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जल संकट – विकटता की ओर
जल संकट की समस्या पर महज लोग तभी क्यों बातें करते
हैं जब ग्रीष्म ऋतु आ जाती है…और पानी की किल्लत शुरु हो जाती है। जल
संकट क्या इतनी सतही समस्या है जितना कि हम सोचते हैं‚ क्या इसके प्रति
और अधिक गंभीर रवैय्या अपनाने की आवश्यकता नहीं? हम भारतीय बहुत ही सतही
तौर की सोच रखते हैं — हां भई‚ जलसंकट तो है‚ पर हमें क्या…हमारे मोहल्ले
में तो सुबह शाम आता है। न आए तो हम टैंकर बुला लेते हैं। या फिर — जल
स्तर सारी दुनिया में घट रहा है‚ पर तो बहसें – मुबाहिसे होते रहते हैं‚
लेकिन अपना लॉन में सुबह – शाम ज़रूरत – बिला ज़रूरत तर रहना ज़रूरी है। एक
दिन पानी न आये तो सरकारें गिर जायेंगी‚ वैसे लेकिन टूटी टंकियों‚ उधड़ी
पाइप लाइनों से धार – धार पानी बह कर सड़कों पर बहता रहेगा और नलकूप सूखे
हो जायेंगे। जी हां‚ बुरा लगे या भला लगे लेकिन यहाी है हमारी नितान्त '
भारतीय' सोचॐ एक सहज नागरिक किस्म की जागरुकता हम में जन्मजात ही नहीं
है। शुतुरमुर्ग की तरह खतरे से डर गर्दन रेत में छिपा कर हम स्वयं को खतरे
से मुक्त मानते आये हैं। आज से नहीं सदियों से। शायद हम ऐतिहासिक दमनों
की वजह से भीतर तक ऐसे ही हैं।
" हमें क्या पड़ी है।" " पानी की कमी? कहां है पानी की कमी? अच्छा… पता नहीं…
होगी तो गरीबों के मुहल्ले में होगी‚ हम तो वाटर पार्क‚ स्विमिंगपूल का
भरपूर मज़ा लेते हैं गर्मियों में।" क्या ऐसे शुतुरमुर्गों की आंख खोलने
की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य के हाथों पानी के दुरुपयोग और नदियों –
तालाबों के प्रदूषण के कारण पानी आने वाले दिनों में 'कहानी' ही बन कर न
रह जाये। आज तो हम पैसे व शक्ति के चलते…गरीबों व गांवों के हिस्से का
पानी जलक्रीड़ाओं में बरबाद कर देंगे… लेकिन उसकी भी तो सीमा है फिर…ये
वाटरपार्क…स्विमिंगपूल…ही नहीं खाली टंकियां… खाली बर्तन हमें मुंह ज़रूर
चिढ़ाएंगे। मानसूनॐ उसके बदलते मिजाज़ की भनक नहीं पड़ी आपको? हमारी हर छोटी
से छोटी गतिविधि का असर मौसम पर पड़ता है। ऋतुचक्र में आई गड़बड़ियों के
उत्तरदायी एक सीमा तक मानव का हस्तक्षेप और प्रकृति का दोहन है।
अन्नादिभवति भूतानि‚ पर्जन्याद् अन्न संभवÁ ह्य भगवद्गीताहृ अन्न से जीव
जन्म लेता है‚ जल से ही अन्न उत्पन्न होता है। हमारे मध्यकालीन कवि रहीम
यूं ही तो नहीं लिख गये " बिन पानी सब सून…।" पृथ्वी पर उपलब्ध जल ही है
जो जलचक्र का निर्धारण करता है।
विश्वजल संसाधन के अनुसार वर्तमान समय में दुनिया की 2।3 अरब आबादी जल
संकट की विकटता से दो चार हो रही है। उनमें भी तीसरी दुनिया के देश ज़्यादा
हैं। विकासशील देशों का भी यही हाल है। जहां जलसंसाधनों की कमी है।
