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खुद को
तलाशती लड़की
धीरे-धीरे पूरब से आती हुई हवा चारों दिशाओं
में फैल गई । अबंर में संध्या की - सी बदली छाई है । दुपहर जल से गरुई होकर
ढल आई है । आलोक धीमा पड़ गया है । चिड़ियां लौटने को आतुर है अपने नीड़
में । यह मौसम कुछ तोड़ता है मुझमें । सड़क पर टहलते हुए मैं जानती हूं कि
यह बसंत है। उतरते बसंत की शाम जो अक्सर मुझे उदास कर जाती है । इस बसंत
में शाम के झुटपुटे में सूखी पत्तियों का शोर सहसा मुझे डरा देता है। मानो
मुझसे कह रहा हो संभल कर धरना अपने कदम। तुम्हारे पैरों तले रौंदे जाएंगे
हम। मैं अपने कदम पीछे की ओर मोड़ लेती हूं ।
सड़क के किनारे चाय की थड़ी वाला कालू । उसको देख कर मैं खुश हो जाती हूं
कि आज थड़ी पर भीड़ अच्छी है । उसकी चाय पिये बिना लोग घर नहीं जाते। उसकी
चाय अपने आप लोगों की रगों में बहने लगी है। चलते हुए दूर मकानों की कतार
जुगनुओं की मानिंद टिमटिमाने लगती हैं । मैं उन जुगनुओं को घरों से आजाद कर
आसमान में बिखेरना चाहती हूं । सड़क की दूसरी छोर पर एक लड़का- लड़की हाथों
में हाथ लिए चल रहे हैं । उनकी चाल भी धीमी पड़ रही है। शायद एक दूसरे से
अलग नहीं होना चाहते वे । सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही बढ़ गई है। सभी
दफ़्तर से निकल अपनी पसंद की दिशाओं में जाने की तैयारी में है । कुछ बूढ़े
जोड़े भी चहलकदमी कर रहे हैं । स्वास्थ्य को लेकर उनकी चिंता साफ़ उनके
माथे पर झलक रही हैं।
शाम को टहलते वक्त चौराहे पर जहां से चार रास्ते चार दिशाओं में बंट जाते
हैं । उस चौराहे पर मटकी की टूटी ठिकरी में लाल कपड़ा, मौली, मिठाई का
टुकड़ा और कभी - कभी जलता दीया भी । मां ने कहा था कि स्नेहा ऐसा कुछ दिखे
तो दो बार मुंह से थू-थू कर देना । ऎसा करने पर किये गए टोटके का असर नहीं
होता। मैं सड़क के किनारे- किनारे घर की ओर लौटती हो। रामदेव मंदिर में
संध्या आरती और घंटियों की आवाज़ गूंज रही है । आरती के स्वर के साथ दीपक
की रोशनी भी जगमगा रही है । मैं हाथ जोड़कर आगे बढ़ जाती हूं। ग्राउंड के
ऊपर उठे हिस्से में कुछ नौजवान अपने हाथों को ऊपर और पैरों को चौड़े करते,
झुकते कसरत कर रहे हैं। शायद फ़ौज की भर्ती खुलने वाली है। चौड़ी सड़क को
पीछे छोड़ पतली गली से होते हुए केन्द्रीय विद्यालय के सामने राह निहारते
लैंप पोस्ट को तकती हूं। अभी रोशन हो उठेंगे। पेड़ों की लंबी कतारें हैं और
उनकी विपरीत दिशा में कुछ बेंचें लगी हुई है । लोग घूमने के बाद उन पर बैठ
जाते हैं। कभी-कभी उन बेंचों के पीछे गुदे हुए नामों पर मेरा ध्यान ठिठक
जाता है। दान करके भी लोग अपने नाम की मोहर लगा देते हैं ।
‘आज फिर एक दिन गुजर गया। एक रात भी। कोई भी लम्हा ऐसा नहीं जिसमें
तुम्हारी कमी महसूस न हो। काश ! मेरे दिल की बातें तुम तक पहुंच सकतीं।
तुम्हारी स्नेहा’
स्नेहा पत्र लिखकर उठ रही थी कि तेज़ हवा के झोंके ने पूरे कमरे में कागजों
को फैला दिया। बिन मौसम की बरसात और तेज़ हवा ने स्नेहा को रोमांचित कर
दिया। पर्दे उड़कर कोई संदेश सुना रहे हैं । विंडचाइम की मधुर ध्वनि उसे
किसी की याद में भिगो रही है। स्नेहा खुशी के अतिरेक में अपने कमरे से
निकलकर छत पर आ गई । यह बारिश , बूंदें उसे अपनी सी लगती है। उसने अपने
दोनों हाथों को खोल कर चेहरा आसमान की ओर कर आंखें मूंद ली । गोल घूमते हुए
कभी अपनी हथेलियों पर पड़ने वाली बूंदों से चेहरा ढक लेती , कभी दोनों हाथ
खोलकर ऊपर की ओर उठा देती ।
सार्थक....ऽऽ तुम !अभी-अभी मैं तुम्हारे ही बारे में सोच रही थी। छाता लेकर
क्यों आये ? उसने सार्थक से छाता छीन कर हवा में उड़ा दिया । देखो सार्थक
कितनी ठंडी बूंदें हैं , पर एकदम से उसके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई ।
तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए। अगर किसी ने देख लिया तो बहुत मुसीबत हो
जाएगी। सार्थक मेरा हाथ छोड़ो ।
“स्नेहा ......क्या बदतमीजी है ? फौरन नीचे जाओ । तुम्हें ऊपर किसने आने
दिया। “ भाई ने डांटते हुए कहा।
“स्नेहा नाश्ता कर ले । “
“मुझे भूख नहीं है। “
“किस बात की नाराज़गी है । स्नेहा गलती तुम्हारी है, इसीलिए तुम्हें भाई ने
डांटा। “
“मां मेरी कोई गलती नहीं है। आपके बेटे को तो मौका चाहिए होता है ,मुझ पर
रौब जमाने का। बात- बात पर डांटता रहता है । “
“कैसी बात कर रही है स्नेहा । वह तुम्हारा भाई है ,दुश्मन नहीं । “
“आप रहने दें मां । मेरी कॉलेज फ्रेंड्स बताती है, अपने भाइयों के बारे में
। उनके भाई उनका कितना ख्याल रखते हैं। उनमें बहुत अच्छी दोस्ती है। और एक
मैं हूं कुछ किये बिना ही मुजरिम बन बैठी हूं । स्नेहा अब समझ आया, तेरी
ज़बान क्यों चल रही है । यह कॉलेज की सहेलियों की बातें मुझे मत सुनाना । न
जाने कौन से घरों से आती हैं और उनका क्या ........। “
स्नेहा का मन आगे बहस करने का नहीं हुआ ...वह गुस्से को चबा कर वहाँ से उठ
कर आ गयी। अपना मूड क्यों खराब करूं?
