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लिखते लिखते
इस बार सृजन लिखते–लिखते तीन साल पहले लिखी अपनी ही डायरी का एक पन्ना
खुल गया। आपसे अवश्य बांटना चाहूंगी।
देर रात तक करवटें बदलती रही हूँ मैं‚ दरअसल बात ही कुछ ऐसी है। रात को
महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर आधारित एक कार्यक्रम में 6 माह से लेकर
60 वर्षीय महिलाओं पर होने वाले यौन अपराधों की फेहरिस्त देखी औए मन ही
मन कांप उठी। दो मासूम बच्चियों की स्वयं माँ जो हूँ। वितृष्णा‚ आतंक‚
विवशता‚ क्रोध का मिला–जुले भावों से मन पक रहा था।
' क्या ज़माना आ गया है' कैसे कहती? जमाना तो ऐसा ही था वर्षों से। मेरी
माँ के समय से ही तो‚ जब उनके स्कूल के रास्ते में एक वृद्ध अंग्रेज रेलवे
का अधिकारी‚ थोड़ा आगे जा कर स्कूल जाने वाली लड़कियों के झुण्ड के आगे अपनी
पैन्ट उतार दिया करता था। और मेरे पिता का एक अविवाहित मित्र………जब गोद
में उठा कर प्यार करता मुझे विचित्र लगता उसके प्यार का तरीका? कहाँ बदला
ज़माना? ऐसे यौन अपराधी आज भी ठसके से समाज में रहते हैं। वह यौन अपराधियों
में पाया जाने वाला उन्मादी जीन तब भी था और आज भी पाया जाता है बल्कि
दुगुना–तिगुना होकर। बिना किसी खास पहचान का‚ बिना किसी चेहरे आकार वाला‚
छिपा सा‚ यह जीन किसी के भी भीतर हो सकता है।
सोचा सुबह उठते ही बच्चियों को समझाऊंगी। क्या समझाती चार और छ:
साल की बच्चियों को? कि दूर रहना तथाकथित अम्कलों से‚ अनजाने चेहरों से‚
पुरूष अध्यापकों से‚ स्कूल के चपरासियों से‚ माली से‚ दूध वाले‚ अखबार
वाले से‚ अलां–फलां सभी पुरुषों से? किसी से टॉफी न लेना‚ अपनी पैन्टी न
छूने देना‚ अपने गाल–होंठ न चूमने देना।
किस–किस से दूर रहने को कहूं? सब सामान्य और काम–काज करते चेहरे हैं। पर
न जाने कब कौनसा चेहरा बदले‚ आँखें विकृत हों‚ होंठ लार से गंदला जाएं‚
हाथ कांपने लगें और नन्हे बच्चे किसी पराई क्यारी में लगी ताजा खिलती
कलियों से ज्यादा उन्हें कुछ न लगें…………………।
क्या समझाऊं? हमें तो माँ ने कभी नहीं समझाया। न उन्होंने कभी यह सोचा भी
होगा कि नन्हीं बच्चियां भी यौन लोलुपता का शिकार हो सकती हैं। वे तो बस
हमें ऋतुस्त्राव होने के बाद बस हमउम्र लड़कों से बच कर रहने की हिदायतें
देती रही। भूल गईं उन प्रौढ़ अंकलों‚ प्रोफेसरों‚ पापा के और अपने
सहकर्मियों की लोलुप दृष्टि के बारे में कभी नहीं समझाया। ज़माना था कि
अपने साथ के लड़कों से बात तक ना करो और बड़ी उम्र के अम्कलों के साथ आराम
से एडमिशन करवाने भेज दिया जाता। बस बच ही गए समझो‚ एकाध अनाधिकृत स्पर्शों‚
या गंदी निगाह के अलावा कुछ झेला नहीं……………माँ ने नहीं समझाया था तो क्या
जन्मजात स्त्री हैं‚ निगाह का सच्चा और बुरा भाव और स्पर्श का अर्थ समझ
आता था।
मेरी सहेली का अनुभव याद आ गया। एक बार हॉस्टल में ऐसी बात चली तो उसने
बताया था‚ '' हल्का सा याद है ‚ तीन–चार साल की
थी। पड़ोस का एक बड़ा लड़का जो उसे बड़े प्यार से 'डॉल' कहता‚ चूमता–दुलराता‚
एक दिन अपने घर ले गया। माँ ने भी दोपहर में दो पल लेट लेने के मोह में
उसे उसके साथ भेज दिया। दिन भर खेल कूद कर तथाकथित भैया के बिस्तर पर आंख
लग गई। कुछ ज्यादा तो नहीं हल्का सा याद है – एक अजीब गिलगिला स्पर्श और
नींद का खुलना‚ भैया का झेंपना………………फिर मेरा घर आने की जिद में रोना।'
उसने न माँ को बताया न माँ को सुनने की फुर्सत ही थी।
कुछ दिन पहले ही तो मिसिज़ अग्रवाल बता रही थीं कि वे अपनै दो साल की बेटी
को लेकर किसी परिचित से मिलने गईं। परिचिता आवभगत और वह बातों में लग गई‚
बच्ची वहां खेलने में रम गई। जब जाने का समय आया तो बच्ची आस–पास नहीं।
ढूंढा तो वह सीढ़ीयों में परिचिता के पति की गोद में चॉकलेट खा रही थी‚
परिचिता के पति का अजीब सा चेहरा देख दोनों स्त्रियों को अटपटा‚ उसने
तुरन्त बच्ची को लिया‚ चॉकलेट फेंकी और बिना किसी औपचारिक विदा के वहां
से चली आई। और बहुत दिनों तक अपनी लापरवाही पर पश्चाताप करती रही कि कहीं
कुछ हो जाता तो?
उफ! क्या–क्या याद आ रहा है‚ स्वयं अपनी
लापरवाहियां‚ ना – अब जॉब करने की ज़िद नहीं‚ नहीं करनी पी एच डी भी।
बेटियों को खुद लेने जाउंगी‚ खुद छोड़ने। जिन पार्टीज़ में बच्चे अलाउड नहीं
होंगे वहां नहीं जाना एकदम नहीं।
मुझे तो समझ आ गया अपना दायित्व। आप भी समझें।
– मनीषा
कुलश्रेष्ठ
इसी संदर्भ में :
कार्यालय में यौनशोषण
दिव्य प्रेम
यौन उत्पीड़न
यौन सम्बंध और दाम्पत्य
यौन शोषण
विवाह से पूर्व शारीरिक सम्बंध
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