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ज़िन्दगी
: कभी धूप कभी छाँव
धूप का के टुकड़ा काशवी के चेहरे पर पड़ा तो
उसे अहसास हुआ कि उसके साथ छाया का टुकड़ा भी शामिल है । खिड़की से छन कर आती
धूप खिड़की पर लगी सलाखों से टकरा कर छाया बनती जा रही थी । काशवी धप्प से
ज़मीन पर बैठ गयी और घुटनों पर कोहनियाँ टिकाई तो उसकी हथेलियाँ स्वत: उसके
चेहरे को स्पर्श करने को आतुर हो गई । उसकी हथेलियों में उसका चिंतित चेहरा
कुछ देर के लिए ही सही, सुकून पा गया था । उसके चेहरे पर धूप और छाया एक
साथ थी । उसे ऐसी खिड़कियाँ बचपन से ही पसंद थी । इसमें सलाखें लगी हों ।
जिसमें वो गाहे बागाहे झाँक भी सके । वो खिड़की जिसमें धूप ठिठके और छाँव
बेख़ौफ़ अन्दर आ सके । जिसमें पंछी अपना दाना तो ले सकें पर अंदर आकर दखल ना
करें । जिसमें हवा बिना इजाज़त आकर खड़ी ना हो और अंदर आने का पता पूछे ।
वैसी खिड़की जिसमें तूफ़ान सीधा आकर तहस-नहस ना कर सके । वैसी खिड़की जिसमें
बारिश की बौछार टकरा कर उसे छू भर जाए और बाकी बौछार बाहर मिट्टी में मिलकर
सौंधी सौरम दे जाए । हाँ ! वैसी खिड़की ही काशवी को पसंद थी ।
लॉक डाउन की घोषणा ने उसके देश के कदम थाम लिए थे । ऑफिस से कल फोन आया था
कि आपके कम्प्यूटर से जो भी डेटा लेना है, ले जाओ, ऑफिस में पड़ा आपका ज़रूरत
का सामान ले जाइए, अब घर से ही काम करना होगा । काशवी इस आदेश से स्तब्ध रह
गई थी । उसने जल्दी से ऊबर बुक की, आज बार्ट ट्रेन से जाने का समय नहीं था,
और वो भागी थी अपने ऑफिस । आनन-फानन में सब सामान बटोरा था और घर लौट आई थी
।
आज लॉक-डाउन के पहले ही दिन ही तो उसने बहुत दिन के बाद खिड़की का पर्दा
उठाया था । जाम हो गई सिटकनियों को पूरा दम लगाकर खोला था और धम्म से बैठा
गयी थी फर्श पर । धूप-छाँव की एक छाप उसके चेहरे पर स्पष्ट नज़र आ रही थी ।
पूरे सात साल हो गए थे काशवी को इस देश में आए । कैसे सात समन्दर पार अपने
देश की सीमाएं लांघ कर इस देश में प्रवेश कर गई थी । उसने कभी सोचा भी ना
था कि वो अपने कस्बे की सीमा भी लांघ पाएगी । अमेरिका जैसे देश में आकर उसे
लगा कि बस उसकी जगह तो यहीं है । उसे तो नहीं जाना वापिस भारत । ज़िंदगी उसे
कभी धूप तो कभी छाँव ही लगी थी । “ छैंया में बैठ ले काशवी, काली पड़ जाएगी”
माँ कहती तो काशवी पलट कर कहती “..और ज्यादा छैंया में कुम्हला भी जाते हैं
माँ । ” काशवी की इस बात पर माँ को अपना दर्शन याद आ जाता –“हाँ काशवी !
ज्यादा धूप में रखो तो पौधा झुलस जाता है, और ज्यादा छाँव में रखो तो
कुम्हला भी जाता है, इसलिए ज़िंदगी को थोड़ी धूप और थोड़ी छाया तो चाहिए ही ”
अपने कस्बे से 30 किलोमीटर की दूरी पर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिला
तो माँ-पापा की चिंता बढ़ गई थी । कैसे जायेगी इतनी दूर ! यहाँ तो साइकिल
क्या स्कूटी भी नहीं जायेगी ।
“पापा ! कॉलेज की बस आती है ना !” काशवी का ये कहना भी पापा को कहाँ सुकून
देता । लड़की जात इतनी दूर कैसे जायेगी ।
लड़कियों के पंख नहीं होते इस समाज में । लेकिन लड़कियाँ अपने पंख खुद उगाती
रहती हैं अंदर ही अंदर । रोमिल पंख कब डैनों में बदल जाते हैं मालूम ही
नहीं चलता और वो डैनों में उड़ान भर कर अपना आकाश पा लेती है । काशवी के
रोमिल पंख भीगे रहे । उसने कोशिश भी नहीं की कि पंख सूख भी जाए । वो
इंजीनियरिंग कॉलेज पहुँच कर अपने सपनों के स्केच बनाती रही ।
माँ-पापा का सरोकार इतना ही था कि काशवी समय से बस में बैठकर कॉलेज जाती है
और वापिस बस से उतर कर आती है । कॉलेज की तरफ से टैक-फेस्ट के लिए टूर जा
रहा था । काशवी को पापा से इज़ाज़त लेनी थी । “ पापा ! कॉलेज की तरफ से
बैंगलोर जाना है, एक टैक-फेस्ट है ...”