पार्क में मिलने का प्लान है आज सार्थक से । कॉलेज छूटने के बाद I कार
पार्क कर स्नेहा ने बैग निकाला और ज़ोर से दरवाज़ा बंद कर दिया। फिर देखा
कार की खिड़कियों के शीशे खुले रह गए। उसने पलट कर कार की चाबी लगा दरवाज़ा
खोला और खिड़कियों के शीशे बंद किए । उसे सार्थक से मिलने में यह देरी बहुत
दुखदाई लगी । वह जल्दी से उससे मिलकर अपना मन हल्का करना चाहती थी। अपने
बालों में पतली - पतली उंगलियां घुमाते हुए इधर-उधर उड़ती नजरों से सार्थक
को खोजने लगी। पर वह उसको ढूंढ नहीं पाई । समझ गई कि आज भी सार्थक नहीं
आया। समय उसका दुश्मन है । कभी उसकी पाबंदी को स्वीकार नहीं किया । झल्लाकर
पार्क की बेंच पर अपना पर्स पटककर बैठ गई । अपने बैग से फ़ोन निकालकर
सार्थक का नंबर डायल किया। हमेशा की तरह उसका नंबर आउट ऑफ रेंज आ रहा था।
स्नेहा ने गुस्से से फ़ोन बंद कर बैग में रख दिया। बेंच से सिर टिका कर
उसने आंखें मूंद ली।
गुलाब के फूल । कई रंगों के । स्नेहा ने फूलों को हाथों में थमाते हुए
सार्थक से शिकायती लहजे में , कितनी बार कहा है , तुम मुझे सिर्फ़ लाल
गुलाब दिया करो । पीले, सफ़ेद, गुलाब देने का अर्थ समझते हो तुम । मुझे
तुम्हारा प्रेम चाहिए। केवल और केवल लाल गुलाब। समझे । तुम्हें फ़ोन कर रही
थी और तुम कहां थे ? सार्थक स्नेहा का चेहरा देख कर मुस्कुराने लगा । जब
देखो तुम्हारी बत्तीसी चमकती रहती है। कुछ पूछो ,कुछ कहो बस हंसकर टाल देते
हो । आज तुम्हें मेरे सभी सवालों के ज़वाब देने होंगे । मां और भाई के
तानों से परेशान हूं । घर में घुसते ही न जाने क्यों अपनी पुराण गाथा
बांचने लगते हैं। मैं यह चाहती हूं कि तुम रिश्ते के लिए घर पर मां और भाई
से बात करो। मुझे देख कर पढ़ने वाली कविताएं और शायरियां ज़रा उनको भी तो
सुनाओ। मैं थक गई हूं । उस घर में मेरा दम घुटता है । सार्थक के होंठ
स्नेहा को छू गए । क्या सार्थक मैं कितनी परेशान हूं और तुम ......। स्नेहा
सार्थक के गले लग कर रोने लगी ।
मैडम...ऽ ऽऽ। कहीं दूर से आती आवाज़ ने उसे चौंका दिया । पार्क का चौकीदार
था। अंधेरा हो गया है मैडम । पार्क बंद करने का टेम......I स्नेहा ने अपना
बैग संभालते हुए उसी से पूछ लिया, सार्थक कहां है ?
“कौन...अपन को क्या पता...” असमंजस में चौकीदार कुछ बड़बड़ाते हुआ चला गया।
“कुछ नहीं ....” स्नेहा हड़बड़ाती हुई उठी और पार्क से निकल गई । कार में
बैठते ही उसने बैग से फ़ोन निकाला । देखा तो मां और भाई के दस मिस्ड कॉल थे
। वह घबरा गई। उसके मस्तिष्क में तेज़ आवाज़ कौंध गई। जैसे सभी नसें एक साथ
फड़कने लगीं। उसका सिर भारी हो गया । संभल कर ड्राइव करते हुए घर पहुंची।
उसने आहिस्ता से दरवाज़ा खोला । की-बोर्ड में चाबी लटकाने की आवाज़ सुन मां
अपने कमरे से बाहर निकल आई । स्नेहा मां का सामना नहीं करना चाहती थी।
इसलिए वह बिना बोले अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गई। मां के शब्द उसकी पीठ से
टकराकर घर की चारदीवारी में गूंज रहे थे । उसने अपनी हथेलियों को कनपटी पर
रखते हुए कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। बाहर मां की आवाज़ अब
धीरे-धीरे दूर होने लगी थी ।
उसने कमरे की खिड़की के दोनों पल्लों को पकड़कर बाहर की ओर धकेल दिया ।
बगीचे में रातरानी की बेल पर खिले सफ़ेद फूल खुशबू के साथ उस पर टिमटिमा
रहे है । बोगनवेलिया की डालियां हवा के साथ झूल रही है । लाल गुलाब के पास
स्नेहा को एक छाया सी दिखी। उसने अपनी आवाज़ को धीमा करते हुए, सार्थक तुम
यहां क्या कर रहे हो ? अभी भाई ने देख लिया तो....... वह छाया लाल गुलाब
हाथ में ले उसकी ओर बढ़ रही है। उसने भाई के डर से खिड़की बंद कर चिटकनी
लगा दी । सार्थक मुझे माफ कर देना। वह उछलकर पलंग पर दोनों हाथ और पैरों को
लगभग सिकोड़ते हुए कंबल से अपने को ढक लिया। यह सार्थक भी कितना अहमक़ है ।
वहां पार्क में मुझे अकेला छोड़ जाने कहां चला गया। अब घर के बगीचे में आ
गया है। कैसे समझाऊं इस शख्स को। रात गहराती हुई उसकी आंखों में समा गई ।
कॉलेज के रास्ते में स्नेहा को सार्थक पैदल जाते दिख गया । ब्रेक लगाते हुए
उसने कार को साइड में रोक दिया । सार्थक कार का दरवाज़ा खोल कर फ्रंट सीट
पर बैठ गया। स्नेहा का हाथ गियर पर था । सार्थक ने अपना हाथ स्नेहा के हाथ
पर रख दिया । सार्थक अपना हाथ हटाओ, कार का बैलेंस गड़बड़ा जाएगा । देखो
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है तुम पर । कल पार्क में अचानक गायब हो गए । रात
को घर के बगीचे में घुस आए । क्या तुम कमरे में........? पागल हो । अगर मां
और भाई को तनिक भान हो जाता तो हम दोनों जीवित न बचते । अगली बार से इतना
बड़ा रिस्क मत लेना। मैं तुम्हें किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती । स्नेहा ने
सार्थक का हाथ चूम लिया।
हल्की- हल्की बारिश की बूंदें पड़ने लगी हैं । आज कॉलेज बंक कर लेते हैं ।
चाय की थड़ी पर बैठ बातें करेंगे । स्नेहा ने कार चाय की घुमटी के पास ले
जाकर रोक दी । कालू भैया दो कड़क चाय.. .. ।
"अरे! मैडम दो क्यों ?"
