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संगमन  ११ पिथौरागढ़
वर्तमान हिन्दी कहानी : शक्ति और प्रतिरोध के केन्
द्र
 


 

संगमन  एक परिचय विगत ग्यारह वर्षों से संगमन की यात्रा अपने गंभीर सरोकारों के साथ जारी है। हिन्दी कहानी के विमर्श का एक बहुत महत्वपूर्ण मंच है संगमन। आयोजन की गुणवत्ता, उत्तरोत्तर निखरता स्वरूप, कहानी पर हुई सो ेश्य बैठकें - सार्थक विमर्श और हर संगमन के बाद अगले संगमन को लेकर लेखकों की उत्सुकता ही इस बात का प्रमाण है कि संगमन साहित्य और उसके सरोकारों के लिये प्रतिबद्ध है। इस प्रतिबद्धता में औपचारिकता कम है, उदारता अधिक है। पुराने प्रतिष्ठित लेखकों को युवा लेखकों सेे रू ब रू करवाना, जहां युवाआें के लिये एक तरह से कहानी की कार्यशाला जैसा है, वहीं पुराने लेखकों को जाने अनजाने इस ज़िम्मेदारी का अहसास कराता है कि यही युवा साहित्य की विरासत और उसके मूल्यों का संवाहक है। यही संगमन की उदारवादी सोच है।
संगमन की आधारशिला सन १९९३ में कानपुर से रायबरेली की एक यात्रा के दौरान पड़ी थी। गिरिराजकिशोर, प्र्रियंवद, कमलेश भट्ट 'कमल' और अमरीक सिंह दीप इस यात्रा में एक साथ थे। उसी यात्रा में लेखकों को अपनी बात कहने के लिये एक खुला मंच प्रदान करने की बात सोची गयी और यह कार्यान्वित हुई संगमन के नाम से। आरंभ में १९९३, १९९४ के दो संगमन कानपुर में ही हुए। बाद में लेखकों को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ने के लिये इसे राष्ट्रव्यापी रूप दे दिया गया। अब तक संगमन का आयोजन कानपुर के अतिरिक्त चित्रकूट, दुधवा नेशनल पार्क, धनबाद, वृन्दावन, अहमदाबाद, देहरादून, सारनाथ में हो चुका है। इन आायेजनों के स्थानीय संयोजक क्रमश: शिवमूर्ति, देवेन्द्र, नारायण सिंह, कमलेश भट्ट, ओमा शर्मा, सुभाष कुशवाहा थे।
इस तरह संगमन का कारवां हर नये पड़ाव के साथ बढ़ता ही गया है।
इस वर्ष संगमन - ११ का आयोजन अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह के आरंभ में, मौसम की खुशगवारी के साथ, उत्तरांचल के हिमालय के सान्निध्य में बसे खूबसूरत शान्त शहर पिथौरागढ़ में सम्पन्न हुआ।
पिथौरागढ़ में देश के विभिन्न हिस्सों से तीन पीढ़ियों के कथाकार जुटे। माहौल की अनौपचारिकता और आत्मीयता के साथ तीनों सत्रों में समकालीन कहानी के शक्ति व प्रतिरोध के केन्द्र विषय पर महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श हुए, जिसके सार्थक निष्कर्ष सामने आए।
दिनांक १ अक्टूबर २००५
पहला सत्र - सुबह दस बजे से एक बजे तक
सत्र संचालन: महेश कटारे
सर्वप्रथम कमलेश भट्ट कमल ने संगमन का परिचय दिया व हर वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले कथा के इस आत्मीयता पूर्ण माहौल में होने वाले कार्यक्रम के उ
देद्श्य से वाकिफ करवाया। इसके बाद पिथौरागढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार व प्राचार्य रामसिंह जी ने पिथौरागढ़ के इतिहास, भूगोल तथा साहित्य से श्रोताओं को परिचित करवाया। उसके बाद आधार वक्तव्य में कहानीकार व समकालीन साहित्य पत्रिका के संपादक अस्र्ण प्रकाश ने कहा -
हमारे पूर्वजों ने गुलामी के प्रतिरोध में आज़ादी की लड़ाई लड़ी व जीत हासिल की। हमारे पूर्वजों का इस लड़ाई के संदर्भ में एक स्वप्न था - समानता, भेदभाव रहित, सबके समानाधिकार का स्वप्न, जिसके आधार पर इस देश का संविधान बना। बाज़ारवाद इस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी से यह स्वप्न छीन रहा है। हिन्दी कहानी को इस स्वप्न को अपहृत होने से बचाना है।