“ वो क्या होता है ?” पापा ने बात हवा में उड़ा दी थी ।
“ अरे पापा ! इंजीनियरिंग कर रही हूँ, मजाक थोड़े ही है, टेक्नीकल फेस्टिवल
है, वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ”
“ अरे बिटिया ! इंजीनियरिंग का ठप्पा काफी है । कहाँ जाएगी लाडो ! ”
काशवी को आज पुरानी बातें याद करके हंसी भी आ रही थी । कैसे काशवी ने पापा
को मनाया था और माँ की बचत के कुछ पैसे लेकर बैंगलोर गई थी । पूरे 12
छात्रों के दल में केवल 3 लड़कियां थी । लड़कियां इंजीनियरिंग कर रही थी भले
ही लेकिन एक तयशुदा फ्रेम में । इस समाज में फ्रेम से बाहर निकल कर कुछ भी
मान्य नहीं है । फ्रेम से कोई हाथ तो क्या अंगुली भी बाहर नहीं निकल सकती
पर काशवी को ये फ्रेम वाली संकल्पना कभी रास ही नहीं आई थी । लड़कियों को
पढ़ना है सिर्फ माँ-पिता के सपने के अनुसार ताकि कोई लड़का मिले और शादी हो
जाए । टेक-फेस्ट में जाकर काशवी के पंख खुले थे । उसके सपनों को उड़ान मिली
थी । उसे अंतर्बोध हुआ था कि कैसे उसे समाज के फ्रेम से उंगली बाहर निकाल
कर पंजा बाहर निकालना है ।
“ जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है उसके सामने दुनिया की दीवार खड़ी होती है ” एक
दिन इस कविता को जोर जोर से अपनी माँ के सामने सुनाया तो माँ ठिठक कर बोली
-
“पर क्रांतिकारी कहते हैं दीवार तोड़ देनी चाहिए”
आगे की लाइन मुझे याद नहीं कश्शो !
“पर लड़की है समझदार और संवेदन शील
वह दीवार पर लगाती है खूँटिया
पढाई लिखाई और रोज़गार की
और एक दिन धीरे से उन पर पाँव धरती
दीवार के दूसरी तरफ पहुंच जाती है ”
काशवी कविता की अंतिम पंक्ति सुना कर झूम जाती है और माँ से आकर लिपट जाती
है ।
“मुझे भी पसंद थी ये कविता पर मैं ना पाट पाई ये दीवार ” माँ का हाथ उसके
सिर पर होता हुआ पीठ पर आ जाता है ।
काशवी की माँ उषा उस दीवार को देखती जिसके नज़दीक बनी क्यारी में कनेर का
पौधा लगा था । कनेर की मोटी त्वचा वाली गहरे हरे रंग की चिकनी पत्तियों पर
कोई रोमछिद्र दिखाई नहीं देता था । भला प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया भी
कैसे होती होगी । कनेर के हलके गुलाबी रंग के फूल उषा को प्रसन्नता देने के
लिए काफी होते । वो हर शाम को गुलाबी फूलों का गजरा बनाकर अपने जूड़े में
बाँध लेती और उस ऊंची दीवार के उस पार देखने का प्रयास करती जिसे वो आज तक
नहीं पाट पाई ।
“ओहो माँ ! ये कनेर का फूल ही तुम्हें क्यों पसंद है ?” काशवी पूछती ।
“ और कोई पौधा भी तो नहीं हमारे बाग़ में ” माँ कहती ।
“ मोगरा चमेली तो ख़्वाबों की बात है लाडो !” उषा कहकर पीठ मोड़ लेती ।
“और इस कनेर के पौधे की पत्तियाँ देखी है तुमने ! इसकी गहरी हरी और चिकनी
त्वचा पर कोई रोम छिद्र नहीं । कैसे अपनी ऑक्सीजन निकालते होंगे, कैसे सूरज
की रोशनी लेते होंगे । ” काशवी अपना विज्ञान माँ पर झाड़ती ।
“ अरे इस पत्ती की पिछली त्वचा देखी है । हल्की हरी और रोम छिद्रों से भरी
” माँ भी अपना दर्शन दिखा ही देती । काशवी की माँ स्वतंत्रता पर पड़े पत्थर
को बखूबी समझती । काशवी अपनी ज़िंदगी की हर दीवार को पार करना चाहती थी ।
कम्प्यूटर में इंजीनियरिंग के चार सालों में इंटरनेट के सब पहलुओं के ज़रिये
दुनिया जान ली थी । उसे मालूम चल गया था कि उसे कहाँ जाना था । कैम्पस
प्लेसमेंट का दिन था । काशवी के सूखे पंखों में जान आ गई थी । उसे मालूम था
कि इस प्लेसमेंट के ज़रिये सीधी उड़ान बैंगलोर या हैदराबाद होगी । मेधावी