उसने कुछ शंका भरी नज़रों से देखा और चाय बनाने में व्यस्त हो गया । आ..छी
..ऽऽऽ। धीरे से उसे कंधे पर जाने पहचाने स्पर्श ने जैकेट डाल दिया । स्नेहा
मुस्कुराई । तुम कितना ध्यान रखते हो मेरा। स्नेहा ने अपना सिर सार्थक के
कंधों पर टिका दिया। बारिश धीमी हो गई थी । आस - पास लोगों की आवाजाही
बढ़ने लगी थी । स्नेहा ने कहा , अब यहां से चलना चाहिए। किसी ने देख लिया
तो घर पर हाज़िरी लग जाएगी । चलो सार्थक तुम्हें घर छोड़ देती हूं।
याद है सार्थक जब कॉलेज टूर के लिए शहर से बाहर गए थे । तुमने मुझे रिजोर्ट
में रुकने के लिए कहा था। हम दोनों ने मिलकर तदबीर सोची कि हम ट्रेकिंग के
लिए नहीं जाएंगे। उस बात पर आज भी मुझे हंसी आती है। तुम रिजोर्ट की
पैंट्री से दो प्याज चुरा लाए थे । तुमने उसे अपनी बांह के नीचे दबाने के
लिए कहा था। यह भी कहा था कि मेरा आजमाया नुस्खा है । ऐसा करने पर तुमको
बुखार आ जाएगा और तुम्हें साथ चलने के लिए कोई नहीं कहेगा । सच ऐसा ही हुआ
। हम दोनों को हल्का बुखार चढ़ आया था । अपना ध्यान रखना कहकर सभी ट्रेकिंग
के लिए चले गए थे। तुम खिड़की के पास खड़े बस रवाना होने की प्रतीक्षा कर
रहे थे । वे सभी दो दिन के लिए जा रहे थे । इसलिए मुझसे ज़्यादा खुश तुम
थे।
चाँदनी बिखेरती रात जगमगा रही थी I आसमान के तले तरिणी छपक – छपक कर चल रही
थी Iचप्पू कभी मेरे हाथ कभी तुम्हारे पास I हमारे साथ का गवाह चाँद था उस
रात I झील का पानी शांत था I उस तन्हाई में हम चुप थे पर हमारी धड़कने अपने
शब्द बुन रही थी I मंद – मंद पवन पानी के साथ मिलकर अठखेलियाँ कर रही थीं I
एक अजब रंग बिखेरती रात थी I हमें संग लिए चली जा रही थी I
वह रात बहुत ख़ास थी हम दोनों के लिए I वह रात बड़ी मादक थी । रेड वाइन और
सिगरेट के छल्लों के बीच रात लंबी थी, रात उजली थी, रात बहकाने वाली थी ।
उस रात में हमारी सांसों की महक थी । उस रात का उजाला भीतर उतर आया था
मुझमें। तुम्हारे शरीर की आंच थी, तुम्हारे शरीर का ताप, तुम्हारे शरीर का
माधुर्य था । कमरे में गुलाब के लाल बूटे खिल आए थे । साथ ही मेरे कपोल
सुर्ख हो गए थे । हमारे कौमार्य ने पहली बार अपनी सीमाएं लांघी थी ।
तुम्हारे वक्ष से लगकर कितनी देर तक मैं बुदबुदाती रही । तुमने मेरे होठों
पर रात के चमकते सितारे जड़ दिए थे। उन लाल गुलाबों का रंग शायद मुझ पर भी
चढ़ आया था । आज भी वह रात मुझमें ठहरी हुई है । शफ़्फ़ाफ़ प्रेम की रात ।
“ओह! बात करते-करते तुम्हारा घर आ गया । आज फिर देर हो गई । तुम क्यों नहीं
आते घर। कितनी मिन्नतें कर चुकी हूं मैं तुमसे। मुझे अपने साथ ले चलो कहीं
दूर। तुम्हारे लिए मेरी सारी बातें अप्रयोज्य हैं । तुम मेरी परवाह नहीं
करते न! “ गुस्से से उसने कार की रेस बढ़ा दी और उसका संतुलन बिगड़ गया।
सुबह उसकी आंख अस्पताल के बिस्तर पर खुली । हाथ की नस से जुड़ी बटरफ्लाई से
उसके भीतर खून चढ़ाया जा रहा था । उसकी अधखुली आंखों के सामने उल्टी लटकी
बोतल जिसमें एक इंजेक्शन लगा था । खून की बूंदें टप - टप गिर रही थी ।
बूंदों की आवाज़ उसके कानों में गूंज उठी । डूबती नब्जों के साथ उसकी आंखें
बंद हो गई । एनेस्थीसिया का गहरा असर था । उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा
गया। नीम बेहोशी से उसकी नींद टूटी तो वह सार्थक को खोजने लगी । कुछ पहचानी
आवाज़ें उसके कानों में पड़ी। ... कोई अच्छा सा घर वर देख ले। विदा कर । अब
यह लड़की मुझसे नहीं संभलती। ज़हनी तौर पर भी इसे समझ नहीं पाती । इसका
इलाज चल रहा है । दवाइयां तो कभी लेती ही नहीं है। अब ये नयी मुसीबत ।
गाड़ी ऐसी चलाएगी तो शारीरिक अपंगता हो जाएगी। फिर कौन ब्याह करेगा इससे ।
कहना बिल्कुल नहीं मानती यह लड़की। मन होता है निकल पड़ती है घर से कब
लौटती हैं कोई ख़बर नहीं । ठीक है मां । अभी एक बार अस्पताल से घर शिफ्ट
होने दो। फिर इस पर विचार करेंगे । भाई ने मां को समझाते हुए कहा ।
मां और भाई की बातें सुन स्नेहा अपने पापा के साथ बिताए गुज़िश्ता दिनों
में कुछ ढूंढने लगी । उसकी दोनों आंखों के पोरों से आंसू लुढ़क कर तकिया
गीला कर रहे थे। छोटी सी स्नेहा हरे मिडी टॉप में नाक पर रुमाल लगाकर अपने
तीन दिन पहले जन्मे भाई को देखने अस्पताल आई है । पापा ने गोद में उठाकर
