|
कथा कहन स्पीकर –
2
कथक कथा और कथ्य
यों
तो माना जाता है कि कथक नृत्य कथा से पैदा हुआ, स्वयं नाम
में ही ‘ कथ ‘ जुड़ा है, पर अगर ध्यान से देखें तो हर नृत्य विधा या कहूँ
कि हर कला-विधा के मूल में ‘कहानी’ जुड़ी है। हम सबके पास कोई न कोई कहानी
है जो अभिव्यक्त होना चाहती है और इसलिए ही हम किसी न किसी ‘कला’ का दामन
थाम लेते हैं।
कथक का सीधा जुड़ाव हमारी पौराणिक कथाओं से भी है, फिर चाहे वो कृष्ण चरित
हो या राम चरित्र। रास लीला से तो ऐसा जुड़ाव है कि अष्टछाप कवियों के
साहित्य सृजन में कथक के बोल दिखाई देते हैं।इन सबके अतिरिक्त कथक नृत्य,
बोलों की, लय और ताल की कहानी भी कहता है। नृत्य रत शरीर की भी तो अपनी
कहानी होती है।
कथक का फलक एक विस्तार लिए हुए है जिसमें लय के दर्जे और विभिन्न बोलों का
जमावड़ा है। कथक के अपने बोलों की कोई विशिष्ट छवि या अर्थ नहीं है,
निरर्थक बोलों में अर्थ और छवि की रचना नृत्यकार स्वयं करता है। जिस तरह
शब्दों के अर्थ निकलते हैं उसी तरह बोलों को हस्तक और मुद्राएँ अर्थ देती
हैं, उनमें विशेष अर्थ भरा जा सकता है।हस्तक और मुद्राएँ विभिन्न भंगिमाओं
से नए नए अर्थ खोजते हुए जब ‘भाव अंग’ में प्रस्तुत होती हैं वहीं से कहानी
की रचना आरम्भ होती है। यही कारण है कि कई बार एक ही बोल को हम अलग अलग
अर्थों में देख पाते हैं। इन निरर्थक बोलों का एक अपार संसार है कथक में,
जो संवाद करने के लिए उपयुक्त है और जिसे कथक का ’नृत्त' संसार कहा जा सकता
है।
इसी नृत्त पक्ष या व्याकरण का हिस्सा है ‘ कवित्त ‘, जहाँ छंदबद्ध कविता है
नृत्त बोलों के साथ गुँथी हुई और पूरी तरह से किसी कथा या चरित्र की बात
करती है - कभी कृष्ण कथा का कोई प्रसंग, यथा माखन चोरी, गोवर्धन लीला,
पूतना वध, या गोपियों से छेड़ - छाड, और कभी शिव तांडव या पार्वती लास्य और
फिर कभी कभी प्रकृति का छायांकन भी।
ये सारी कथाएँ संक्षिप्त रूप में कवित्त में कही जाती हैं। दूसरी और एक
पक्ष है ‘गत-भाव जहाँ कहानी तो है पर शब्द नहीं, अर्थात बिना शब्दों के
केवल अंग भंगिमाओं, मुद्राओं और चेहरे के हाव-भाव से कहानी की रचना होती
है।
‘नृत्त’ के बाद अब यदि ‘नृत्य ‘ की बात करें [ हर शास्त्रीय नृत्य दो
हिस्सों में बँटा होता है, ‘नृत्त और नृत्य’ नृत्त व्याकरण की बात करता है
और नृत्य में अभिनय- भाव शामिल होता है ] तो कथक का अभिनय पक्ष हर स्तर पर
कहानी बुनता है, कभी रस-भाव की अपनी कहानी, तो कभी ध्रुपद, ठुमरी, ग़ज़ल,
और भजन में कही हुई किसी क्षण मात्र की बात। कभी कभी केवल अवस्था वर्णन भी
होता है। नृत्यकार जब बैठकर भाव करते हैं तो हर शब्द के अनेकानेक अर्थ
दिखाते हुए कहानी में कहानी की रचना भी सम्भव होती है, इसे ‘ बैठकी भाव ‘
कहा जाता है।
उक्त सभी पक्ष कथक नृत्य के पारम्परिक कलेवर का हिस्सा हैं। इतिहास के
साथ-साथ कथक नृत्य की सम्पदा और स्वरूप में भी बदलाव आया। आज समसामयिक
चिन्ताएँ, वातावरण और आधुनिक कविता भी कथक का कथ्य बनी हैं। आधुनिक चित्र
हों या पश्चिमी नृत्य सभी के साथ कथक नृत्य का संवाद स्थापित हुआ है और हर
बार कलाकारों ने नई नई अभिव्यक्तियाँ दी हैं। बहुत सारे नाट्य और कहानियाँ
हैं जो कथक के माध्यम से प्रस्तुत हुए हैं फिर चाहे संस्कृत भाषा में
‘कालिदास’ हों या बंगला में रवींद्र नाथ टेगोर । विदेशी कथा कहानियाँ भी
कथक का हिस्सा बनी हैं। विभिन्न ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्र चित्रण भी हुआ
है और एक विस्तृत सम्पदा बनी है कथक की। बुद्ध से लेकर गांधी तक और कृष्ण,
राम से लेकर अन्यान्य देवी देवताओं और अप्सराओं तक।
इस सारे कहन ये ज़ाहिर होता है कि कथक के माध्यम से अभिव्यक्ति कितने
स्तरों पर सम्भव है।अगर मैं अपनी बात करूँ तो मुझे अपनी हर अभिव्यक्ति के
लिए कथक में से होकर राह मिल जाती है, फिर चाहे ‘कबीर’ का दर्शन हो या ‘जल’
जैसा अमूर्त विषय। कहानी तो कथक की भाषा में ही कहती हूँ मैं और वो अब तक
सम्भव हो पाई है। शायद इसलिए ही मेरा यह द्रढ विश्वास बना है कि यदि आप
किसी एक भाषा पर पकड़ हासिल करें तो अभिव्यक्तियाँ स्वतः प्रवाहित होने
लगती हैं, उन्हें अलग माध्यमों या सहारे की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही यह
भी तय है कि विचार जितना पुख़्ता होता है कहन उतना आसान और विश्वस्त होता
जाता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि हर विचार कथ्य हो पाए ये ज़रूरी नहीं।
विचार को साकार कर एक खूबसूरत कहानी में बदल कर नृत्य रूप में परिवर्तित कर
देना कथक के कथ्य को चमत्कारिक बनाता है।
- प्रेरणा श्रीमाली
Top
|
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|