काशवी के चयन पर कोई प्रश्नचिन्ह ही नहीं था । चयन का सीधा सन्देश उसके मेल
पर आया था । वो रात के 12 बजे कम्प्यूटर के सामने उठकर नाचने लगी थी ।
“अरे क्या शोर मचा रखा है” पापा की घुड़की थी उस कमरे से ।
“ अरे पापा ! सलेक्शन हो गया मेरा, हैदराबाद !!! एक्सीलेंट कंपनी में !!! ”
“ अच्छा ! अच्छा ! सुबह बात करेंगे । ”
“ भला इंजीनियरिंग करवा ली तो अब नौकरी नहीं करवाएंगे ? ” माँ की बड़-बड़
उसके कानों में पड़ने से आँख खुली थी । उसे लगता था माँ उसके पक्ष में बोलती
है । माँ ने अपनी प्रतिभा का दम टूटते देखा है । वो नहीं चाहती है कि उसकी
बेटी की क्षमता का हनन हो । उसने कईं बार माँ को उसके सपनों को पोसते महसूस
किया था । बहुत बार उसने माँ को अपने पंखों को सहलाते पाया था । आज काशवी
की मुंदी आँखों में सपने तैर रहे थे । शाम को ताऊजी आए तो बैठक से काशवी के
कानों में आवाजें सुनाई दी थी - “अरे प्रकाश ! कैसी बातें कर रहा है तू,
आजकल तो लड़कियाँ हवाई जहाज उड़ाती हैं और तू इसे हैदराबाद भी नहीं भेजेगा”
काशवी का मन छन्न हुआ था लेकिन टूटा नहीं था ।
पापा को क्या मालूम कि हैदराबाद काशवी की सीमा नहीं थी, उसे तो सात समंदर
पार जाना था । कंपनी की नौकरी तो कुछ सीखने के लिए और आगे परीक्षाओं के
फॉर्म भरने के लिए पैसे का जुगाड़ हो जाए बस !! एक जूनून था काशवी का कि उसे
विदेश जाना है और ज्यादा सीखने । साल भर की नौकरी और पढ़ाई की मेहनत के बाद
कहाँ पीछे छोड़ती काशवी को ।
“पापा ! मुझे भारत के लिए पढना है, मैं कुछ करना चाहती हूँ , यहाँ के
बच्चों के लिए , यहाँ के समाज के लिए, आप मुझे रोको मत” ये काशवी अंतिम
प्रार्थना थी पापा से ।
चली आई वो भारत की गलियाँ छोड़कर इस स्कॉलरशिप पर । पापा का पैसा भी नहीं
लगा वरना पापा के पास कहाँ था इतना पैसा उसे विदेश पढ़ाने को । माँ की
हिदायतें गहरी थी, साथ ही यह निर्देश भी कि लाडो पढ़ कर लौट आना भारत के लिए
। तेरे अर्जित ज्ञान की यहाँ की लड़कियों को ज़रूरत रहेगी । जब पतवार गहरी
होती है तो कश्ती भंवर पार कर ही लेती है । काशवी की पतवार भी पानी में
गहरी मार कर रही थी । उसकी मेहनत का जुनून और उसके माथे का तेज उसे कहीं
रुकने नहीं दे रहा था ।
बोस्टन की धरती पर पैर रखते ही काशवी हैरत में थी । जैसे जन्नत में आ गयी
हो । साफ सुथरे शहर में गन्दगी के नाम पर एक कण भी नहीं । कांच की इमारतों
में उभरते अक्श किसी कल्पना लोक का अहसास करवाते । उसके डैनों को उड़ान भरने
में कोई बाधा नज़र नहीं आ रही थी । भारत में तो उसके डैने उड़ान भरने से पहले
ही किसी चट्टान से टकरा कर नीचे ज़मीन पर आ जाते । समय-समय पर उन डैनों की
छंटाई की जाती ताकि वो ऊंची उड़ान ना भर सके । डैने छोटे पंखों में और कतरे
पंख रोमिल पंखों में बदल जाते जो काशवी को हमेशा एक दर्द दे जाते । वो दर्द
से बिलबिलाकर फिर खड़ी होती । उसके रोमिल पंख फिर बढ़ते, पंख बनते, और डैनों
में बदल जाते, यही क्रम चलता रहता ।
“ वॉव ! यू केम फ्रॉम इंडिया !” पहले ही दिन क्लास में उसका परिचय हुआ था ।
प्रोफ़ेसर ने उसे सामने टेबल पर रखे ग्लोब की तरफ बुलाया था । उसे क्लास के
सामने उस बड़े से ग्लोब में एक पिन लगाकर बताना था अपना देश । उसने ग्लोब को
घुमाया, एशिया ढूँढा और उसमें नीचे पूंछ जैसे लटकते प्रायद्वीप पर पिन लगा
दी । क्लास तालियों से गूँज उठी थी ।
“ व्हाट इस द मीनिंग ऑफ़ योर नेम, काशवी !”