उसे स्नेहा के गले लगा दिया । मेरा परिवार पूरा हो गया , यह कहकर खुशी से
झूम उठे थे पापा। मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर पापा ने भाई को मां के पास
लिटा दिया । मुझे अपने कंधे पर बिठाकर पहली मंजिल की सीढ़ियों से नीचे उतर
आए और साइकिल के आगे लगी टोकरी में बिठा दिया। जो मेरी सबसे पसंदीदा जगह
थी। मेरी उम्र उस समय तकरीबन पांच वर्ष रही होगी । पापा उस साइकिल पर
बैठकर, टोकरी भर कर पत्र पहुंचाया करते थे । जब मां अस्पताल थीं तो दो-चार
बार पापा मुझे डाकघर ले गए थे । पापा चिट्ठियां बांटने मुझे लेकर नहीं
जाते। कहते थे , फूल सा मेरा बेटा धूप में कुम्हला जाएगा ।
अस्पताल से लौटने पर मां भाई के साथ अधिक व्यस्त रहती। मेरी तरफ़ उन्होंने
ध्यान देना बंद कर दिया। एक पापा ही थे जो कभी भी मेरे लिए नारंगी गोलियां
लाना नहीं भूले। घर में घुसते ही पहला शब्द स्नेहा होता। उन्होंने कभी भाई
को गोद में नहीं उठाया क्योंकि मां पापा से उसे दूर रखती । पापा भाई को
लाड़ करने के लिए हाथ बढ़ाते , मां भाई को दूध पिलाने लग जाती । इसको भूख
लग रही है , अभी रुको । कभी कहती सो रहा है, कभी खेल रहा है । इसको हाथ मत
लगाओ । वे खुद एक राजनीतिक पार्टी में कार्यकर्ता थी । उनके पास वक्त ही
नहीं था पापा के एकांत पलों का और उनकी ख्वाहिशों का । न मेरी चिंता।
हर वक्त मैं पापा के कंधों पर झूलती रहती। मां के मुंह से तो मेरी तारीफ़
के दो बोल सुनने के लिए तरस जाती लेकिन पापा मेरी वजह से पूरे डाक विभाग
में लड्डू बांट आते। इस पर भी मां मुंह फुला लेती। लड़की है इतना सर न
चढ़ाओ । भाई के जन्म से पहले तो कभी प्यार की थपकी देकर सुला देती थी ।
लेकिन भाई के बाद उनकी दुनिया उस तक सिमट गई थी। पापा का भी ध्यान नहीं
रखती । हर समय पैसों की तंगी को लेकर घर में क्लेश होता रहता । जैसे-जैसे
भाई बड़ा होने लगा वह पापा और मेरे प्रति उदासीन हो गई । भाई मां की
अपेक्षाओं से दुगना परिश्रम करता तो मां की छाती घमंड से फूल जाती । पापा
को ताने मारने से नहीं चूकती और मैं सहम कर पापा के पीछे छिप जाती। पापा इस
किच- किच से बचने के लिए साइकिल की सवारी करवा लाते मुझे । हम पार्क में
बैठ रात होने का इन्तज़ार करते। ताकि मां और भाई सो जायें और हम चुपचाप
अपनी पसंद का खाना बनाकर दावत उड़ायें । कभी उन्होंने मुझे अपने दुख में
शरीक नहीं किया । एक दिन ऐसे सोये कि फिर उठे ही नहीं । मैं इतना ही सुन
पाई थी कि “मैसिव हार्ट अटैक” आया था । पापा के जाने के बाद मैं बहुत अकेली
हो गई । घंटों खिड़की के पास बैठी पापा का इंतज़ार करती कि कहीं से आ
जाएंगे और कहेंगे - स्नेहा देख मैं तेरे लिए क्या लाया हूं ।
इस दुख के कारण स्कूल में भी किसी के साथ दोस्ती नहीं कर पाई । भाई पढ़ने
में होशियार था और मां के प्रभाव में भी । जीवन में बहुत कुछ पाना चाहता
था। इसलिए वह राजनीतिक दल से जुड़ गया और जल्दी ही युवा नेता चुना गया।
इसके लिए मां ने पैसा पानी की तरह बहाया था I घर में किसी चीज़ की कमी नहीं
रही जो पापा के वक़्त थी । सब कुछ है यहां । नहीं हैं तो क़ासिद , उनका
प्यार और स्नेह से पूरित उनकी चिट्ठियां ।
कॉलेज में दाखिल होने पर भी मैं अकेली ही रहती। समय गुजरने के साथ सार्थक
से दोस्ती हो गई । उसे पापा जैसा पाया । उसे पहली नज़र में ही मैंने पहचान
लिया था। पर संकोची स्वभाव के कारण मैं उसे अपने मन की बात कह नहीं पाई ।
सार्थक ने आगे से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। सार्थक मेरे जीवन के शऊर को
लौटा लाया । उसके साथ ने मुझे फिर से हंसना ,बोलना सिखा दिया। पर मां और
भाई से देखा नहीं गया । सार्थक को भाई ने अपने दोस्तों से पिटवाया। मेरे
साथ ताल्लुक की बात को गलत तरीके से कहकर कॉलेज से निकलवा दिया। एक बार फिर
मैं अकेली हो गई । सार्थक ही था जिसने हिम्मत कर मुझसे मिलने का जुगाड़
लगाया । शहर से दूर उसने घर किराये ले लिया । जिसका रास्ता मेरे घर से
थोड़ा दूर था। हम अक्सर उसके घर पर मिल लेते । पर अचानक वह भी बियाबान में
खो गया । अब तो बस जब मन आता है तो सामने खड़ा मिलता है। कितनी ही आवाज़ें
दूं सुनता ही नहीं है। अपने तिलिस्म से छलावा करता है । दुष्ट कहीं का....!
