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ईव टीजिंग

अभी कल की ही तो बात है‚ टी वी पर स्टार न्यूज़ में एक चौंका देने वाला समाचार देखा। दिल्ली में लगातार महिलाओं के प्रति हो रही छेड़छाड़ पर काबू पाने के लिये दिल्ली पुलिस ने एक उपाय निकाला है तथा एक मुहिम शुरु किया है। अपनी महिला कान्स्टेबलों को सादा कपड़ों में बसस्टॉप्स‚ पार्क और अन्य सार्वजनिक और भीड़ भाड़ वाली जगहों पर खड़ा कर दिया गया और इसके बाद सामने आये सैंकड़ों चौंकाऊ परिणाम — युवक तो युवक… साठ साल के बूढ़ों तक को इस मुहिम के दौरान पकड़ा गया!

गन्दे शब्दों व भाषा को बोलते हुए स्कूटर पर निकल जाना‚ शरीर से छूकर गुज़र जाना‚ चुटकी काट लेना‚ भद्दे इशारे करना यह सब आम है आज भारतीय शहरों में। इससे महिलाएं स्वयं को असुरक्षित तो पाती ही हैं‚ साथ ही मानसिकता पर एक लिजलिजा अहसास अपनी छाप छोड़ जाता है कि ' हम महज भोग्या हैं? '

दिल्ली में 'ईव टीजिंग' की बढ़ती शिकायतों के चलते दिल्ली पुलिस की ये 'ईव टीजिंग' के खिलाफ चलाई मुहिम बहुत ही सराहनीय है। दिल्ली में अब यह छेड़छाड़ तथा महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध अपने चरम पर हैं और महिलाएं स्वयं को भीड़ भरे इलाके में भी सुरक्षित नहीं पातीं।

टी वी पर दिखाए गये इस मुहिम के एक दृश्य में एक साठ साल के प्रौढ़ को महिला कान्स्टेबल को छेड़ते हुए पकड़ा गया‚ पहले उसे एक करारे थप्पड़ से नवाज़ा…बाद में उसकी पत्नी व पुत्र को बुलाया गया। उससे उस महिला कान्स्टेबल के पैर पकड़वाए गये। पत्नी व पुत्र के समक्ष शर्मीन्दगी का यह घनीभूत भाव उस प्रौढ़ के लिये अवश्य सबक साबित हुआ होगा‚ बल्कि आस पास के अन्य लोगों तथा टी वी के दर्शकों पर भी खासा प्रभाव छोड़ गया होगा। ऐसे ही अन्य दृश्यों में युवकों‚ शादीशुदा पुरुषों को भी पकड़ा गया। सबके सामने पिटाई तथा अपमान तो हुआ ही साथ ही उनके माता पिता तथा खास तौर पर बहनों व पत्नियों को भी बुलवाया गया। यहाँ तक कि उन्हें पिटते हुए और माफी मांगते हुए टी वी पर दिखाया गया। और क्या रास्ता हो सकता है इस ' ईव टीज़िग' और इसके और गंभीर परिणाम यौनशोषण तथा बलात्कार पर काबू पाने का?

यह इतना गंभीर मसला है कि इसके पीछे छिपा आम भारतीय पुरुष का मनोविज्ञान आसानी से समझ ही नहीं आता! क्या ये महज फिल्मों और टी वी पर बढ़ते विदेशी चैनलों और हिन्दी चैनलों पर भी लगातार परोसे जाते यौन भड़काऊ सीरीयल और हिन्दी पॉप का असर है? या इन सब यौन भड़काऊ सामग्री से रू ब रू होने के बाद उसकी मानसिकता को लगातार दबाते एक आम भारतीय रूढ़ीवादी संस्कार के संघर्ष के परिणाम स्वरूप पनपती ग्रन्थियां हैं? बहुत उलझा हुआ विषय है यह। मध्यमवर्ग ही जहाँ इस समस्या से त्रस्त है तो वहाँ मध्यम व निम्नमध्यमवर्ग के पुरुषों का बड़ा प्रतिशत ही इस समस्या की वजह है। हालांकि निम्न व उच्चवर्ग भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं। पर इसकी सबसे बड़ी शिकार बसों में जाने वाली मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाएं तथा कॉलेज जाने वाली लड़कियां हैं। वहीं मध्यमवर्गीय बेरोजगार लड़कों या शोहदों‚ या दमित मानसिकता वाले असंतुष्ट पुरुषों का एक बड़ा समूह इस बड़ी समस्या के मूल में है। रही उच्चवर्ग के ' ईवटीज़र्स' की बात तो वह भी हैं… उनका दायरा ' डिस्कोथेक'‚ रेस्टरांज़‚ अपनी पार्टियों तक है। हालांकि वे भी दिल्ली में अपनी कारों के खुले दरवाज़ों से लड़की को छू कर – छेड़ कर गुज़र जाते हैं‚ कई बार अकेली लड़कियों को कार में खींच भी लेते हैं। पर न जाने क्यों वे चर्चा में नहीं आते। वे तब चर्चा में आते हैं जब वे अपने ऊंचे सम्पर्कों के दंभ में किसी की जान ले बैठते हैं ।ह्य याद है‚ जैसिका लाल मर्डर केस?हृ

इस समस्या को बढ़ावा देता है‚ महिलाओं का भी संस्कारी मन‚ जिसके पीछे होता है ' ओह‚ सीन क्रियेट करने से क्या फायदा?' ‚ 'पुलिस में शिकायत करने में भी तो हमारी बदनामी है।' उस पर पुलिसथाने की लम्बी प्रक्रिया – ' किसके पास इतना वक्त है‚ बस छूट जायेगी।' इस सब से इन छेड़छाड़ करने वाले पुरुषों का हौसला बढ़ता ही है। अकसर महिला स्वयं किसी विवाद में उलझने से डरती है। उस पर छेड़ने वाला व्यक्ति छेड़ कर इधर उधर हो जाता है फिर किसकी शिकायत करें? हालांकि दिल्ली पुलिस का नेटवर्क काफी अच्छा है‚ हर आधा किमी पर चौकी मिल ही जाती है। या मोबाइल पुलिस।

यह एक अच्छी शुरुआत है‚ पर इसे दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये‚ भारत के हर छोटे बड़े शहर में यह समस्या आम है‚ इस मुहिम को हर शहर साल में चार पांच बार चलाना चाहिये। लेकिन इसकी सफलता के लिये महिलाओं का सहयोग बहुत ज़रूरी है। इस ' ईव टीजिंग' को कम करके एक हद तक बलात्कारों तथा यौनशोषण की दरों में भी कमी की जा सकती है। क्योंकि यहीं से शुरुआत होती है महिला को अकेला व असहाय समझने तथा सहज सुलभ मानने की मानसिकता की। और यही है पहला ज़हरीला अंकुर जो छेड़छाड़ से लेकर देह सहलाते हुए गुज़र जाने के हौसले तक बढ़ कर आगे किसी यौन अपराध का रूप लेता है। इसे यहीं उखाड़ फेंकना चाहिये। इसमें महिलाओं की जागरुकता नितान्त आवश्यक है।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

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