काशवी चौंक गई थी इस प्रश्न से । उससे आज तक भी किसी ने उसके नाम का अर्थ
नहीं पूछा था ।
“चमकदार, उजला,...” उसने अचकचा कर बताया था । कैसे यहाँ व्यक्ति को महत्व
दिया जाता है । वो सोच रही थी ।
कितना खूबसूरत था उसका विश्वविद्यालय का परिसर । चारों तरफ पेड़ों का वास,
कांच की झिलमिलाती अट्टालिकाएं, एक दालान से दूसरे दालान को मिलाती चमकीली
सड़कें, कहीं नीचे उतर कर अंडर-ग्राउंड में स्वीमिंग पूल तो कहीं ऊपर सीढ़ी
चढ़ कर व्यायाम शालाएं । मक्खन-सी गोरी त्वचा और सुनहरे बालों वाले
लड़के-लड़कियां जो उसने अब तक तस्वीरों में देखे थे जिन्हें देखकर वो विस्मित
हुए जा रही थी । चलते चलते कैंटीन के सामने की दीवार पर एक लड़का-लड़की की
चुम्बन करती आदम कद की तस्वीर देखकर ठिठकी थी काशवी । अभी तक तो उसने ऐसा
फिल्मों में ही देखा था । भय-मिश्रित मुस्कान थी उसके चेहरे पर । कितनी
आज़ादी है ना यहाँ पर हर काम करने की । भारत में तो हर समय “ यह मत करो, वो
मत करो ” कहकर सारी क्रिएटिविटी ही ख़त्म कर देते हैं । आधी से ज्यादा
प्रतिभाएं तो वर्जनाओं में ही दब जाती हैं । भारत में लड़कों से मिलने के भी
कितने प्रतिबन्ध होते हैं । उसके पिता ने तो लड़के तो क्या लड़कियों को भी घर
पर नहीं आने दिया । ना जाने उन्हें इसमें भी क्या राज़ लगते थे ।
अकेली-अकेली सी घूमती हुई काशवी दूर-दूर से ही यहाँ की सभ्यता को समझने लगी
थी । उसके लम्बे कुरते छोटे कुर्तों में और फिर टी-शर्टों में बदल गए ।
पैंट एन्कल लेंथ हुई फिर तीन चौथाई में बदली पर शॉर्ट्स नहीं पहन पाई ।
पूरी दुनिया खुली थी उसके सामने । वो जो चाहे कर सकती थी । वो आज़ाद थी पूरी
तरह । कैंटीन में बीयर पीना आम बात थी । उसे अपना भारत याद आया जहां कैंटीन
में किसी लड़के के साथ चाय पीना भी गलत माना जाता है और बीयर पीना तो
चरित्रहीनता कहलाती है । डैम, जोनी, फिलिप उसके क्लास मेट थे । क्लास में
पढाई के अलावा काशवी बाहर की दुनिया से परिचय ही नहीं कर पा रही थी ।
“ काशवी ! उड़ ना, कौनसी उड़ान भरना चाहती है। ”
“ तू कौनसी आज़ादी चाहती है, मिल तो गई ।”
“ हाँ ! पढ़ने की आज़ादी, मुझे तो ये भी नहीं मिलती भारत में। ”
“ पढ़ तो रही हूँ, बस कुछ बन जाऊँ ।”
वो खुद से ही अजब-गजब सवाल करती ।
उसे अहसास था कि भारत में वो आगे पढ़ ही नहीं पाती । बाँध दिए जाता उसके मन
मस्तिष्क को और उसे गृहस्थी की आग में झोंक दिया जाता । पढाई की दुनिया
कितनी खूबसूरत होती है। कैंटीन में उस दिन एक खाली टेबल पर जाकर बैठी ही थी
कि गेंहुए रंग वाला, काले बालों वाला भारतीय युवक उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“हैल्लो ! आय एम हर्षित !” और उसने हाथ आगे किया तो काशवी ने सकुचाते हुए
हाथ आगे बढ़ा दिया ।
“ इसी साल आई हो यहाँ ” हर्षित ने पूछा ।
“ जी मैं काशवी ! राजस्थान से हूँ ”
“ हैव ए कप ऑफ़ कॉफ़ी ” काशवी ने कहा तो हर्षित टेबल पर बैठ गया ।
बात का सिलसिला बढ़ा तो हर्षित ने बताया कि वो मुंबई से था और यहाँ मास्टर्स
करने आया था । उसका ये दूसरा साल था । कॉफ़ी ख़त्म करने पर हर्षित ने कहा-“
कोई काम की ज़रूरत हो तो बताना ” काशवी के चेहरे पर चमक आ गई थी ।
विश्वविद्यालय परिसर में आने के लिए गेट-कार्ड था जिसे छुआने से कांच का
विशाल गेट खुल जाता था । ये पास इसलिए दिया था कि आप 24 घन्टे में कभी भी आ
सकते थे । यानि दिन-रात, सुबह-शाम, जब मन हो, आप पर समय का कोई बंधन नहीं
था ।
“ लो इस बंधन से भी मुक्त हुए ” काशवी का दिल बल्लियों उछलने लगा था । वो
तो कॉलेज समय से पहुँचने के लिए सारी ताकत लगा देती थी । वो तो भला हो
कॉलेज-बस और माँ-पिता का जो हर संभव सहायता करते उसके तैयार होने में ।