दवाइयों का रंग देखकर स्नेहा के मुंह का स्वाद कसैला हो जाता । इसलिए वह
उन्हें फेंक देती। डस्टबिन में दवाइयों को देखकर , मां स्नेहा के खाने में
दवा पीस कर डाल देती । उसने मां से कई बार पूछा कि खाने में दवाइयों सी
बास क्यों आती है ? मां से उत्तर न पाकर वह झुंझला जाती । बेबस थी वह ।
उसकी बात को कोई समझने वाला ही नहीं है यहां ।
“मेरी सहेली का बेटा यहां रहने के लिए आ रहा है। अगर तुझे पसंद कर लिया तो
शादी की बात करेंगे। “ मां की अस्पष्ट बातों से वह असमंजस में पड़ गई। शाम
को रसोई घर से उठती गरम कचौड़ी की खुशबू , बाहर गेट से लेकर कमरे तक गेंदें
, मोगरे और जूही के फूलों की महक । घर आज कुछ अलग दिख रहा था। गमलों को
रंगा गया। खुरपी करके जंगली घास और सूखे पत्तों को निकाला गया। घास की लान
को काट छांट कर समतल किया गया । ड्राइंग रूम का फर्नीचर पॉलिश होकर आया था
। बाईजी दौड़ - दौड़ कर काम कर रही थीं जैसे उसी की बेटी को देखने आ रहा है
। स्नेहा छत पर खड़ी चुपचाप टकटकी लगाए इन दृश्यों को अपनी आंखों की पुतली
में कैद कर रही थी। गर्मियों के उतरते दिन थे । अंधेरा खासा जल्दी अपनी
चादर ओढ़ कर सो जाता था । स्नेहा का मन न उदास था न खुश। वह तो सार्थक तक
संदेश पहुंचाना चाहती थी कि कैसे भी वह आ जाए और उसके साथ भाग जाए।
फलक पर निशापति का फूल खिल रहा है । तारे भी तारापति को उसके महबूब के साथ
छोड़ कहीं छुप गए । शशि गुलाबी लहरों में लिपटता कभी ओझल होता कभी शरमाता
नज़र आता । व्योम बिल्कुल साफ़ था और उसने लुका छुपी का खेल खेला उसके साथ।
यही वो समय का टुकड़ा है, जो बहुत ही ख़ास है । अंबर दर्पण की मानिंद
पारदर्शी हो गया । पूर्णिमा के चंद्रमा का फूल तोड़ने के लिए लालायित हैं
सभी। अपने प्रेम के लिए। मैं भी देख रही हूं इस चाँद को जिसे वो भी देख रहा
होगा । हमारा मिलन यूँ रोज गगनमंडल पर खिलता है । जुगनू की टिमटिमाती रोशनी
में फूल को कैद कर लिया है मैंने । वह कहां किसी के हाथ आने वाला था। वह तो
खुद अपने आप में ख़ास। सबको भ्रम में डाले हुए किसी अपने के लिए अपने में
मस्त सबका होते हुए भी कहां है किसी का ये चाँद...... सार्थक कहां हो तुम ?
“स्नेहा अभी तक यहीं खड़ी है । सरल आता ही होगा । जा जल्दी तैयार हो जा ।
क्या सोच रही है ? मैं आज बहुत खुश हूं। इस खुशी को बर्बाद मत कर । उस
लड़के के सामने कुछ भी ऊटपटांग मत कहना। बहुत मुश्किल से भाई ने राज़ी किया
है इसे । “ स्नेहा मां की बात का ज़वाब दिए बिना नीचे उतर कर गाड़ी में बैठ
गई ।
उसने ड्राइवर को सार्थक के घर की तरफ़ चलने का इशारा किया। साहब ने मना
किया है कहीं जाने के लिए। तुम चुपचाप चलो यहाँ से । डांटते हुए स्नेहा
बुदबुदाने लगी कि सार्थक तो आने से रहा । मैं ही चल कर उसके घर पर एक बार
जांच लूं कि वह है या नहीं । आगे घरवालों की मर्जी ....... ?
