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मेरी डायरी
 

1
भोर होते ही छत पर देखा मेरी कलर प्लेट रात की ठंड में ठिठुरती धूप की पहली किरण के स्पर्श से सहम रही थी। उसमें रंगों के सूखे पत्ते.....आवाजों की कतरने......सपनों के छितराए अंग पड़े थे। मैंने सबको समेटा...रोज के एक ही बनते चित्र को छाती से लगाया और प्लेट को यूं मुंह से लगाया जैसे रात भर का शीतल जल.....या जहर पी रहा हूं। सर पर आसमान था अपने नीले धोखे के साथ, जिसमें सूरज दहक रहा था। उस दहक में मैंने खुद को अर्थी सा सौंप दिया....और काम पर लग गया।
29.1.13

अभी शाम को अपनी कलर प्लेट में आसमान को घोल रहा था तो पाया उसमें नीला बहुत कम है और सफेद ही ज्यादा है...तो लगा जो रात को काला होता है वह भी फिर पूरा काला नहीं होता होगा। तो नीला और काला किसी और की छाया है! जो रंग हम घोलते हैं वे अपना खेल और मरण हमारी प्लेट में संभव करते हैं और हमें छलते हैं।
28.1.13

चेतना एक धोखा है....अवचेतन एक भय...
27.1.13

रात को सुबह अंधा आईना लिए मेरे सपनों की राख पर मुझे बटोरने आई। मेरे बालों में अस्थियां लहराती देख अपनी अंगुलियों को कंघी बनाती सलोने बेटे सा मेरा चेहरा संवारने लगी। मैंने उसकी छाती से दूध का धुंआ देखा। दुनिया का सर्वाधिक दूध भरा स्तन चांद से उतरा था। मगर आईना अपनी नियति साथ लाया था....सारी रात को अपनी फूट आंखों में डाल चिता पर चढ गया।
27.1.13

जेल की देह पर चांद बिछा है। भोग...संभोग को जीकर अपने मरने में दूधिया चमकता। आओ सखियों विलाप करें। फांसी के फंदे पर एक चिडि़या अपने निर्वसन में कराह रही है।
27.1.13

आज शाम एक ऐसे मित्र से मिला जिसे ये पता था कि कल वह नहीं रहेगा शायद। जिसने मेरा इलाज किया और अरसे बाद आज मुझे कल न मिलने के लिए मिला शायद। ‘आज’ ...जो सबसे खतरनाक शब्द है। किसी दिन कोई मुझ से भी इसी तरह मिलेगा।
24.1.13

आज बावड़ी में उतरा.....अंधी और सीली। पहली ही सीढी पर उसने मुझे धक्का दिया और वह मुझ में उतर गयी। अंधी और सीली। सारे चमगादड़ मेरी रगो में फड़फड़ाने लगे। मैंने उन्हें नोचना शुरू किया तो वे मेरे हिस्से का विलाप करती अपने पंख मेरे गले में झाड़ने लगी। काला ठंडा जल था जिसमें अस्थियां तैर रही थी। मैने देखा मेरी देह में एक भी अस्थि नहीं.....सारी अस्थियां अपने कोयले लिए मेरा चेहरा चूम रही थी। मैं एक शव हुआ सा कई शवों का दहन कर रहा था। सारे शव मेरी मृत्यु का विस्तार हुए काई बने मौन में.....


कभी कभी मन और मस्तिष्क में तालमेल नहीं बैठ पाता है। मन कुछ कहना चाहता है जिसे मस्तिष्क अनसुना कर देता है। वह अपने खालीपन में कुछ पल रहना चाहता है, उसी को मथना चाहता है। जड़ों में जैसे कीड़े....सांप रहते हैं वैसे। अपनी सीलन और अन्धेरे में। उसी को वह कनात की तरह समूची कायनात पर तान देना चाहता है। गुब्बारे में कोई सुई नहीं चुभाता बल्कि उसकी देह से हवा ही मरने लगती है और बाहर निकलने लगती है। देह से प्राण जैसे निकले, और गुब्बारा ढीला होता अपनी देह में ढह जाता है। ये खाली हो जाना कुछ का भर जाना है। खाली होना जेसे निश्चल....ढंडी देह। अभी मैं अपने भीतर वैसा ही खालीपन महसूस कर रहा हूं। शाख के सारे पत्ते जैसे झड़ चुके हैं और
2
उस पर एक सांप बल खा रहा है। शब्द के बिना मेरी देह खुद को अभी देख रही है और अपनी पूंछ खा रही है। रात के शयन कक्ष में इसी तरह जाना चाहिए बिल्कुल खाली....सपनो.....कामनाओं...से परे...नग्न। प्रकृति के सहज रूप में जहां कुछ भी किसी अन्य से नहीं भरा । सब अपन में खाली है, जैसे आकाश....जिसमें सब है....और अकेले हैं...खाली। अपनी धुरियों पर चक्कर लगा रहे हैं। जहां ईश्वर की सांस मेरी देह को सूंघ रही है।
29.1.13