अफ्रीका‚ चीन‚ भारत‚ मध्यपूर्व के देश‚ मैक्सिको‚ पश्चिम अमेरिका के कुछ
हिस्सों में जल का भारी संकट है। कहने को तो
पृथ्वी के करीब दो तिहाई हिस्से में पानी है। लगभग 20 प्रतिशत पानी हमारे
समुद्रों के पास है। पर यह नमकीन – खारा सान्द्र पानी इस्तेमाल के योग्य
नहीं। केवल 2।5 प्रतिशत पानी मीठा है इसमें से अधिकतर ध्रुवीय प्रदेशों
में बर्फ बन जमा है। हमारे लिये जो पानी है वह महज 0। 08 प्रतिशत है। जहां
आज विकसित देशों में प्रति मानव 20 से 80 लिटर पानी का उपयोग हो रहा है
वहीं अविकसित देशों‚ विकासशील देशों के कई हिस्सों में हर व्यक्ति को दो
से पांच लिटर पानी ही उपलब्ध है। मनुष्य के लिये इतना पानी तो आवश्यक है…यह
भी कम हो गया तो जीने के लाले पड़ जायेंगे।
इस सदी के दो विकट आसन्न संकट मानव के स्वयं के पैदा किये हुए हैं वे हैं
— गरमाता वायुमण्डल और साफ तथा शुद्ध पानी की कमी। यह कमी भविष्य के
भयंकर संकटों को जन्म देने वाली है। 'पेट्रोल को लेकर होने वाले युद्ध अब
पानी को लेकर होंगे' यह उक्ति महज व्यंग्य नहीं… एक कड़वा सच है। पानी की
कमी की वजह से जलविहीन क्षेत्र के लोग पलायन कर जलसम्पन्न देशों की ओर
भागें और जल विवाद हों यह अब बहुत दूर की बात नहीं है। हमारे देश का
कावेरी विवाद उसका उदाहरण है।
आगामी वर्षों में हमारा जल उपभोग भयंकर तेजी से बढ़ेगा। और पानी की भयंकर
मार पड़ेगी ग्रामीण और अविकसित इलाकों और गरीबों को तथा विकसित क्षेत्रों
के अविकसित कोनों में। इस सबका सीधा – सीधा असर कृषि पर होगा। जब हम जल
विहारों में जलक्रीड़ा मगन होंगे तब किसान
आत्महत्या कर रहे होंगे। अमीर तो आयातित अन्न पर गुज़ारा कर लेंगे लेकिन
गरीब का क्या होगा? विडम्बना यही है कि जल से सबसे करीब का रिश्ता मेहनत
कश किसान और श्रमिक का है और उसी के पास पानी नहीं है।
जल संकट की समस्या पर महज लोग तभी क्यों बातें करते हैं जब ग्रीष्म ऋतु आ
जाती है…और पानी की किल्लत शुरु हो जाती है। जल संकट क्या इतनी सतही
समस्या है जितना कि हम सोचते हैं‚ क्या इसके प्रति और अधिक गंभीर रवैय्या
अपनाने की आवश्यकता नहीं? हम भारतीय बहुत ही सतही तौर की सोच रखते हैं —
हां भई‚ जलसंकट तो है‚ पर हमें क्या…हमारे मोहल्ले में तो सुबह शाम आता
है। न आए तो हम टैंकर बुला लेते हैं। या फिर — जल स्तर सारी दुनिया में
घट रहा है‚ पर तो बहसें – मुबाहिसे होते रहते हैं‚ लेकिन अपना लॉन में
सुबह – शाम ज़रूरत – बिला ज़रूरत तर रहना ज़रूरी है। एक दिन पानी न आये तो
सरकारें गिर जायेंगी‚ वैसे लेकिन टूटी टंकियों‚ उधड़ी पाइप लाइनों से धार
– धार पानी बह कर सड़कों पर बहता रहेगा और नलकूप सूखे हो जायेंगे। जी हां‚
बुरा लगे या भला लगे लेकिन यहाी है हमारी नितान्त ' भारतीय' सोचॐ एक सहज
नागरिक किस्म की जागरुकता हम में जन्मजात ही नहीं है। शुतुरमुर्ग की तरह
