तो रक्षा करने के लिये पुकारा जाने वाला जो पहला नाम होगा वो वही
होगा,मगर उसने उससे कोई बंधन ही नही डलवाया, मुक्त रहा हरदम, मुझसे तो
हमेशा ही उन्मुक्त ही रहा...!!!

'कोई नही जानता' कि वो शख्स दुनिया के हर रिश्ते में अंदर तक जा कर उसे
तलाश करता है और हर बार खाली हाथ वापस आता है.... पिछली बार से और अधिक
निराश हो कर।

'और कोई नही जानता'कि उस शख्स की जिंदगी बस इसी उम्मीद पर चल रही है कि
एक दिन ये कैद खतम होगी और रिहाई का वो दिन जिसे मौत कहते हैं, वो उससे
ज़रूर मिलवायेगी, जिसे जिंदगी के कारण खो देना पड़ा.............!!!!

कंचन चौहान

 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com