खो जाने या खत्म हो जाने में कितना फर्क है। आज अपनी एक कविता बरसेां पुरानी खोजने पर खयाल आया । अब सब उसके पीछे है....जो है वह अधूरा लगता है...जो नहीं है वह हर ‘है’ को खाता लगता है। वह कविता आत्महत्या या आत्म करण पर थी....

छत पंखा यूं हिला कैसे
बदली क्या पृथ्वी ने करवट
या नामुराद ने पीटा दरवाजा
फन्दा कोई कस रहा है मरने को आतुर .

ये किसके मोजे मेरी जेब में...


(इसके बाद की ....चन्द पंक्तियां चेतना को मौत के कुए में अपना डरावना रूप दिखा रही है। अब आप नया जीवन कैसे देख जी सकते हैं जब तक कि पूर्व का जो अधूरापन है उसी अस्थियां नहीं पाती ?)
 24 जनवरी 13

फिर कोई बर्क सी लहराई है...और उसी पल पेड़ से छाल यूं उतरी जैसे किसी ने चमड़ी उधेड़ी हो। फिर आत्मा में जाने पहचाने साए सा अन्धेरा व्याप गया...जिसमें सिगडी से उठता धुंए का बादल अपना नमक आलमारी में रखी तस्वीर के मुंह में डाल रहा है। तब मैं के0बी0 वैद के गद्य के बियावान में जा उनकी भाषा के कैक्टस खाने लगता हूं और देखता हूं कि अंधेरे आईने में कैक्टस मुझे खा रहे हैं। मै कहता हूं मैं नंगा मरना चाहता हूं जीते जी। फिर सूनी देह में एक विधवा सी हंसी विलाप करती है...जिसमें वह बर्क अपना भाग करती है.....  19 जनवरी 13

शाम को डायरी लिखते एक हास्यास्पद सा खौफनाक खयाल किसी जहरीले काले सांप सा मेरे जेहन में उगलने लगा कि लिखते समय अब मुझे किसी दोस्त की कमी नहीं अखरती....। मैं उनकी....वे मेरी छाती से गुजर चुके। लिखते समय ये किसी की मौत मेरा जीवनदाई शोक बन गया है। सब पीछे छूट गए हैं। छोड़ चुका हूं। आज पहली बार लगा अपना आप...आप को अन्य के पर की निर्भरता से ऊपर उठने के बाद ही मिलता है। अब आप ही रस्सी कसने वाले.....आप ही फंदा कसने वाले....आप ही प्यासे....आप तृप्त...आप ही अपने साए की खाज मिटाने....उभारने वाले। इतना हल्कापन तो कभी महसूस न हुआ। आत्मा मुदित सी चूमने लगी.....अपने आलिंगन में लिए मरने के दरवाजे खोलने लगी। अब किसी का नहीं। किसी का इन्तजार मेज पर नहीं। मेज पर अब मैं निर्वसन। अपना भोग....अपना संभोग...अपना राग...अपना विलाप। अपनी दरांती.....अपना गला। मेज न हुई प्रेमभरी शैया हो गयी। इन्तजार से परे अपने दरवाजे देखे। जा चुकों के छूट चुके चप्पल....जूते देखे। अब मेरे जूते इस तरह कहीं नहीं खोएंगे। दरवाजे मेरी तरह निर्वसना आत्मा के साथ लहराएंगे। मित्रों तुम्हारे बिना आज मैं तुम्हारे लिए कितना मस्त हूं। मेरा ये मनहूस दिलफेंक लेखन ही मेरा कातिल...हमदम। एक लेखक के लिए मेज किसी मरघट से कम नहीं होती। नहीं होनी चाहिए। आज मैंने इच्छा मृत्यु की तरह ये इच्छा का मर्दन किया है। मेरा लिखना ही मेरा न लिखने की छाया है, जो जब तक बाहर भटकता शरण ढूंढेगा ये मेज उसके सामने एक दिलबहलाती महबूबा से ज्यादा कुछ नहीं दिखाई देगी। यदि मेरा कोई मित्र है तो मैं लेखन