“ पर रात में, कैसे जाएगी ” काशवी का मन सशंकित था । काशवी हर सम्भव कोशिश
करती कि रात होने से पहले अपने कमरे पहुँच जाए । उस दिन शाम के सात बजे थे
। उसे लैब की खिड़की से एक तारा नज़र आया था । उसने जल्दी से अपना सामान
समेटा और सीधी उतर गयी । गेट पर हर्षित मिल गया था । वो अंदर आ रहा था ।
“ अरे घर जा रही हो ”
“ और आप महाशय अंदर आ रहे हैं । आपको तो डर नहीं रात का ”
“ और तुम्हें भी नहीं होना चाहिए, ये भारत नहीं है काशवी ! तुम जब चाहे आओ
! यहाँ सुरक्षित हो !” हर्षित ने कांच के गेट के उस बड़े से हैंडल को हौले
से छोड़ दिया । गेट बड़ी नफाज़त से बंद हो गया था ।
“ अच्छा !” काशवी की आँखें हैरत से फ़ैल गयी थी ।
लौटते समय सोच रही थी कि भारत में शाम के तारे के बाद तो उसने अपनी गली की
सड़क भी नहीं देखी थी । माँ ऐसे डराती थी जैसे बाहर हौव्वा आ जाएगा । भारत
में रात के समय अकेली औरतों का जाना वर्जित माना जाता है । उसे अगर जाना भी
है तो वो पिता, भाई या पति के साथ ही जाएगी । अगले ही दिन काशवी देर तक
रुकने लगी थी लैब में । कम्प्यूटर पर काम करते-करते आँखें थकने लगी तो उसने
अपनी रिवॉल्विंग चेयर पर अपना सिर टिका कर आँखें मूँद ली । तपती आँखें,
बजता माथा, चटकती अंगुलियाँ उसकी थकान की कहानी में इज़ाफा कर रही थी ।
काशवी को लगा उसकी तपती आँखों पर किसी ने अपनी शीतल हथेलियाँ रख दी हैं,
स्पर्श से उसकी पुतलियाँ पलकों के नीचे नृत्य करने लगी, उसके हाथ स्वत: ही
उठे तो आँखों के दोनों ओर दो भुजाएं उसके हाथ में थी ।
“ कौन ?” काशवी ने घबरा कर पूछा था ।
“ पहचानों ? ” पहचानी सी आवाज़ थी ।
“ हर्षित ?” काशवी ने ठण्डी हथेलियों को खींचकर अपनी आँखों से दूर कर दिया
था । अपनी रिवॉल्विंग चेयर को घुमाकर देखा तो हर्षित मुस्कुरा रहा था ।
काशवी इस प्रथम स्पर्श के अहसास से थरथरा उठी थी ।
“रिलैक्स काशवी ! इतनी परेशान क्यों ?” काशवी ख़ामोश थी ।
सात समन्दर पार माँ-पिता, भाई-बहन से दूर आज उसे अपनापे से किसी ने उसकी
आँखें बंद करने का आँख-मिचौनी वाला खेल खेला है । ऐसा तो अक्सर उसका छोटा
भाई मुदित या उसके पापा करते थे । उसकी आँखों के कोर झिलमिलाए तो बरस ही
पड़े ।
“अरे ! अरे ! ये क्या ! चलो क्रिएटिव रूम में चलते हैं । तुमने देखा है
यहाँ एक क्रिएटिव रूम भी है । ” हर्षित ने उसका हाथ खींच कर कुर्सी से उठा
लिया ।
जब भी काम करते हुए थक जाओ तो यहाँ आ जाओ । देखो ! यहाँ सब अपना मन पसंद
काम कर सकते हो । डॉ.लमेकिंग, सॉफ्ट-टॉयज मेकिंग, क्रोशिया, बुनाई । काशवी
ने कमरे में नज़र घुमाई तो चारों तरफ रंग-बिरंगी गुड़िया, टेडी–बियर,
मिक्की-माउस और तरह-तरह के खिलौनों से शेल्फें अटी पड़ी थी ।
“ ये सब यहाँ के विद्यार्थियों ने ही बनाई है । यहाँ सब अपना तनाव दूर करने
आते हैं, अपनी रचनात्मकता का प्रयोग करते हैं और उसे खूबसूरत वस्तु में ढाल
देते हैं ” हर्षित ने बताया ।
“ आगे देखो ! ये पियानो भी बजा सकते हो ” और हर्षित खुद पियानो बजाने बैठ
गया । दोनों हाथों को सफ़ेद काले बटनों पर रखा और धुन बजा बैठा “ मैं दुनिया
भुला दूंगा तेरी चाहत में ” काशवी हर्षित को देखकर मंत्रमुग्ध हो गयी ।
काशवी ने खिड़की से देखा, आसमान में चाँद पूरा ऊपर आ गया था । उसने हर्षित
को देखा । वो काशवी का चेहरा देखकर उसकी परेशानी समझ गया था । “ यहाँ कोई
डर नहीं काशवी ! जिस समय मर्जी घर जाओ, और नहीं तो यहाँ भी रात को आराम कर
सकती हो । देखो ! मैंने अपने क्रिएटिव टाइम में वो झोंपड़ी बनाई है ” काशवी
ने देखा, सामने बिस्तरनुमा स्थान झोंपड़ी के परदे में से झाँक रहा था ।
काशवी के लिए अमेरिका की दुनिया भारत से बहुत अलग थी । उसकी स्थिति मुक्त