खतरे से डर गर्दन रेत में छिपा कर हम स्वयं को खतरे से मुक्त मानते आये
हैं। आज से नहीं सदियों से। शायद हम ऐतिहासिक दमनों की वजह से भीतर तक ऐसे
ही हैं।
" हमें क्या पड़ी है।" " पानी की कमी? कहां है पानी की कमी? अच्छा… पता नहीं…
होगी तो गरीबों के मुहल्ले में होगी‚ हम तो वाटर पार्क‚ स्विमिंगपूल का
भरपूर मज़ा लेते हैं गर्मियों में।" क्या ऐसे शुतुरमुर्गों की आंख खोलने
की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य के हाथों पानी के दुरुपयोग और नदियों –
तालाबों के प्रदूषण के कारण पानी आने वाले दिनों में 'कहानी' ही बन कर न
रह जाये। आज तो हम पैसे व शक्ति के चलते…गरीबों व गांवों के हिस्से का
पानी जलक्रीड़ाओं में बरबाद कर देंगे… लेकिन उसकी भी तो सीमा है फिर…ये
वाटरपार्क…स्विमिंगपूल…ही नहीं खाली टंकियां… खाली बर्तन हमें मुंह ज़रूर
चिढ़ाएंगे। मानसूनॐ उसके बदलते मिजाज़ की भनक नहीं पड़ी आपको? हमारी हर छोटी
से छोटी गतिविधि का असर मौसम पर पड़ता है। ऋतुचक्र में आई गड़बड़ियों के
उत्तरदायी एक सीमा तक मानव का हस्तक्षेप और प्रकृति का दोहन है।
अन्नादिभवति भूतानि‚ पर्जन्याद् अन्न संभवÁ ह्य भगवद्गीताहृ अन्न से जीव
जन्म लेता है‚ जल से ही अन्न उत्पन्न होता है। हमारे मध्यकालीन कवि रहीम
यूं ही तो नहीं लिख गये " बिन पानी सब सून…।" पृथ्वी पर उपलब्ध जल ही है
जो जलचक्र का निर्धारण करता है।
विश्वजल संसाधन के अनुसार वर्तमान समय में दुनिया की 2।3 अरब आबादी जल
संकट की विकटता से दो चार हो रही है। उनमें भी तीसरी दुनिया के देश ज़्यादा
हैं। विकासशील देशों का भी यही हाल है। जहां जलसंसाधनों की कमी है।
अफ्रीका‚ चीन‚ भारत‚ मध्यपूर्व के देश‚ मैक्सिको‚ पश्चिम अमेरिका के कुछ
हिस्सों में जल का भारी संकट है। कहने को तो
पृथ्वी के करीब दो तिहाई हिस्से में पानी है। लगभग 20 प्रतिशत पानी हमारे
समुद्रों के पास है। पर यह नमकीन – खारा सान्द्र पानी इस्तेमाल के योग्य
नहीं। केवल 2।5 प्रतिशत पानी मीठा है इसमें से अधिकतर ध्रुवीय प्रदेशों
में बर्फ बन जमा है। हमारे लिये जो पानी है वह महज 0। 08 प्रतिशत है। जहां
आज विकसित देशों में प्रति मानव 20 से 80 लिटर पानी का उपयोग हो रहा है
वहीं अविकसित देशों‚ विकासशील देशों के कई हिस्सों में हर व्यक्ति को दो
से पांच लिटर पानी ही उपलब्ध है। मनुष्य के लिये इतना पानी तो आवश्यक है…यह
भी कम हो गया तो जीने के लाले पड़ जायेंगे।
इस सदी के दो विकट आसन्न संकट मानव के स्वयं के पैदा किये हुए हैं वे हैं
— गरमाता वायुमण्डल और साफ तथा शुद्ध पानी की कमी। यह कमी भविष्य के
भयंकर संकटों को जन्म देने वाली है। 'पेट्रोल को लेकर होने वाले युद्ध अब
पानी को लेकर होंगे' यह उक्ति महज व्यंग्य नहीं… एक कड़वा सच है। पानी की