3

में क्या तलाश रहा हूं? शुक्र है जीवन के आरम्भ से ही मैं ही अपने मित्रों.....पितरों को निराश....हताश कर पीछा छुड़ाता ......छोड़ता रहा हूं। कैसी राख पुती मुस्कान मेरे चेहरे पर पुती है। आज मुझे अपने सारे धोखे याद आ रहे हैं जो हर पल मैं नियतन मित्रों को देता रहा और घर आ घी चुपड़ी रोटी खाता रहा। जैसे कोई पेशेवर हत्यारा रोज नए अंदाज से मगर बहुंत ठंडे लहजे में हत्या करता रहे। वाह! मैं भी खूब रहा। किसी को कानो कान तो क्या नाक तक गंध न जाने दी। मुझे सच कहूं तो किसी ने नहीं त्यागा। मुझे कुछ लिखना था जिसमे मुझे मरना था। जिसमें वे बाधा बन.....मुझे इस घर आने से रोक रहे थे। और खुद भी अपने घर जाने से बचने के चक्कर में मुझे मार देने की फिराक में थे। जिसे कुछ चाहिए वो इस मेज के मरघट पर क्यूं आए भला? तो अब हम हैं। समान रूप से एक दूजे को मारेंगे। मेरा दोस्त....मेरा लेखन किसी नीले खून की नदी सा आसमान से मेरी देह पर अभी इस पल बरस रहा है। अब ये दयार उजड़ा नहीं.....बसा हुआ खंडहर है। जिस को हो दीनो दिल अजीज उसकी गली में जाए क्यों। आज मुझे किसी की मारक याद नहीं आ रही है। मैने कईयों को मुक्त करते मार....खुद को मारते मुक्त कर लिया है। वरना आप कुछ भी हो सकते हैं.....लेखक नहीं। ये कोई कन्फेशन नहीं...ये अब तक के कन्फेशन का शोक है।
 जनवरी 13

अंधी हथेली
हर पल को रात
हर रात को दिन करती

उसी दरवाजे पर
दस्तक देती
खुद को छूती

जहां अभी कुछ मरण पहले थी
उसी देह में
बसती
निर्वासित होती

अपने भोग में जूठन होती
अपने आंसुओं में
हाथ धोती

अंधी हथेली में कटी जीभ
लपलपाती गूंगी छटपटाती

जिस पर चीलें गिद्ध
मारते चीखें दुआओं की

आसमान जरा सीला होता
और सूरज
जरा
शर्मिन्दा
27 जनवरी 13

4

जिसके पास मुट्ठी भर नमक जितना विवेक होता है वह अपने दुबलेपन में सिहरता.....कोहराम...विवादेां के रण....से चुपचाप अपनी झोंपड़ी सर पर रख युद्धरत वीरों शूरवीरों के मध्य से सर नीचे किए गुजरता है। उसके कानों में तलवारों की खनखनाहट होती है। खंडहरों का विलाप होता है। बुजुर्गो का हतप्रभ होना....गूंगे होते जाने का मरण होता है। और वह इन ‘सुरक्षा’ कवचों के सहारे पार हो लेता है और फिर देखता है कि इस ‘मुट्ठी भर नमक’ की किसी को जरूरत हो तो उसे सौंप दूं..कोई हाथ सामने नहीं आता तो नमक अपनी आंखों में....कानों में डाल लेता है।
19 जनवरी 13