गगन में विचरने वाले पंछी की तरह थी जो गगन में ऊंची उड़ान तो लेता है लेकिन
उसे मालूम नहीं होता कि वो स्वतन्त्र होकर जाना कहाँ चाहता है ।
माँ-पिता, भाई-बहन से दूर रहना मुश्किल था । दैनिक कार्यों को पूरा करना भी
कठिनाई भरा था । यहाँ के रहन-सहन में ढलना भी एक अभियान जैसा था । भारतीय
खाना उस पर ठेठ राजस्थानी खाना जुटाना भी उसके लिए चुनौती भरा कार्य था ।
माँ-पिता से स्काईब पर एक सप्ताह में एक बार ही बात हो पाती थी । माँ-पिता
के सामने वो अपने आपको सशक्त दिखाने की कोशिश करती ।
“ माँ देखो ! यहाँ ब्रेड भी मिलती है । और ये पाव भी, वही पाव-भाजी वाले,
मक्खन की टिकिया से खा लेती हूँ । ” कम्प्यूटर की स्क्रीन पर ब्रेड झूल रही
थी । माँ की आँखों के कोर छलकने को थे पर माँ ने सम्भाल लिया । काशवी अपने
कोर नम भी कहाँ होने देती ।
“ कब आयेगी लाडो ?” माँ का यही प्रश्न होता ।
“ बस जल्दी ही” काशवी जानती थी एक साल से पहले कहाँ जा पाएगी ।
“ चिट्ठी-पत्री नहीं भेजी जाती वहाँ से” माँ पूछती तो काशवी हंस कर कहती-
“ई-मेल भेजा था ना, पापा ने पढ़कर जवाब भी दिया था ”
“पर मुझे कहाँ आता है कम्प्यूटर पर देखना, पत्र आए तो पढ़ भी लूँ और जवाब भी
दे दूं” माँ हंस दी । भाई मुदित और प्रज्ञा हो-हो करके हंस दिए ।
काशवी का पहला साल हवा में उड़ते और ज़मीन पर उतरते निकला था । साल भर लैब
में किए शोध का पूरा लेखा-जोखा जमा करवाना था । हर्षित भी अपने प्रोजेक्ट
की अंतिम रिपोर्ट बनाने में व्यस्त था । अप्रैल का अंतिम सप्ताह था, बर्फ
पिघल कर चार्ल्स नदी में घुल रही थी । ये नदी अटलांटिक महासागर में मिलने
जा रही थी । शरद ऋतु अपने समापन पर थी । पतझड़ का मौसम भी खूबसूरती लेकर आया
था । विश्वविद्यालय के परिसर में मैंपल पेड़ों से गिरी पत्तियों ने पूरे
रास्ते को केसरिया, लाल और सुनहरे रंग से ढक दिया था ।
“ कितना सुंदर नज़ारा है ना ” काशवी ने कहा तो हर्षित ने कहा -“ मालूम है ये
मैंपल लीव्ज़ है, ये प्रेम का प्रतीक होती है ”
“ सच ! ” काशवी ने हैरत से हर्षित को देखा । उसे कहाँ मालूम था ये ।
आज हर्षित ने काशवी को एस.एम.एस. किया था- “मीट मी एट नहांट सी-बीच एट 1.30
पी.एम.”
काशवी ने सोचा- “आज क्या बात है ? हमेशा तो हर्षित कॉफ़ी टेबल पर ही मिलता
है, आज इस सी बीच पर क्यों ” काशवी ने परिसर में गिरी उन लाल, केसरिया और
सुनहरी पत्तियों पर पैर रख कर उस पथ को पार किया तो पतझड़ की वो पत्तियां
चर्रमर्र का संगीत गूँज रहा था ।
काशावी ने हावर्ड बार्ट स्टेशन से ट्रेन पकड़ी और सीधी पर्पल लाइन वाली
बार्ट पर पहुंच गयी । हर्षित को भी क्या सूझी जो उसे यहाँ इतनी दूर बुलाया
। अंडरग्राउंड एस्केलेटर सीढ़ियों पर कदम रखा और हवा की तरह सीढीयाँ ज़मीन से
ऊपर बाहर ले आई जहां नीला आसमान छाता ताने खड़ा था । उसने दूर नज़र दौड़ाई तो
विशाल, शांत समन्दर के किनारे बने सीमेंट के फर्श पर हर्षित आँखें मूंदे
लेटा था । उसके कंधे पर उसका पसंदीदा लाल और काले चैक वाला फलालेन का मफलर
था । उसकी काली टी-शर्ट के गोल गले में उसका एन्टी-ग्लेयर चश्मा लटका था ।
उसके दांये हाथ में गुलाब का फूल था । उसके होठों पर मुस्कान थी ।
काशवी नज़दीक पहुँच कर बिना पदचाप की आहट किए उसके पास बैठ गई । कुछ देर
चुपचाप उसके चेहरे को निहारती रही । उसके चेहरे की मासूमियत काशवी के दिल
में उतर रही थी । उसे बेवजह उस पर लाड़ आ रहा था । वो धीरे से बुदबुदाई- “ ए
! सपना ले रहे क्या ?” हर्षित ने चौंक कर आँखें खोली ।
“अरे तुम कब आई ?” हर्षित ने हड़बड़ाकर उठाना चाहा और काशवी ने अपना हाथ आगे
बढ़ा दिया ।
“इतनी दूर बुलाया मुझे ? वहीं कैंटीन में मिल लेते” काशवी ने हथेली पर दबाव
देते हुए कहा ।