कमी की वजह से जलविहीन क्षेत्र के लोग पलायन कर जलसम्पन्न देशों की ओर
भागें और जल विवाद हों यह अब बहुत दूर की बात नहीं है। हमारे देश का
कावेरी विवाद उसका उदाहरण है।
सच तो यह है कि पानी के अंधाधुन्ध दुरुपयोग के प्रति हमारी आंखों से शर्म
व सम्वेदना का पानी मर चुका है। पानी के इस अन्यायपूर्ण प्रबन्धन का
ज़िम्मेदार सरकार‚ भ्रष्ट प्रशासन और हमारी मर चुकी नागरिक चेतना है।
रिश्वत देकर वाटरपार्क और बड़े होटलों के व्यवसायी पानी जुटा लेते हैं और
मोहल्लों में लोग नल के सूखे मुंह की तरफ सुबह से टकटकी लगा कर बैठे रहते
हैं।
जलसंरक्षण का उपाय क्या हो? मेरे ख्याल से सबसे पहले हमें नागरिक जागरुकता
की आवश्यकता है‚ फिर आवश्यकता है भ्रष्ट प्रशासन से जूझने की। समाज व
समूह चाहे तो कुछ भी बदल सकता है। शहरों में पानी का अविवेकपूर्ण उपयोग
रोकना होगा‚ सिंचाई के तरीकों में सुधार लाना होगा। रासायनिक औद्योगिक
इकाइयों के कचरे से और सीवरलाइनों से नदियों‚ तालाबों को बचाना होगा। वैसे
सच कहूं तो… हम सुधार की उम्मीदों को बहुत पीछे छोड़ आये हैं। गंगा‚ जमना‚
गोमती‚ बेतवा‚ चम्बल आदि नदियों तथा इनकी सहायक छोटी नदियों को कबका हम
प्रदूषित कर चुके हैं। बहुत पहले इन नदियों का पानी विषैला हो चुका है।
कैसी विडम्बना है कि मानव सभ्यता ने इन्हीं नदियों के किनारे जन्म लिया
और शायद मरण भी इन नदियों के साथ – साथ बदा है मानव सभ्यता का। अगर आज भी
आंखें नहीं खुली तो।
भूमिगत जल भी अब प्रदूषण की मार से बचा नहीं। पीने योग्य नहीं रहा है।
कुल मिला कर देश का जलदृश्य बहुत खुशनुमा नहीं है।
जलसंकट अपनी विकटता की ओर बढ़ रहा है।अब भी नहीं चेते तो कब चेतेंगे? हमारे
वैज्ञानिक दिन रात इसके लिये गंभीर प्रयासों में व्यस्त हैं। सरकारी –
गैरसरकारी संस्थाएं इस दिशा में जी तोड़ काम कर रही हैं‚ मीडिया तरह तरह
के विज्ञापनों से निरन्तर चेता रहा है। क्या हम अपने आस – पास सामाजिक व
नागरिक चेतना का छोटा सा अभियान नहीं चला सकते? पानी की व्र्थता पर बच्चों
को सीख नहीं दे सकते? बहती – टपकती टंकियों‚ नलों‚ पाइपों की मरम्मत नहीं
करवा सकते? कुछ नहीं तो घर से ही शुरु की जाये समाजसेवा… घर की सफाई‚
शौचालयों में मितव्ययता से पानी खर्च करें‚ नल खुले न छोड़ें‚ शॉवर का
आनन्द लेने की जगह बाल्टी से ही नहा लें। अपने बगीचे को मोटे – खुले पाइपों
की जगह स्प्रिंकलर से सींचें। जहां एक मग पानी से काम चलता हो वहां बाल्टी
भर पानी फैलाने की ज़रूरत क्या है?
पानी का यह संकट नया नहीं है‚ अब ज़रूरत है अपनी पुरानी गलतियों को सुधारने
की। क्योंकि रहीम ने यूं ही नहीं कहा था कि " बिन पानी सब सून…
– मनीषा
कुलश्रेष्ठ
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