यह मटकी
दो मुंहा

जल से जल को जाती

नाव प्रेम की
जिसमें
डांवाडोल

मैं पैर रखने को होता
कि....रोक लेता

नहीं....आज भी नहीं

यूं मैंने
हर प्रेम
हर कविता

रखी स्थगित

और स्थगन को
प्रेम किया

दो मुंहा

26 जनवरी 13

‘वास्तव में कवि को अज्ञात रहना चाहिए। जिस क्षण जो शब्द लिखा, वही उसकी ध्वनि, मौन, नाद, उजाड़ था, उच्चारण था । बस। उसका दोहराव फिर कवि से भी संभव नहीं। फिर अगर कवि करता भी है तो वह कुछ और क्रिया होती है, असफल खोज, असफल दस्तक, अनसुनी पुकार, गूंगी.....कविता नितांत निजी कर्म है मित्र! अन्त्येष्टि की तरह। वह सार्वजनिक प्रदर्शन में अपनी काया...माया में बेगानी हो जाती है। उसका उलाहना हमारी आत्मा सुनती है। उसकी कलप हमारे भीतर टीस मारती है।’
आशुतोष दुबे को लिखे पत्र से।


5

ये सर्दी की रात है। सन्नाटे में बिंधी, गूंजती...ठिठुरती। बरसों बाद आज डायरी फिर चलने को उठी है। जैसे बरसों पहले अचानक जाने क्यों बैठ गयी थी। न मुझे इसके चलने का सही सही पता है न ही मुझे इसके सही सही उस वक्त के बैठ जाने का पता है।
दरअसल आदमी से अधिक अक्लमंद और झूठा कोई दूसरा नहीं हो सकता। षायद अक्लमंद है इसीलिए झूठा भी है। झूठ का दर्षन बड़ा मजेदार है। यह हर वक्त हमें सच बोलने का अभिनय करने को मजबूर किये रहता है। झूठ की लोच तो और भी अद्भुत है। आप निरंतर सच बोल रहे हैं और जानते हैं कि यही सबसे बड़ा झूठ है। झूठ कोई पारदर्षी या कहें कि मायावी चीज नहीं जैसे कि सच होता है, बल्कि झूठ बेहद ठोस,मूर्त है।
सच और झूठ का यह चिन्तन यदि डायरी नियमित चलती रही तो आगे भी गति पाता रहेगा। मगर यहां झूठ का पक्ष यदि भारी लगता है तो इसलिए कि हर बात की वजह असल में हम जानते होते हैं, सिर्फ
मान नहीं रहे होते हैं।
जबकि मुझे तो यह ज्ञात होना चाहिए कि क्यों डायरी रुकी और और क्यों अब चली ? क्योंकि मेरे लेखन के पीछे या आगे यदि कुछ रहा है, यदि मेरा षिक्षक, पाठषाला, रियाज कक्ष, कल्पना का असीम आकाष कोई रहा है तो यही डायरी ही रही है।
जब जब मैं रुका हूं, ठिठका हूं, भ्रमित हुआ हूं तब तब मुझे इसने ष्षरण दी है, आईना दिखाया है। जिन चीजों के बारे में हम जीवन भर लिख सकते हैं और निरन्तर उस लेखन को अपूर्ण उससे असन्तुस्ट रह सकते हैं तो वह एक चीज डायरी भी है। आज इसने दरवाजे का पाट खोला है, भीतर जा रहा हूं, बरसेां बाद । सो, अधिक बातें आज संभव नहीं है। आज सिर्फ किसी की सिसकियां सुननी है....और आगे अपने रोने से भी कहां?
10.1.97 रात 11.30