“ नहीं ! मैं इस समंदर को गवाह बनाना चाहता था । ”
“किस बात का गवाह !” काशवी ने उसे हैरत से देखा । हर्षित हरकत में आया,
घुटनों के बल बैठा, पैरों के पीछे लिया, दांये हाथ में गुलाब और बांये हाथ
को अपने दिल पर रखा, समंदर की तरफ देखते हुए कहा - “ काशवी ! इस विशाल
समन्दर की उपस्थिति में मैं तुम्हें सच्चे दिल से कह हूँ, मैं तुम्हें
प्यार करता हूँ, स्वीकार करो ” और हर्षित ने लाल गुलाब काशवी के आगे बढ़ा
दिया । शांत समंदर हिलोरें लेने लगा था ।
“ ओह हर्षित ! ” कह कर काशवी ने अपना हाथ आँखों पर रखा तो उसका सिल्वर कलर
का ब्रासलेट खनखना उठा । उसके हाथ में बंधा फूलों का गजरा लहक कर हथेली तक
आ गया । उसके काले इनर पर पड़ा गहरा जामुनी तिरछा श्रग समंदर के झोंकों से
लहलहाने लगा । उसके काले घने बाल दांई ओर से उड़कर बाईं ओर के कंधे पर आ
झुके । उसके काले बड़े नयनों के सारे भाव छुप गए । एक बार को लगा कि ये क्षण
थम गया हो । हर्षित हाथ में गुलाब लिए उसे निहारता रहा । ठीक वैसे ही जैसे
कुछ समय पहले काशवी उसको आँखें मूंदे हुए लेटी हुई अवस्था में निहार रही थी
।
“ ए काशवी ! देखो ना ! स्वीकार करो ” हर्षित ने हौले से उसके उंगली के पोर
भर को छुआ तो जैसे शीत की बर्फ पिघल कर शरद ऋतु में बदल गई थी । काशवी ने
हाथ को अपनी आँखों से हटाया तो उसका चेहरा समंदर की तरह हिलोरें ले रहा था।
उसने हर्षित के हाथ से गुलाब लिया और अपने होठों से एक बोसा गुलाब पर रखा
दिया। आज समन्दर उनके प्यार की गवाही दे रहा था । वो बहुत देर तक पत्थर पर
बैठ कर समंदर की लहरों में अपने पैर भिगोते रहे ।
“ तुम तो जा रहे हो ना हर्षित अगले छ: महीने में ” काशवी ने खामोशी को तोड़ा
था ।
“हाँ ! मेरा प्रोजेक्ट ख़त्म हो रहा है, लेकिन मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा
भारत में” हर्षित ने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया था । काशवी को आज उड़ान भरते
उसके पंख आसमान में नीचे उतरते आए ।
ऐसा भी क्या था काशवी के मन में कि उसे हर्षित की प्रेम स्वीकृति उसकी उड़ान
में इजाफा नहीं बल्कि ज़मीन पर उतरने का संकेत दे रही थी । हर्षित तो अपना
प्रोजेक्ट पूरा करके भारत जाने वाला था और काशवी को अगले वर्ष यहीं रहना था
। उसके चेहरे पर आई लकीरों को हर्षित ने पढ़ लिया था । हर्षित और काशवी की
मुलाकातें बढ गई थी । विश्व-विद्यालय के लैब से कैंटीन, कैंटीन से बाग़, बाग़
से स्वीमिंग पूल और जिम में हर जगह साथ-साथ नज़र आने लगे थे ।
सभ्यता-संस्कृति से लेकर जीवन के हर दर्शन पर बातचीत होती ।
“ यहाँ कितने आराम से मिल सकते हैं ना ! बिना रोक-टोक के। ”
“ हां ! यही तो यहाँ की खूबसूरती है । जब आप किसी पर ज़िम्मेदारी डाल दो तो
वो स्वत: ही अनुशासित हो जाता है ।”
“ तभी तो यहाँ ईव टीजिंग और बलात्कार जैसी घटनाएं नहीं होती । ”
“ इसीलिए मुझे यह देश पसंद है हर्षित ! ”
“ हाँ ! लेकिन स्वतंत्रता जब स्वछन्दता बन जाए तो जीवन जीने का मज़ाही नहीं,
कुछ तो बंधन ज़रूरी भी है ।”
“ हाँ ! लेकिन हमारे देश में औरतों पर कितने बंधन है ना ! दम घुटने लगता है
।”
हर्षित जिम के ट्रेडमिल पर चलते-चलते हांफने लगा था । काशवी ने उसके चेहरे
पर छलक आए पसीने को टॉवल से पोंछ दिया था । दोनों ठहाका लगा कर हंसने लगे
थे ।
काशवी अपनी माँ को पत्र लिखने का मन बनाने लगी । उसे माँ के पत्र पाने की
जिद्द में बचपना झलकने लगा था । मोबाईल, ई-मेल और स्काइब के युग में भी
पत्र लिखना उसे अजूबा लग रहा था । अब तो वाईबर कॉलिंग-एप्प भी आ गया था ।
इस पर्पल कलर के एप्प से तो अब हर रोज़ भारत में बात करती थी । उसने अपनी
शेल्फ पर पड़े रजिस्टर से बीच के दो पेज फाड़े और लिखने बैठ गयी । अगले दिन
