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प्रेमचन्द की एक सौ पचीसवीं जयंती पर

कालजयी कथाशिल्पी प्रेमचन्द की स्मृति में

प्रेमचन्द का नाम आते ही हमारे मस्तिष्क में पहला संकेत जो उभरता है‚ वह भारत के महान कालजयी कथाकार के रूप में उभरता है। देश के साथ – साथ कहानी के पुर्नजागरण युग का अध्येता। तभी तो उन्हें 'कलम का सिपाही' कहा गया।सर्वहाराओं की पीड़ा को कहानी में आत्मसात करने वाला पहला कहानीकार। जिनका कथा – साहित्य कल्पना के तिलिस्मी लोक का छद्म बाना नहीं ओढ़ता था बल्कि एक सार्थक उद्देश्य को वहन करता था। उन्होंने अपनी कहानियों में ' भारत की आत्मा ' को गूंथा। भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है। किसानों और मजदूरों के संघर्ष में बसती है।तभी तो कहानी का वह युग ' प्रेमचन्द युग' के नाम से जाना गया।
हिन्दी कहानी के इतिहास में 'प्रेमचन्द' का जो सर्वोपरि स्थान है‚ वह सदा ही रहेगा।क्योंकि उन्होंने तत्कालीन हिन्दी पढ़ने वालों की रुचि को क्रान्तिकारी रूप से बदल डाला था। प्रेमचन्द से पूर्व का पाठक चन्द्रकान्ता संतति में रुचि ले रहा था… उन्होंने उन्हें सामाजिक सरोकारों की ओर उन्मुख किया। वे यथार्थवादी हिन्दी कहानी के जनक रहे हैं— हालांकि वे स्वयं को यथार्थवादी नहीं मानते थे। आदर्शवाद उनकी कहानियों‚ उनके पात्रों का मुख्यगुण था। आदर्शों का साथ न उन्होंने ने न उमके पात्रों ने कभी नहीं छोड़ा। सुधारवादी‚ आदर्शवादी यथार्थ के वे पक्षधर थे। वे कभी आधुनिक अर्थों में यथार्थवाद के अर्थों का अनुकरण नहीं कर सके किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने कहानी को कल्पना के अलौकिक जगत से उतार कर जीवन की कठोर वास्तविकताओं के धरातल पर ला खड़ा किया — वे स्वयं लिखते हैं —

" मैं यथार्थवादी नहीं हूँ। कहानी में वस्तु ज्यों की त्यों रखी जाये तो वह जीवन चरित्र हो जायेगी। शिल्पकार की तरह‚ साहित्यकार का यथार्थवादी होना आवश्यक नहीं‚ वह हो भी नहीं सकता। साहित्य की सृष्टि मानव समुदाय को आगे बढा.ने – उठाने के वास्ते होती है… आदर्श अवश्य हो‚ पर यथार्थवाद और स्वाभाविकता के प्रतिकूल न हो। उसी तरह अगर यथार्थब्वादी भी आदर्श को न भूलें तो वह श्रेष्ठ है।… हमें तो सुन्दर आदर्श भावनाओं को चित्रित करके मानव हृदय को ऊपर उठाना है‚ नहीं तो साहित्य की महत्ता और आवश्यकता क्या रह जायेगी?" … " हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ के रूप में नहीं दिखाता बल्कि उसके वांछित रूप में दिखाता है। मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी भी नहीं हूँ।"

हो सकता है कई लेखक – कथाकार प्रेमचन्द की इस बात के प्रबल समर्थक हों और कुछ घोर असहमत। किन्तु यह सत्य है कि वे हिन्दी की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानी के जनक रहे हैं। वह बात अलग है कि पीढ़ियों के अन्तराल के साथ कहानी ने विकास किया हो और वह बेहतर बनी हो। लेकिन हिन्दी कहानी कितना ही विकास कर ले… वह प्रेमचन्द के स्थान को डिगा नहीं सकती।जनक के स्थान को कोई भी बिसरा नहीं सकता। प्रेमचन्द हमारे मानस में सदैव रहेंगे अपने कालजयी पात्रों के साथ — हमारे बचपन से लेकर हमारे बच्चों के बचपन तक को … बूढ़ी काकी‚ हामिद‚ बड़े भाईसाहब प्रभावित करते रहेंगे।