एक जानी पहचानी शरीर की गंध उसके नथुनों में समा गई । वह चाह कर भी उस
खुशबू को अपनी आत्मा से मिटा नहीं पाई । जाने क्या था इस कमरे में। घुसते
ही वही इत्र आज फिर महसूस ........। उसे लगा कि किसी ने आकर पीछे से बाहों
में कस लिया है और माथे की पेशानी पर एक बोसा रख दिया । कान में धीरे से
फुसफुसाहट...... । आता हूं पांच मिनट में । इतना सुनते ही उसके शरीर में एक
झुरझुरी सी घुल गई । वह उसको हाथ से धकेल कर आगे की ओर बढ़ गई। कहने लगी कि
तुम सिर्फ़ भ्रम हो । जब तुम्हारा मन चाहता है । सामने आ जाते हो और वैसे
कोई रिश्ता रखना ही नहीं चाहते । हम दोनों के बीच। मुझे तुम पर विश्वास
नहीं है । लेकिन फिर भी अपने घर की देहरी लांघ कर तुमसे मिलने चली आई ।
अपने मन के हाथों मजबूर होकर । शायद बीता हुआ एक पल चाह कर भी अपने में से
कभी निकाल नहीं पाई मैं। कभी भुला नहीं पाई। जितना उसे मैं काटना, सुखाना
चाहती हूं । उतना हरा उग आता है मुझमें । तुम्हारे स्पर्श से परिचित हूं ।
जानती हूं कि तुम मेरे साथ क्या व्यवहार करोगे । पर इस बार मन में कोई बोझ
नहीं । दुख नहीं । जो हमारे प्रथम मिलन के बाद था। जितनी बार तुमसे मिलती
हूं मुझे लगता है कि अहसास धीरे-धीरे रीत रहे हैं । तुम प्रेम का वास्ता
देकर मुझसे खेलते रहते हो । मैंने पूछा कि तुमसे दोस्ती रखने के लिए सब
ज़रूरी है क्या ? तुमने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ़ कहा कि मैं तुमको पाना
चाहता हूं .........। लेकिन कब ? स्नेहा क्रोध से तमतमा गई । धोखेबाज कहीं
के। मेरी शादी के लिए मां ने एक लड़का देखा है । मैं जा रही हूं। अगर
हिम्मत है तो घर आकर मां और भाई से मेरा हाथ मांग लो या मुझे यहां से भगा
ले जाओ कहीं दूर। सार्थक का कोई उत्तर नहीं पाकर वह दुख में बौराई कमरे से
बाहर निकल आई ।
सरल छः फीट लंबा , डेनिम जींस और ब्लैक टीशर्ट पहने हुए था। चेहरे पर
मुस्कान लिए सभी से मिल रहा था। उसने स्नेहा से हाथ मिलाते हुए देखा कि एक
ख़ूबसूरत लड़की, डस्की कॉम्प्लेक्शन है जिसका और बड़ी बड़ी आंखें हैं ।
उसका उठा हुआ ललाट , खुले लंबे बाल और छरहरा शरीर । बच्चे सी मासूमियत लिए
उसका चेहरा पहली नज़र में ही उसे आकर्षित कर गया । गुलाबी कुर्ता उसकी
सुंदरता को और बढ़ा रहा है। न चाहते हुए भी बार-बार कनखियों से उसकी ओर
देखता और नज़रें घुमा लेता। स्नेहा को उसका व्यवहार अजीब लगा और बिना कुछ
बोले वह अंदर चली गई।
“स्नेहा तुम्हारे साथ इस ख़ूबसूरत शहर को देखना जन्नत है मेरे लिए । “
स्नेहा ने अपने स्वर को ऊंचा करते हुए और रुखाई के साथ कहा कि – “ भैया और
मां ........ नहीं कहा होता तो मैं तो कभी भी तुम्हारे साथ इस तरह बाहर
नहीं आती ।
सरल हंसते हुए बोला- “ कोई बात नहीं अब तो आ गई हो। तुम्हारी पसंद की जगह
कौन सी है। वहां मुझे ले चलो। “ ”सरल मैं ज़्यादा घूमने नहीं जाती ....।
कॉलेज से घर और घर से कॉलेज । एक, दो पार्क है जहां मुझे जाना अच्छा लगता
है । अगर तुम कहो तो मैं वहां ले चलती हूं । “
“जैसी तुम्हारी इच्छा । तुम पार्क के अंदर चलो मैं खाने पीने के लिए कुछ
लेकर आता हूं । “ सरल ने इशारा करते हुए कहा ।
काफी दिनों के बाद स्नेहा खुली हवा में सांस ले रही थी। उड़ते हुए पक्षी,
उनका कलरव उनकी चहचहाहट सुनकर उसके चेहरे पर एक स्मित रेखा उभर आई । रंग
बिरंगी तितली को पकड़ने के लिए स्नेहा उसका पीछा करने लगी । जैसे ही पेड़
के पीछे पहुंची , अरे ! सार्थक तुम यहां । अच्छा हुआ तुम आ गए। पर सार्थक
रुका नहीं । वह बिना बोले आगे निकलकर गुलाब की झाड़ियों के पीछे चला गया ।
स्नेहा गुलाब की झाड़ियों को हाथ से हटाते हुए उसके पीछे-पीछे हो ली । उसकी
हाथों की उंगलियों से खून टपकने लगा । सार्थक रुको ...ऽ ऽ मेरी बात को
समझने की कोशिश करो । मैं बहुत मुश्किल से घर से निकली हूं। आज मैं तुम्हें
यू जाने नहीं दूंगी और जा कर एक झूले से टकरा गई उसके सिर से ख़ून टपकने
लगा । सार्थक को ढूंढते हुए अचानक बेंच से टकराकर उसका संतुलन बिगड़ गया और
वह सिर के बल गिर गई । सिर में गहरी चोट आई, लेकिन दर्द सहते , गिरते वह
रुकी नहीं । उसने देखा कि सार्थक पार्क के पीछे वाले गेट से बाहर की ओर
निकल गया । स्नेहा बेंच का सहारा लेकर उठी और उसके पीछे दौड़ने लगी । गेट
के बाहर कैक्टस के पौधों को रौंदाती उसके पीछे बदहवास सी उसे पुकारती जा
रही थी। उसके कपड़े जगह-जगह से फट गए , सारा शरीर खून से लहूलुहान हो गया
पर उसे सार्थक को रोकना था । अपने मन की बात बतानी थी । सार्थक आज नहीं
रुके तो मैं तुम्हें कभी आवाज़ नहीं दूंगी । प्लीज ! एक बार मेरी बात सुन
लो । इतने में साइकिल पर सवार बच्चे से टकरा गई। पगलाई ,खोजती आंखों से दो
कदम आगे बढ़ी थी कि कार ने ज़ोर से ब्रेक दिया तो डर के मारे पीछे ओर मुड़ी
तो सब्ज़ी वाले ठेले से टकराकर चक्कर खाकर बेहोश हो गई ।
“स्नेहा की सगाई के लिए सारी शॉपिंग मां आप ही कर लें । उसको बाज़ार मत
भेजना। जाने कहां निकल पड़ती है। “
“बेटा ऐसे कैसे संभव है, बिना स्नेहा के । उसकी अपनी पसंद है। उसके हाथ की