कई बार सोचता हूं मेरी प्रिय विधा कौनसी है। कविता, कहानी, समीक्षा, डायरी, पत्र लेखन!इनमें से किसी को छांट पाना बहुत मुष्किल है। क्योंकि प्रत्येक विधा अपनी उस समय की मनःस्थिति पर निर्भर करती है। या फिर उन बातों पर कि बात क्या कहना चाहते हैं। उपन्यास भी लिखने का प्रयास मैंने किया था, मगर मेरे साथ दिक्कत ये है कि मैं जिन बातों को रेखांकित करना चाहता हूं या जिन के बारे में सोचता रहता हूं या जीवन के वे क्षण जिन पर मैं विचार करता हूं, सोचता हूं वे बहुत सूक्ष्म क्षणों के हिस्से होते हैं। दूसरा ये कि मैं किसी बात को बोझ की तरह ढो नहीं सकता। जब तक मुझे स्वयं आनन्द नहीं आता तब तक मैं उस लिखे को स्वीकारता नहीं। कई तरह की भावनाएं, बातें होती हैं जो सिर्फ डायरी या पत्र में ही लिखी जा सकती है। उन बातों से कोई कहानी, कविता नहीं लिखी जा सकती। और यदि हठवष लिख भी लेते हैं तो मन में फांस सी चुभती रहती है। यह फांस वह झूठ है जिसे हम उस समय स्वीकार नहीं पाते। लोग नियमित लेखन करते हैं, प्रतिदिन बड़ी संख्या में । मैं ऐसा चाह कर भी नहीं कर सकता। मैं उस क्षण की प्रतीक्षा करता हूं जो हमारे भीतर के तनाव, हलचल को उनके अपने षब्दों, भा, लय में बाहर ला सके, रूप दे सके। मै अपने जीवन में अन्य क्षेत्रों मंे हो सकता है जल्दबाजी कर जाऊँ मगर इस लिखने के क्षण की प्रतीक्षा के बारे में धीरज ही मेरा विष्वास है।
11.1.97  रविवार रात 11.15 बजे

6

नींद हत्यारिन है या सपने हत्यारे ? ये सवाल मुझे रात और दिन में नहीं शाम को उकसाता है। लगता है इतना जरूर है कि इन दोनों में से कोई है जो मेरी देह में काले बिल्ले सा घर कर गया है। रात में जब वह मुझमें विचरता है तो पाता हूं सारा आकाश कोई काला बिल्ला है जो मेरी देह को सूंघता....चाट रहा है। कभी कभी अपने दांत भी आहिस्ता से चुभा देता है कि खा जाऊंगा...पर काटता नहीं खाता नहीं केवल चाटता है कि, किसी दिन इससे आजिज आ मैं ही उसे कह दूंगा, ‘प्लीज चाटो मत खा डालो बोटी बोटी’ फिर सोचता हूं कि कहीं कह तो नहीं दिया। वह इसी फिराक में तो अपनी जीभ का नमक मेरी देह पर बिछा रहा है। कहीं ऐसा न हो मैं उसे मार डालूं और हत्यारा कहलाऊं। इस साजिश...इस चोकसी में अपनी भाषा की जर्जर नाव में बैठ मैं सात समन्दर पार कर जाऊंगा....नींद और सपनों के मारक इन्तजार से परे जाग के मारक अंतिम क्षेत्र में....किसी ने वैसे मुझे बताया है कि वहां काला बिल्ला न होगा पर सफेद बिल्ला होगा अपनी नींद की गठरी किसी अन्य को सौंपने के लिए।
01.2.13

जो चला गया है....उस दुनिया...वही आ सकता है वही आएगा। जो आया है....जन्मा है अभी इस घड़ी, उसका जाना तय है। प्रतीक्षा और शोक रात दिन हमारे मित्र हैं साए की तरह। साया चले गए का भी...मृतक का भी होता है। पर जो जन्मा है वह भी अपने साथ कोई साया लिथड़ा लाया है... चाहे अनचाहा नियति से हारता जनमता। केवल प्रस्थान से वह हारती है। उसकी हार में आकाश दिन भर...रात भर अपनी असीमित गांठ में कसता रिसता रहता है।
जा चुकों का मेला है....उन्हीं में है।
आने वाले से स्थान रिक्त हो रहा है प्रतिपल।
केवल खंडहर में फूटे अंडे इसे समझते हैं।
01.2.13

सौन्दर्य और शोक में कोई रासायनिक एकात्म है क्या ?
01.2.13

आलाप विलाप है.....विलाप आलाप....इस से कंठ पर फर्क नहीं पड़ना चाहिए। माध्यम होना सबसे बड़ी निर्मम कसौटी है।
01.2.13