विभांशु दिव्याल ने चर्चा को आगे बढ़ाया -" कहानीकार लोगों को अन्याय के प्रतिरोध के लिये प्रेरित कर सकता है, प्रतिरोध की पृष्ठभूमि तैयार कर सकता है पर पताका लेकर नहीं चल सकता।"
कथाकार बटरोही ने कहा -साहित्य जीवन को बेहतर ढंग से समझने और बनाने की कला है।
समस्तीपुर से आए नवोदित कथाकार मोहम्मद आरिफ का मानना था कि साहित्य के सम्मुख जितने खतरे उपस्थित होंगे उतनी उसमें प्रतिरोध की क्षमता बढ़ती जायेगी।
रांची से आई युवा कथा लेखिका महुआ मांजी ने कहा कि " हमारे समय में कहानी लिखना पहले से ज़्यादा कठिन हो गया है। कहानी अपने रूप, अपने शिल्प व कथ्य में पहले से ज़्यादा संश्लिष्ट हुई है।" मंजे हुए कथाकार शिवमूर्ति ने कहा - ग्रामीण जीवन की वर्तमान विसंगतियों और समस्याआें पर बहुत कम कहानियां लिखी जा रही हैं जबकि ग्रामीण जीवन प्रेमचंद के युग से ज़्यादा दुरूह हो चुका है।" अपने समापन वक्तव्य में वरिष्ठ कथाकार कामतानाथ ने कहा - वर्तमान समय में साहित्य में स्थापित होना चुनौतीपूर्ण कार्य है।ज़्य़ादातर लेखक सुविधाजनक स्थितियां हासिल होने तक ही लेखनरत रहते हैं।" उन्होंने आगे कहा - " अक्षम लोग साहित्य में नारे उछालते हैं।"
दूसरा सत्र
दिनांक १ अक्टूबर अपरान्ह २ ३० से सांय ६ तक
सत्र संचालन ऋषिकेश सुलभ
आधार वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराजकिशोर जी ने कहा - उपेक्षा लेखक की शक्ति है। बड़ी संवेदना ही बड़ा लेखक पैदा करती है। संपादक बेइमान आदमी होता है।लेखक में आत्मनिर्णय की क्षमता होनी चाहिये। उसे संपादक के कहे अनुसार नहीं अपनी आत्मा के कहे अनुसार लिखना चाहिये।"
ग्वालियर से आये कथाकार महेश कटारे के अनुसार - कहानी लेखन में सबसे बड़ी शक्ति लेखकीय दृष्टि है। आम आदमी जिन चीज़ों को नहीं देख पाता लेखक उन्हें देखने व दिखाने की क्षमता रखता है।
भगवान दास मोरवाल ने कहा " दिल्ली में साहित्य का केन्द्र राजेन्द्र यादव व लखनऊ में अखिलेश हो गये हैं।
सिरसा से आई मनीषा कुलश्रेष्ठ ने कहा, "युवा पीढ़ी के लेखकों के समक्ष एक नैतिक दबाव अवश्य है कि समकालीन कहानी को अपना योगदान देना है तो कहानी में नये भ्रम उपजाने से बचना होगा। थोड़े हेर फेर के बाद बार बार उन्हीं कथानक केन्द्रों को छूने से बचना होगा। उथलेपन और सतहीपन से बच कर निरन्तर बदलते इस समाज - परिवेश व समय की नब्ज़ को पकड़ना होगा। बहुत हो गयी वादों - विमर्शों की दौड़...यह इस समय के सच से बहुत परे है। बचना होगा - स्थूल प्रक्षेपण, अधकचरी संवेदनशीलता, आत्ममोहग्रस्तता, दलित व स्त्री विमर्श को ट्रेण्ड मानने से।"
हंस के उपसंपादक गौरीनाथ के कथन का लब्बो लुआब यह था कि " संपादकों की आदत लेखकों ने ही पूजा अर्चना करके बिगाड़ी है।"
वरिष्ठ कथाकार से रा यात्री के मतानुसार - अपनी पूरी क्षमता से अन्याय का पतिरोध करने के बावज़ूद जब कुछ नहीं बदलता तो लेखक में हताशा आ जाती है।
अपने समापन वक्तव्य में काशीनाथ सिंह ने कहा कि साहित्य ही एक ऐसा योद्धा है जो बूमण्डलीकरण के प्रतिरोध में खड़ा है। रूस में जब हिटलर ने आक्रमण किया तो वहां के लेखकों केप प्रतिरोध के साहित्य ने लोगों में लड़ने की क्षमता जगायी थी।