चूड़ियां हैं, उसके पैर के नाप के सैंडल हैं ,उसके पसंद के रंग कपड़े हैं
और भी कई जरूरत की चीजें हैं । तुम चिंता मत करो, मैं उसके साथ चली जाऊंगी
। मां उस दिन भी सरल था उसके साथ । आप सतर्क रहिएगा। यह जिद्दी लड़की कहां
किसी की सुनती है। “ भाई गुस्से से दरवाज़ा बंद करते हुए कमरे से बाहर निकल
गया।
प्रिय सार्थक,
तुम मेरी बात मत सुनना और घर भी मत आना । आज मेरी सगाई है । मैं तो अपने
दिल के हाथों मजबूर हूं। तुम्हें भूल नहीं सकती। लेकिन शायद मेरी सारी
कोशिशें नाकाम रही। मुझमें ही कुछ कमी है जो तुम्हें घर आने के लिए मना
नहीं पाई । मेरी सगाई सरल के साथ हो रही है। पर वह कहीं से भी सरल नहीं है।
जब देखो मां और भाई की नज़र बचाकर मुझे छेड़ने में लगा रहता है। उसकी आंखों
से जैसे आग बरसती है । पहले दिन जब उसको देखा तो लगा कि उस आग में जल
जाऊंगी। एक अजीब सी चमक है उसकी आंखों में। मुझे भेड़िया जैसा नज़र आता है
वह । मां और भाई हमेशा उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते कि सरल विदेश से पढ़ कर
आया है , इसने यह टॉप किया , उसने यह पढ़ा है । अनगिनत तारीफों के पुलिंदे
मेरे सिर पर ढो देते हैं । मैं तो पहले ही मां और भाई के तानों तले दबी थी।
अब ये महाशय और आ गए । सरल के अटपटे व्यवहार से मैं अवसन्न रह जाती हूं ।
वह समझ गया है कि इस घर में मेरे ज्ज़्बात की कोई कदर नहीं है । बाज़दफ़ा
यह अहसास मुझे करा चुका है । “ पत्र लिखकर बंद कर रही थी कि दरवाज़े पर
दस्तक ने स्नेहा का ध्यान खींचा ।
“शुक्र है स्नेहा तुम तैयार हो । साड़ी तुम पर बहुत खिल रही है । यह गुलाबी
और बैंगनी रंग का कॉम्बीनेशन कमाल लग रहा है। काला टीका लगा ले । नज़र न
लगे । “ मां ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा । “सगाई का मुहूर्त टल न जाए
। जल्दी चलो , तुम जाने कौन सी दुनिया में खोई रहती हो। वक्त की कद्र करना
सीखो । यहां तो ठीक है, पर शादी कर दूसरे घर में कैसे तालमेल .......।
सोचकर दिल बैठ जाता है। “ ”इतनी चिंता है तो शादी मत करिए । “ स्नेहा ने
मां को पलट कर जवाब दिया ।
“कभी तो मुझे खुश हो लेने दे स्नेहा । “ माँ का गला भर्रा गया।
संगीत की हल्की धुन से घर महक रहा है। शहर के सभी नेता और उनके परिवार
महफ़िल की रौनक बढ़ा रहे हैं । शराब की गंध उस माहौल में नशा भर रही है ।
स्नेहा ने महसूस किया कि यह उसकी सगाई समारोह नहीं, कोई राजनीतिक प्रमोशन
पार्टी है । उसके मन मुताबिक न कोई था न माहौल। वह बस मां और भाई के हाथों
की कठपुतली थी । सार्थक कहां हो तुम ? इस दमघोंटू परिवेश से बाहर निकाल कर
ले जाओ । सरल ने उसके सामने चुटकी बजाते हुए , “कहां खोई हुई हो स्नेहा ?”
'लेट्स हैव सम ड्रिंक । '
“मैं नहीं पीती। “
“चलो ब्रीज़र ले लो। “
“उसमें भी एल्कोहल है । “
“ ठीक है। ”
“ लीची और ऑरेंज जूस है। “
“ मेरा मन नहीं है। “
“ सगाई को तो सेलिब्रेट करो स्नेहा । जूस तो तुमको पीना ही होगा । “
वेटर इशारे पर जूस का गिलास लेकर आ गया । स्नेहा ने अनमने मन से गिलास उठा
लिया। जूस पीते ही उसे अपना सिर भारी लगने लगा । उसने सरल से पूछा कि तुमने
इसमें कुछ मिलाया है ...... तब तक सरल उसका हाथ थाम कर उसे डांस फ्लोर पर
ले गया । जहां सभी जोड़े बॉलरूम डांस कर रहे थे । सरल सबसे पहले 'मे आई'
कहकर , अपना बांया हाथ उसकी कमर पर रखा और दांया हाथ स्नेहा के हाथ में ।
स्नेहा ने अपना दांया हाथ उसके दांये कंधे पर और बांया हाथ उसके हाथ में
देकर वे दोनों डांस करने लगे । सरल ने स्नेहा से कहा कि “तुम हमेशा मुझसे
खिंची- खिंची क्यों रहती हो ? अगर कोई बात है , तुम्हारे जीवन में कोई और
है तो मुझे बताओ। मैं तुम्हें उससे मिलवाने की पूरी कोशिश करूंगा। “ ” सच
कह रहे हो सरल । “ पहली बार सरल स्नेहा के मुंह से अपना नाम सुनकर खुश हो
गया ।
“सचमुच स्नेहा । “ उसके गालों पर दो गड्ढे उभर आए । स्नेहा ने डांस करते
हुए कहा , “ सरल मैंने अपने संपूर्ण जीवन में सिर्फ़ दो लोगों से प्यार
किया । पहले पापा और दूसरा सार्थक। पापा तो रहे नहीं और सार्थक.....। “
”सार्थक क्या ?” सरल ने फिर से प्रश्न उठाया । “ रुको तुम एक गिलास जूस और
ले लो । यू नीड मोर एनर्जी। “ स्नेहा ने अपनी बात पूरी करते हुए बताया कि
सार्थक को मां और भाई पसंद नहीं करते थे ।
“तुम्हें पता है सरल पापा ने मेरे लिए लेटर बॉक्स लोहार से बनवाया था और उस
पर लाल रंग मैंने और पापा ने मिलकर किया था । भाई ने बहुत ज़िद की थी उसे
लेने की । लेकिन मां को पापा का डाकघर में काम करना बिल्कुल पसंद नहीं था ,
इसलिए उन्होंने भाई को पापा और उनसे जुड़ी चीजों से दूर रखा। मेरे रूम में
चलना मैं तुम्हें दिखाऊंगी मेरा लेटर बॉक्स । उसमें पहले मैं पापा को ख़त
लिखकर पोस्ट करती थी और अब सार्थक को । अभी सगाई से पहले ही सार्थक को पत्र
लिखकर पोस्ट किया है। उसका पता है मेरे पास पर भाई के डर से पोस्ट नहीं
करती , जब उससे मिलूंगी तब थमा दूंगी सारे पत्र ।
मेरे लिए सार्थक........