आज पूरे दिन मल्लिकार्जुन मन्सूर साहब को सुनता रहा। मैंने अपने प्रिय संगीतकारों की अलग अलग सीडियां बना रखी है। हरेक 7-8 घंटे की। यानि जिसे जिस दिन सुनो भरपूर डूबो। मुझे हमेशा लगता रहा है कि गंगूबाई हंगल, मन्सूर साहब, अली अकबर खां, किशोरी अमोनकर या ऐसे ही साधकों की साधना से गुजरना भी एक रियाज एक शऊर मांगता है। इन लोगों को सुनते समय मैं हमेशा इतना रिक्त हुआ हूं कि एक बूंद जल के गिरने पर भी जो नाद उत्पन्न होता है उसे अनुभूत करने के लिए ही एक पूरा जीवन चाहिए।इस पर कुछ लिखना...कहना निरर्थक प्रयास लगता है। ये केवल होती है अपने में...अपने विलंबन में राग और समय के आलोक और अन्धेरे में । इस होने का कोई अन्य विकल्प या रूप, देह नहीं। हमारे शब्द यहां आते आते कुटिया के बाहर खुद ही अल्पज्ञता, सीमितता को जानते थम जाते हैं। आकाश में एक सफेद झूलना होता है...जिसमें हमारे उल्लास और शोक होते हैं। यहां केवल गान होता है। दिन रात...सुख दुख से परे। इतना विलंबित कि विलंबन खुद एक आलंबन सा अपनी ही देह में नर्तन करता अपनी छाया में सुधबुध खोया सा रहता है। अपनी अधमुंद पलकों में। मैंने एक बार पीयूष दईया के प्रबल आग्रह पर सर्मपण करते हुए गंगूबाई हंगल को सुनते हुए....बहुत सतही....अल्पवयस्क सा गद्य लिखा था। लिखता नही ंतो अपनी असफलता...सामथर््यहीनता कैसे जान पाता। अब लगा किसी भी शास्त्रीयता को आप सूक्तियों में या कि शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते, बांध नहीं सकते, ग्रहण नहीं कर सकते। वहां या ऐसी जगहों पर केवल समर्पण ही हो सकता है। आप आसमान से केवल सुनना सीख सकते हैं, और पाते हैं कि कहना अपने में तात्कालिक क्रिया है। शास्त्रीय संगीत या

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कला का ऐसा ही अन्य सघन रूप हमें एक साथ हमारी और अपनी भी विराटता और अकिंचनता का बोध कराता है। उस पर विचार करते ही हम उसके परिसर मे ंबहते रस से विमुख हो जाते हैं। जिसका सूखापन हमारी आत्मा बरसों तक सहती है और नियति को स्वीकारती अपने अंत की पहली और अंतिम सीढी पर अपना कंठ रख देती है। जिसे ये साधक पुनः अपनी रसमयता के परिसर में ले लेते हैं ...तब वह कंठ भी गाने नहीं लगता बल्कि गान हो जाता है।
बुधवार

भूलना सबसे बड़ा स्मरण है। स्व का मरण। विस्मरण न हो तो कोई पलक कभी झपके ही नहीं...कोई कंठ में पड़ी गांठ कभी रिसे ही नहीं.....भूलने को याद करते आज मैंने शाम आसमान देखा....ठंडा....नीला....फिर श्यामल। उसने मुझे देखते हुए कहा ‘ मेरा नीला आंसू अभी गर्म है।’ मैंने अपने चेहरे पर अंगुलियां फिरानी चाही तो वहां चेहरा ही न था...और तो और अंगुलियां भी नदारद हो गयी। मेरे हाथ बिना अंगुलियों से पूछ रहे थे....अब हम तुम्हारा गला कैसे घोटेंगे?
कमरे में आ आईना देखा तो वहां एक बादल मेरे किसी मृतक का चेहरा बना रिस रहा था।
25.1.13

खोना क्या है? डायरी को खाती दीमक रोती हुई अपनी किस्मत को खाती दीमक से पूछती है।
25.1.13

