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नेपाल राजघराने में अविश्वसनीय
हत्याकाण्ड: नेपाल के इतिहास में नया अध्याय

नेपाल राजमहल के इतिहास में एक नई नृशंस कथा खून से लिखी गई। लोग सकते में हैं और विश्वास नहीं कर पा रहे कि युवराज दीपेन्द्र जैसा लोकप्रिय और स्नेहिल‚ रूमानी युवक ऐसा कर सकता है। तरह–तरह से नेपाल सरकार लोगों को विश्वास दिला रही है कि इसके पीछे किसी तरह का षड्यंत्र नहीं था। कभी यह सूचना आम की जाती है कि गलती से स्वचलित हथियार से यह हादसा हुआ‚ कभी नक्शे बना–बना कर राजपरिवार के बचे हुए सदस्य जो कि चश्मदीद गवाह हैं‚ दीपेन्द्र के नशे में किये वारों का स्टेप बाय स्टेप विवरण देते हैं। लेकिन जनता इस बात को गले नहीं उतार पा रही कि कुछ खास लोगों को दीपेन्द्र ने कैसे छोड़ दिया? अपने प्रिय भाई–बहनों से उसे कोई नाराज़गी नहीं थी। उनके चचेरे भाई पारस कैसे बच गए? इस साप्ताहिक भोज में वर्तमान राजा ज्ञानेन्द्र परम्परा के विरूद्ध अनुपस्थित थे और पारस अपनी पत्नी को भी साथ नहीं लाए। इस सब के बावज़ूद शवों का कोई पोस्टमार्टम नहीं किया गया‚ और जल्दी में उनका राजकीय दाह कर दिया गया।
वर्तमन राजा ज्ञानेन्द्र बीर विक्रम शाह मूलत: ' राजतंत्रवादी ' माने जा रहे हैं। और माना जा रहा है कि उनके पुत्र पारस का व्यवहार अतीत में हिंसक किस्म का रहा है और उनका सम्बंध कैसीनो के क्षेत्र से रहा है। नेपाल की जनता दु:ख और संदेहों के अतिरिक्त असुरक्षा की स्थिति में है। पत्रकारों की गिरफ्तारियाँ लोगों को लोकतन्त्र के खिलाफ कार्यवाही लग रही है।
ऐसे में क्या होगा भविष्य भारत–नेपाल के सम्बंधों का? जबकि नेपाल कुछ समय से पाकिस्तानी आई एस आई सरगर्मियों का क्षेत्र बनता जा रहा था और इसके एजेंट बड़ी आसानी से नेपाल–भारत सीमा का उपयोग करने लगे थे। सरकारी सूत्र के अनुसार नेपाल समस्या पर अभी भारत ' वेट एण्ड वॉच ' की स्थिति में है। अभी तो यही आँका जा सकता है कि लोकतांत्रिक रूप से नेपाल अभी असुरक्षित है। राजमहल की हलचलों पर भारत को नज़र रखनी होगी। क्योंकि आरंभ ही से राजकुमार ज्ञान्ोन्द्र राजा बीरेन्द्र द्वारा 1990 में प्रजातांत्रिक संविधान लागू करने सम्बंधी निर्णय से असंतुष्ट थे। फिलहाल भारत के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं कि वह राजकुमार ज्ञानेन्द्र को वर्तमान राजा मान ले। लेकिन नेपाल के राजमहल में सत्ता–परिवर्तन पर भारत को देश की उत्तरी सीमा पर अपनी सुरक्षा नीतियों का
विश्लेषण फिर से करना होगा।
भारत में जनरल परवेज़ मुशरर्फ के आगमन की प्रतीक्षा। भारत–पाकिस्तान की प्रस्तावित शिखर वार्ता पर अनेकों प्रश्न चिन्ह। क्या इस आगमन से कश्मीर विवाद का कोई हल निकल सकेगा? क्या मुशर्रफ के इस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखावे मात्र पर भारत कोई उम्मीद रख सकता है? भारत की अमन की पहल और बातचीत के प्रति उदार रवैय्या कश्मीर की विकराल समस्या को सुलझाने की एक ओर भूमिका मात्र होगा। मुशर्रफ का भारत आगमन नि:संदेह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वयं को स्वीकारोक्ति दिलवाने जैसा है‚ अब तक वे अलग–थलग से पड़ गए थे‚ अब वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में अपनी पहचान बनाना चाह रहे हैं। इस दिखावे का कश्मीर जैसी बुरी तरह उलझी समस्या से खास लेर्नादेना नहीं है। कश्मीर पर आकर बात वहीं अटक जाऐगी जैसा कि अब तक होता आया है।
अब जब मुशर्रफ स्वयं भारत आ रहे हैं‚ तो भारत–पाकिस्तान क्रिकेट प्रति नकारात्मक रवैय्या क्यों? यहाँ आकर भारत की उदारवादी छवि पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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