तीसरा सत्र
२ अक्टूबर २००५
सत्र संचालन जयाजादवानी
पहली बार किसी महिला कथाकार ने संगमन के सत्र का संचालन करते हुए कहा - कहानी लेखन केवल व्यक्ति को ही नहीं उसके दृष्टिकोण को भी बदलती है।
अपने आधार वक्तव्य में कुल्टी से आए कर्मठ कथाकार संजीव ने कहा कि " पश्चिमी साम््राज्यवाद और पूंजीवाद हमारे देश के तथाकथित राष्ट्रवाद व कठमुल्लावाद से सांठ गांठ कर यहां के आदमी को रेस के घोड़ों, दलालों और पण्य वस्तुआें में बदले दे रहा है।"
देहरादून से आए कथाकार नरेन्द्र कुमार नथानी का कथन - आज की कहानी से कल्पनाशीलता गायब होती जा रही है और उस पर यथार्थ हावी होता जा रहा है।
कथादेश पत्रिका के सहसंपादक श्रीधरम का कहना था कि दलित कहानियों में जो गांव है वह आज से ३० साल पहले का गांव है।
पटना से आए संतोष दीक्षित ने कहा - मौजूदा कहानी का बीजतत्व पंचतंत्र की कहानियों में है। आधारसिला पत्रिका के संपादक दिवाकर भट्ट ने आशा जाहिर की कि समाज को बदलने की क्षमता सिर्फ साहित्य में ही है।
अलमोड़ा से आई लेखिका दिवा भट्ट ने कहा कि स्त्री की देह को मुक्ति नहीं वैचारिक मुक्ति चाहिये।
अपने समापन भाषण में गिरिराजकिशोर ने संगमन की निर्माण कथा का खुलासा करने के बाद कहा - बाज़ारवाद हम पर कितना ही हावी हो जाये वह हमारी संवेदना के धागे को नहीं तोड़ सकता। हर दौर में संवेदना बदलती ज़रूर है पर खत्म नहीं होती।
तीनों ही सत्रों में स्थानीय पाठकों और लेखकों ने समकालीन कहानी की उपादेयता और प्रभावक्षमता पर कई सवाल उठाये जिनका संक्षिप्त उत्तर काशीनाथ सिंह, अस्र्ण प्रकाश व जया जादवानी ने दिया।
अंत में स्थानीय आयोजकों की ओर से गोविंद काफलिया और संगमन के आयोजकों की ओर से अमरीक सिंह दीप ने संगमन ११ में आए सारे लेखकों को धन्यवाद ज्ञापित किया।

 

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