जो आदमी जीवन भर सब के फोकस का ध्यान रखता है...वह खुद किसी फोकस में नहीं पाया जाता। उसके सन्दूक में सब के चित्र होते हैं, पर उसका एक भी ‘पूरा’ चित्र किसी सन्दूक में नहीं मिलता।
आज बाऊजी की कोई एकल फोटो ढूंढने लगा तो पता चला इतने बरसों में इतने शादियों में, कहीं भी उनकी अकेले की कोई फोटो नहीं। क्या वे कभी अकेले नहीं रहे। क्या वे कभी किसी के फोकस में नहीं रहे। क्या उनको किसी ने नहीं सहेजने की सोची। एक आदमी सब के लिए इतना खो जाता है कि वह सब के लिए जीते जी खो जाता है। यह क्या संकेत है, क्या सन्देश। कितनी बड़ी यातना।
शर्मिन्दगी।
अब सब के लिए जीते जी मरण का विकल्प ही शेष बचा है। अनिवार्यतः।
पिता का शोक पुत्र है....पुत्र ..जिसकी खुद छाया भी अपनी नहीं। यूं हर पुत्र निर्वंश जीता....मरता है...भाषा इस शोक और मरण को अपना बहाव देती है।
21.1.13

आज दिन की सर्द धूप और उड़ती रेत के मध्य मेरा साया एक सूखे पीपल के नीचे पड़ा था....और पत्तों की शक्ल में पीपल के धुर्रे पड़ते देख अपनी पसरी राख को फूंक से उड़ाने लगा। उसकी तो जड़ें थी, भले ही अब मृतप्रायः......साए की जड़ें कहां अपना मरण पाती है। अभी जब घर आ रहा था तो देखा इन्तजार करने वालो ंके जाने के बाद घर भी एक सूखे पीपल सा अपने पत्तों को छोड़ता रहता है। जो हम होते हैं।
21.1.13

पेड़ की छाल सा तुम्हारे मन से उतर जाऊंगा- अभी इस पल से- देखो।
21.1.13


स्मृति एक विलाप है- अनसुना...घुटा घुटा। इसी तरह एक शब्द है...‘पदचाप’...मुझे लगता है हर शब्द एक जीवन चाहता है.....शब्द मृतकों के कौवे हैं....नीले आसमान में काली सिसकियां।
17.1.13


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मैं ‘उसका’ नामुराद हूं....दो नावों को एक करता...दवा की दुआ की फूंक मारता। कोई किसी को रोक सकता है क्या....मरने से....मार देने से.....कोई रोक सका है क्या?
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?....ये ‘क्या है’.....मेरी छाती में ठंडी कील सा लहराता है।
खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक......मैं उस खबर करने वाले को ही मार दूंगा।
15.1.13

सूना आंगन....कोई चुप पदचाप.....चलता आदमी एक दिन बिछ जाता है आंगन की छाती में।
चीजें रह जाती है। उनका सूनापन उन्हें आबाद करता है।
11.1.13

बरसों पहले 86...87 के आसपास अपने अग्रज रंगकर्मी मित्र कैलाश भारद्वाज के साथ सीमान्त क्षेत्र बज्जु से आगे था। रेत के धोरोे पर से गुजरता। आसमान से भी रेत बरस रही थी। सूरज के चेहरे तक पर रेत जम चुकी थी। तब उन्होंने गुनगुनाना शुरू किया। हमारे पैर धोरों में धंस रहे थे और मैं उनकी आवाज के धोरे में....‘भुलाना भी चाहो भुला ना सकोगे’.....फिर रात को भी अमावस मे ंरेत ही बरस रही थी.....बस तपने की जगह अब वह शीतल थी। दूर तक रेत की आवाज थी....‘तो बेचैन हो हो के दिल थाम लोगे’....उस रात के बाद में मेरे रक्त में....आत्मा में वह गूंजती तड़प...रेतीली सी....मुझे खाए जाती रही है।
उन दिनों रिकार्ड का जमाना था....आज शाम मैं इसे गा रहा था तो लगा रेत गा रही है। किसी को ऐसे याद करना केवल सूने शहर में ही संभव है। भुतहा शहर में...जब आप के सब रूठ कर या मर कर जा चुके हो।
14.1.13