विष्णु प्रभाकर अपने निबन्ध 'प्रेमचन्द कथाकर के रूप में' में लिखते हैं — उनके पास जो स्वाभाविक और सरल कथानक थे‚ उन्होंने उन्हें उसी स्वाभाविकता और सरलता से‚ जनता को बोधगम्य हो सके ऐसी भाषा में उसके सामने रख दिये। उनकी भाषा में कवित्व का माधुर्य नहीं‚ अनुभूति और पीड़ा का चमत्कार भी प्राय: नहीं है‚ किन्तु उसमें शिशु की सी सरलता है जिसे प्यार ही किया जा सकता है।शिशु की सी सरलता का अर्थ यह नहीं है कि उसमें प्रौढ़ता का अभाव है। प्रेमचन्द की भाषा प्रौढ़ता की दृष्टि से मंजी हुई और प्रवाहमयी है। उनकी भाषा में बामुहावरा उर्दू की तराश और चुस्ती के साथ साथ हिन्दी की हार्दिकता का अद्भुत समन्वय हुआ है।"… " कफन की भाषा इसका प्रमाण है।"

प्रेमचन्द ने अपने युग के सामाजिक – राजनैतिक – आर्थिक तथा धार्मिक परिवेश को अपने कथा साहित्य में पूरा स्थान दिया। यहां तक कि सामाजिक राजनैतिक आन्दोलनों को भी। वे निरन्तर प्रगतिशील होते कथाकार थे। गांवों में बसने वाले ग्रामीण जीवन के बारे में उनकी समझ गहरी थी। उनके स्वयं के जीवनमूल्य इसी परिवेश से उभरे थे।उनकी कहानियों का तत्कालीन आम जनमानस का भारत स्पंदित था यही वजह थी कि उनकी कहानियां कालजयी हुईं। पंचपरमेश्वर‚ बूढ़ीकाकी‚ नमक का दरोगा‚ बड़े घर की बेटी‚ कफन से बढ़िया उदाहरण क्या हो सकते हैं?

प्रेम चन्द की कहानियों पर महज उस युग के सामाजिक – राजनैतिक – आर्थिक तथा धार्मिक परिवेश का ही असर नहीं पड़ा बल्कि उन पर आंदोलनों तथा व्यक्तियों का भी प्रभाव पड़ा। गांधी का प्रभाव उनके रचनाकाल के मध्य में खूब पड़ा‚ फिर बाद की कहानियों में सोशलिज़्म का प्रबाव दृष्टिगोचर हुआ। बल्कि अपने पत्र ' जागरण ' के माध्यम से उन्होंने सोशलिज़्म का प्रचार भी किया। गांधीवाद और माक्र्सवाद का समन्वय प्रेमचन्द में ही मिलता है। ' पूस की रात' और ' कफन' कहानियां आदर्शोन्मुखी आदर्शवाद के परे की धरातलीय यथार्थवाद की कहानियां हैं। जो लेखक के उत्तरोत्तर विकास की सीढ़यां हैं।

उनकी कहानियां ' बड़े भाई साहब '‚ ' आत्माराम' व ' मनोवृत्ति ' में अन्र्तजगत के चित्रण के प्रयोग की चेष्टा पाई जाती है। आलोचकों ने प्रेमचन्द जैसे कालजयी कथाकार को भी नहीं बख्शा है‚ माना कि यह सच है कि उनकी कथा संसार की अपनी कमियां और सीमाएं हैं मसलन नैतिकता व आदर्शवाद के प्रति अतिरिक्त मोह‚ शहरी जीवन की उपेक्षा‚ मध्यवर्ग के प्रति उपेक्षा‚ पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की सूक्ष्मता का अभाव। आलोचकों ने उन्हें दूसरे दर्जे का कलाकार माना… रवीन्द्रनाथ व शरतचन्द्र की अपेक्षा। यहां वे भूल गये कि उनके सामने किसी तरह की समृद्ध सृजन परम्परा का अभाव था। उनका युग समस्याओं का युग था‚ उनका परिवेश समस्याओं की अति से उलझता हुआ‚ आर्थिक – सामाजिक स्तर पर निरन्तर संघर्ष करता परिवेश था। यही वजह रही होगी कि मानव मन की समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दिया। किन्तु वे लेखक जो मानव मन की समस्याओं पर ध्यान देते हैं वे सर्वहारा वर्ग की ठोस यथार्थवादी पीड़ा को कितना पकड़ पाते हैं?