“नाउम्मीदी की तपती सलाखें
मेरी देह के कोने - कोने को जलाती
फिर-फिर मुझे लौटाती है
तेरे पास
और फिर मैं तुझे कसके पकड़ती
नींद उचट कर मुझे जगा जाती
ख़्वाब गिर पड़ते मुरझाए फूलों से
जिन को रौंद कर चलती दुनिया
यादों के बियाबान में फिर भटकती
कभी शरीर के साथ कभी शरीर से निकल
मिलती उससे जो है नहीं
मगर है वही हर पल मेरे साथ । । “
यहाँ सुनाते हुए स्नेहा के दिमाग की नसें फड़कने लगी । उसकी आंखें नशे में
झूमने लगी। उसके कदम लड़खड़ाने लगे । सरल ने उसे संभालते हुए कमरे तक लेकर
आ गया ।
“स्नेहा तुम आराम करो , हम सुबह बात करेंगे । “ ” रुको ,लेटर बॉक्स नहीं
देखोगे । उसके ताले की चाबी टेबल के पहले दराज़ में है । तुम सब पत्र निकाल
कर ले आओ । “ सरल लेटर बॉक्स का ताला खोलकर सारी चिट्ठियां निकाल लाया ।
“खोलकर देखो कितने प्यार से लिखी है मैंने , पर कोई पढ़ने वाला नहीं है इन
चिट्ठियों को ......। “
“स्नेहा मैं पढ़ देता पर यह पत्र तुमने सार्थक को लिखे हैं , मैं कैसे पढ़
सकता हूं। “
स्नेहा हंसते हुए, “तुम मेरे दोस्त हो । मैं कह रही हूं तुम पढ़ो। “
सरल एक- एक चिट्ठी पढ़कर स्नेहा को सुना रहा था । स्नेहा कभी सरल , कभी
सार्थक कहकर हंसती और उससे बतियाती ।
“स्नेहा तुमने तो बहुत ही बुरा खाका खींचा है मेरा सार्थक के सामने। “ और
वह हंस पड़ा।
“सॉरी मैंने तुम्हें हमेशा गलत समझा सरल , तुम इतने बुरे भी नहीं हो ।
स्नेहा पर नशा तारी था । वह आंखें खोलती... बोलती... फिर बंद कर लेती ।
इतने दिनों के बाद तुम लौट आए सार्थक...., सरल ...... । याद है तुम्हें
रिजोर्ट वाली रात .......। “ कहकर वह बिस्तर पर निढाल हो गई ।
अलसुबह स्नेहा की आंख खुली ,तो प्यास से उसका गला सूख रहा था । जग से गिलास
में पानी उड़ेलकर बिना रुके गट - गट पी गई । रात को जूस में ऐसा क्या था?
जो मेरा सिर इतना भारी हो रहा है । अचानक उसकी नज़र पास सो रहे सरल पर गर्ई
, फिर उन चिट्ठियों के ढेर पर । वह ग्लानि से भर गई । वह सहम गई ।
सार्थक के रोने की आवाज़ उसके कानों से टकराई । कमरे की खिड़की के पास
सार्थक लाल आंखों के डोरे किये उसे घूर रहा है । स्नेहा कमरे से बाहर निकल
उससे हाथ जोड़कर माफ़ी मांगने लगी । मैं दुनिया से इतने समय से लड़ रही थी
सिर्फ़ तुम्हारे लिए । मैं तुम्हारी स्नेहा नहीं रही। सार्थक नशे में मैंने
बहुत बड़ा पाप कर दिया । यह सब कब घट गया मुझे होश ही नहीं। मैं तुम्हारी
अपराधिनी हूं। प्लीज मुझे क्षमा कर दो । सार्थक गुस्से से पैर पटकता हुआ
चला गया । उसे स्नेहा बुलाती रह गई फिर भी वह नहीं रुका ।
सार्थक तुम्हारी इस नफ़रत ने मेरे जीवन के मायने खो दिये । स्नेहा लड़की से
चिड़िया में तब्दील हो गई। उम्मीद इंतज़ार का डाकिया है , जो अदृश्य को देख
लेती है , अप्रत्यक्ष को अनुभूत कर लेती है और गैरमुमकिन को पा लेती है ।
एक आज़ाद पक्षी उछलता हवा में उड़ता चला जा रहा है । जहां तक विस्तार है,
व्योम का। सारे बंधनों से मुक्त होकर छू लेना चाहता है आकाश का आख़िरी
सिरा। आसमान धरती पर झुक आया है। नदियां समुद्र में मिलने पहुंच रही हैं ।
प्रकृति की हरीतिमा खिलखिला रही है। व्योम के वितान पर अटकी हुई इच्छाओं को
अपने प्रेम के रंग से उकेर दिया है उसने । वह मुक्त कंठ से गाती है अपने
स्वर्ण पिंजर के गान। वह चिड़िया इरादा करती है विस्तार के पार की उड़ान ।
मौसमी बयार बहती है मंद - मंद और वृक्षों की सरसराहट उसकी खुशी ज़ाहिर करते
हैं । वह पिंजर का विहग खड़ा है अपनी कब्र पर । अतीत के दु: स्वप्न की कराह
पर चीखती है उसकी परछाई । काट दिए थे उसके पंख और जकड़ दिए पैर बेड़ियों
में । गाता है पिंजरे का पक्षी भयाकुल स्वर में विरह का गीत जिसकी चाह आज
भी है । उसकी धुन सुनाई देती है सुदूर पहाड़ियों तक ।
उसने पिंजरे की सलाखें मोड़ दी और जीर्ण देह छोड़ दी । वह चिड़िया नहीं है
। किसी के प्रेम में पगी उसकी स्मृतियों को जीती विहरिणी है। ।
-डॉ. वीणा चूंडावत
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