कौव्वों और चींटियों का रंग एक सा होता है। धरती के केनवास पर उड़ता और रेंगता। शोक में और स्मृति में कौव्वे उ़ते हैं। श्राद्ध का भोग ग्रहण करते हैं। तब आकाश में हमारी पुकारें उनको पतंग सा नीचे अपनी छत पर खींच लाना चाहती है। चींटियां कहीं भी उड़ती नहीं। निर्मल जी के शब्दों में शव पर रेंगती है। शव पर धुंआ भी पसरता है....पोरपोर को लपेटता। हम चींटियों की बांबियों में आटा...मिश्री डाल आते हैं, क्यों? क्या इसलिए कि जब हम मर जाएं तो वे हम पर न रेंगे? निर्मल जी की कहानी ‘कौव्वे और काला पानी’ तथा उपन्यास ‘अन्तिम अरण्य’ में उड़ते कौव्वे मुझे बाद में रामचन्द्र गांधी के व्याख्यान में दिखायी देते हैं जो वे इसी कहानी पर दे रहे थे, निर्मल जी के जाने के बाद। उन कौव्वों को रामू गांधी विन्सेन्ट के चित्र तक देख आते हैं और सारे कौव्वों से धरती कांव कांव करती चीखने लगती है।
2.2.13

आज पूरे दिन दो पाटों में पिसता रहा....तो मां की बाद याद आई। जब मैं आंगन में उसके साथ घट्टी चलाता था। आमने सामने बैठ। बाजरी या गेहूं या नमक को पीसने के लिए। तो मां हर दो चार फेरों के बाद एक मुट्ठी घट्टी के मध्य के मुंह में डाल देती। मैं भी जिद करता.....मैं भी डालूंगा...। मैं एक साथ कई मुट्ठियां भर डाल देता तो वह अपनी रफ्तार और लय से उतर जाती। तब मां करती...‘एक बार में एक’...। आज इतने खयालों में धिरा हूं तो वह ‘एक बार में एक’....का नियम काम नहीं आता। जीवन की घट्टी का अपना नियम और नियति होती है। हमें पीसने वाला इस नियम से मुक्त होता है.... अपने नियम से बंधा और बिंधा। मैं जानता हूं अभी शाम के समय मुझे उसे डिगाना नहीं है...जैसे वह मुझे डिगा नहीं पाया है...इस पल तक।
14.1.13


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सुबह से शमशेरजी याद आ रहे हैं और मैंने आंगन में गारा लीप खाली छोड़ा है कि वे आएंगे....नंगे पांव। और इस भोर के आंगन में की ठण्ड उनके तलुओं को शीतलता देगी। उनकी आंगन में रह जाएगी...जिन पर मैं अपना नाक रख सूंघूंगा। मुझे उसमें वे आकाश का नीलापन देखते दीखेंगे जिसमें एक सफेद पंख.....एक हरा पत्ता....झूलता होगा । मैं उन्हें गुड़ की राबड़ी खिलाऊंगा जो मेरी मां स्वर्ग से टिफिन में भेजेगी। मेरे बाऊजी उनके लिए सांगरी भेजेंगे स्वर्ग से। मेरा भाई स्वर्ग से उतर उन्हें साईकिल पर बिठा बीकानेर की गलियों में घुमाएगा। फिर मैं और किरण उनसे कविताएं सुनेंगे। मलयज को याद करते वे भीग जाएंगे भीतर तक। मैं उन्हें कहूंगा मुझ से कविताएं नहीं लिखी जाती...आईये.....देखिये ना....मैं आपकी किताबों को उनका कवि दिखा देना चाहता हूं, जैसे लोग धूप दिखाते हैं। तब वे मेरे कंधे पर हाथ रखते चारपाई पर बैठ कहेंगे,‘तुम्हारी मां....बाऊजी बहुत जल्द चले गए...पिछले साल आया था तो मां ने गारा लीपा था....राबड़ी खिलाई थी...बाऊजी ने संागरी ला कर दी थी और आंगन में मेरे पांवों की छाप पर नाक रख कुछ सूंघ रहे थे....और तुम्हारी मां आसमान में देख रही थी।’ अभी शमशेरजी गए हैं । मैंने कहा मै तांगा करा देता हूं तो कहने लगे मलयज बाहर खेजड़ी के नीचे साईकिल लिए उनका इन्तजार कर रहे हैं। मैं नहीं पूछ सका कि......
13.1.13
 

-अनिरुद्ध उमट
 

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