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होली

होली एकमात्र ऐसा त्यौहार है जिसे समस्त चेतना और इन्द्रियों की सम्वेदना से महसूस किया जाता है। होली आने का सन्देश लेकर आती है फाल्गुनी बयार…उस पर खुशनुमा मौसम…सर्दी बीत रही होती हैं और गरमी दस्तक दे रही होती है।
एक तो बसन्त ऋतु उस पर फाल्गुन माह के बौराये दिन…कि हर बात अनोखी लगती है… भारतीय कवि तो यहां तक कह गये हैं कि इन दिनों तो गाली भी मीठी लगती है और‚ कवि केशव ने तो अतिशयोक्ति की है कि फागुन में तो बाबा भी देवर लगते हैं।
प्रकृति का अपना अलग उमंग से भर देने वाला स्वरूप दिखाई देता है — कहीं दहकते नारंगी पलाश के पेड़‚ कहीं बौराये आमों की तुर्श महक‚ बासंती फूलों की छटायें‚ शिरीष के महकते फूलों की हवा में बहती तन मन बहकाती महक। पंछियों की प्रेम की चहचहाहट‚ गुनगुनाते भंवरे और डोलती तितलियों‚ फूलों का रस पीती मधुमक्खियों‚ फूलों से लदे वृक्षों के रंगीन दृश्य ऐसे लगते हैं मानो कामदेव अपना फूलों का इन्द्रधनुषी शरचाप लिये हर एक जीव जन्तु को निशाना बना रहे हों।
इस फाल्गुनी बयार के चलते ही मन से क्रोध और हताशा स्वत: ही मिट जाती है। यह सम्पूर्ण मौसम ही सद्भावना से भरा त्यौहार बन जाता है मानो। यही तो है भारतीय लोकजीवन का अनोखा रंग भरा उत्सव जिसमें सारे दु:ख‚ आशंकाओं को मिट जाते हैं‚ उमंग भरी नई उम्मीदों का ठीक वैसे ही संचार होता है जैसे पतझड़ जाने के बाद बसन्त आने पर नई कोंपलों का उगना।
उत्तर भारत में होली का विशिष्ट महत्व रहा है। विशेषतया ब्रज की होली बहुत ही प्रसिद्ध है‚ जहां फाल्गुन मास के आरम्भ के साथ ही गलियों में फाग और रसिया की मधुर लय सुनाई देने पड़ती है‚ मन्दिरों में श्री कृष्ण और राधा की मूर्तियों को रंगमय परिधानों में सजाया जाता है‚ मन्दिरों के द्वार और गर्भगृहों में गुलाल के रंगों की सजावट देखते बनती है।
आज के आधुनिक समय में होली ने अपना महत्व तो नहीं खोया किन्तु इसका स्वरूप कहीं न कहीं क्षरित हुआ है या बिगड़ा अवश्य है। समय का अभाव और आधुनिकता की दौड़ में इस त्यौहार के मूल उद्देश्य कहीं पीछे छूट गये हैं‚ और रह गया है रासायनिक रंगों का मनचाहे उपयोग और रेडीमेड मिठाइयों के सामने …टेसू के फूलों के बने प्राकृतिक रंग…और गुझिया का स्वाद लोग भूलने लगे हैं। होली पर अपने दिलों से वैमनस्य दूर करने की जगह लोग इसे बदला लेने का माध्यम बनाने लगे हैं। किन्तु होली हमारे लोकजीवन के मूल में है‚ हमारी संस्कृति‚ भारतीयता का अभिन्न हिस्सा है। इसका महत्व कम नहीं हो सकता।
कितने ही बड़े बड़े हादसे आये और आकर चले गये लेकिन कभी होली की उमंगें फीकी नहीं हुईं। यह वर्ष भी बहुत सारा विषाद लेकर आया किन्तु इस वर्ष भी होली की उमंगें फीकी न होंगी — सारे दु:खों‚ वैमनस्य से उबर कर हम सद्भावना भरी होली तो मनायेंगे ही। जला देंगे सारे अहम्‚ वैमनस्य‚ मतभेद‚ क्रोध होलिका दहन के साथ ही और नई शुरुआत करेंगे इस होली पर मानवीयता‚ सद्भावना और प्रेम के गाढ़े रंगों के साथ।

होली की शुभकामनाएं!

– राजेन्द्र कृष्ण

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