विष्णु प्रभाकर लिखते हैं — कहानी रूप ले रही थी‚ युग करवट ले रहा था. प्रेमचन्द के पास इतना समय कहां था कि वे इधर से आंखें मूंद कर अशरीरी मन की गुत्थियां सुलझाते। वस्तुत: हिन्दी के उस युग में प्रेमचन्द ही पैदा हो सकते थे।"

आगे वे अपने इसी निबन्ध में लिखते हैं — " मनुष्य में अपने इस अखण्डित विश्वास के कारन ही उन्होंने भारत की निरीह‚ उपेक्षित और निराश्रित ग्रामीण जनता की आत्मा से तादात्म्य भाव स्थापित किया और उसके सुख – दु:ख को‚ उसकी उदारता और महानता को सदा – सदा के लिये साहित्य में अमर कर दिया। यही था उनका यथार्थवाद और यही था आदर्शवाद। इसी कारण उनका साहित्य – जीवन का साहित्य अर्थात जनता का साहित्य बना।"
नि:संदेह वे सर्वकालिक और हिन्दी भाषा ही नहीं वरन् भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानीकार हैं। यह कहना एकदम सटीक है कि वे हिन्दी के विश्वप्रसिद्ध रचनाकार हैं।

आज उनकी एक सौ पच्चीसवीं जयंती है। और मैं ने कुछ ही दिन पहले अखबारों में पढ़ा कि उनके जन्मस्थान लमही ही नहीं बनारस में उनके निवास स्थलों से उनकी स्मृतियों को बेदखल किया जा रहा है। यह सच में हम भारतीयों के दिमागी दिवालियेपन की और सरकारों तथा प्रशासन के गैरज़िम्मेदार होने की पराकाष्ठा है। उन्हें स्मारकों का दर्ज़ा दिया गया कि नहीं ये नहीं पता किन्तु उनकी कभी सुध ली या नहीं? हमने अंग्रेजों से प्रशासन का काम सीखा‚ अंग्रेजी सीखी‚ साम्प्रदायिकता सीख ली किन्तु लेखकों की कद्र करना नहीं सीखाॐ पत्रकार‚ लेखक‚ मीडियाकार सच्चाइयां लिख – लिख कर‚ दिखा – दिखा कर ढेर कर देंगे पर न तो आम जन और न ही सरकार‚ न ही प्रशासन सुधरने वाला। हम पूर्णत: सम्वेदनहीन हो चले हैं।

लमही में उनका घर खण्डहर हो चुका है‚ उत्तरप्रदेश के शहरों में लगी उनकी प्रतिमाएं मैली कुचैली होकर टूट – फूट रही हैं। उनका कोई खयाल तक नहीं। अलबत्ता कुछ ऊंची पहुंच के साहित्यकारों की मदद से उनका जन्मशती समारोह ज़रूर एक पांचसितारा होटल में किया गया था।

कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि हमें अपनी सांस्कृतिक – ऐतिहासिक मूल्यों की धरोहरों को सहेजने का शऊर न कभी आया न कभी आएगा।लेकिन भारतीय यथार्थ के अमर कथाकार प्रेमचन्द अपनी कृतियों में अमर रहेंगे। हिन्दी ही नहीं वरन् विश्व की तमाम भाषाओं में अनूदित उनकी कहानियां – उपन्यास उन्हें एक कालजयी कथाकार के रूप में जीवन्त रखेंगे।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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