विश्वविद्यालय परिसर के डाकघर से लिफाफा खरीदा । वो लिफाफा भारत के लिफाफों
से अलग था । गहरे आसमानी रंग के लिफ़ाफ़े के चारों ओर लाल और नीले रंग की
पट्टियां थी । एक टिकट प्रिन्ट रूप में ही थी । टिकट सहित पूरे दो डॉ.लर का
लिफाफा था । उसने अपने लिखे हुए पन्ने को लिफ़ाफ़े में डाला और काउंटर पर पड़ी
ग्लू-स्टिक से पेस्ट किया और काउंटर पर बैठी गोरी सुनहरे बालों वाली लड़की
के सामने बढ़ा दिया । काशवी एक अद्भुत प्रसन्नता के साथ घर लौट रही थी । वो
माँ को सरप्राइज़ देना चाहती थी इसलिए उसने माँ को बताया ही नहीं कि उसने
पत्र पोस्ट किया है । माँ हर दिन उस कनेर के पौधे के पास की दीवार से
झांकती पर डाकिया चचा कभी इस घर तो कभी उस घर चिठ्ठी देकर मुड़ जाता । माँ
के जूड़े में लगा कनेर के फूलों का गजरा शाम होते तक मुरझा जाता ।
उस दिन डाकिया चचा ने अपने साइकिल के हैंडल पर लगी घंटी को ट्रिन-ट्रिन
बजाया और एक भूरे रंग का लिफाफा सामने वाले घर की बालकोनी में फेंक दिया ।
ये क्या आज तो डाकिया चचा इधर ही आ रहे थे । उनकी साइकिल की सामने वाली
टोकरी में गहरे आसमानी रंग का लिफाफा था । साइकिल के पीछे की टोकरी में
खाकी रंग का बैग था । उनके बांये हाथ में खतों का कुछ पुलिंदा था । उषा माँ
का मन हिलोरें लेने लगा था । ज़रूर काशवी का पत्र होगा विदेश से ।
“ अरे भाभी ! मुँह मीठा करवाओ। विदेश से चिठ्ठी आई है। ” डाकिया चचा चिंहुक
रहे थे ।
“ सच्ची ! ” उषा ने ऊंची दीवार में धंसे काले गेट की मूठ घुमाई और दरवाजा
खोल दिया । कनेर का पौधा हवा के झोंके से लहकने लगा ।
“ कउनौ रहता है बिदेसवा में ? ” डाकिया चचा साइकिल से उतरे । स्टैंड लगाया
और टोकरी से नीले लिफ़ाफ़े को निकालकर उषा के हाथ में दे दिया ।
“ अरे तौहार भतीजी है, बिटिया हमरी, पढ़ने गई है बिदेस ” उषा हाथ में पत्र
लेकर झूम उठी ।
“ प्रज्ञा ! चचा के लिए गुड़पारा लाओ और पानी भी ” उषा ने आवाज़ लगाई और खुद
दालान में ही चारपाई पर बैठ गयी । उसे आज खलबली थी, चैन कहाँ था । उसने
लिफाफा खोला और पढ़ने बैठ गयी ।
बोस्टन
4 अप्रैल 2015
आदरणीय माँ पापा
चरण स्पर्श !
यह पत्र लिखते हुए मुझे आनंद की अनुभूति हो रही है । मैं शायद पहली बार
आपको पत्र लिख रही हूँ । कभी बाहर रहने का मौक़ा ही नहीं आता । फिर आजकल तो
ई-मेल और फोन से ही बात हो ही जाती है । पापा तो ई-मेल पढ़ लेते हैं और जवाब
भी देते है । माँ ! आपका आग्रह था तो मैंने भी सोचा देखूं कैसे पत्र लिखते
हैं और इस बहाने यहाँ का पोस्ट ऑफिस भी देख लिया । क्या सिस्टम है यहाँ !
काउंटर पर लोग झूमते नहीं हैं, एक मीटर की दूरी पर पीली रेखा से आगे बढ़ते
नहीं है जब तक पहले व्यक्ति का काम नहीं हो जाता । सब पंक्ति में धैर्य से
खड़े रहते हैं । यहाँ पर बहुत साफ़-सफाई से रहते हैं लोग । नौकर की व्यवस्था
नहीं है यहाँ फिर भी अपने घरों को बहुत साफ़ रखते हैं । सड़क पर कचरे का एक
कण भी नहीं दिखाई देता । कचरे का मैंनेजमेंट भी बहुत अच्छा है । सूखा-कचरा
और गीला-कचरा अलग रखते है । यहाँ के लोगों में नागरिक बोध भी अच्छा है ।
सडकों पर ट्रेफिक नियम सख्त हैं । पैदल चलने वालों को बहुत तवज्जो दी जाती
है । मालूम है एक दिन मुझे पैदल देखकर कार वाला रुक गया । मुझे समझ ही नहीं
आया कि उसने मुझे इशारे से सड़क पार करने को कहा । बाद में मुझे मालूम हुआ
कि यहाँ पैदल पार करने वाले को प्राथमिकता है । माँ ! सच्ची ! असली जीवन तो
यहीं है । औरत की सच्ची आजादी है यहाँ । किसी को कोई काम की मनाही नहीं है
फिर भी लड़कियां अनुशासन में हैं । यहाँ देर रात में लड़कियां बेख़ौफ़ घूमती
हैं । उन्हें कोई डर नहीं लगता । यहाँ लडकियों का बहुत सम्मान करते हैं ।
उनकी इच्छा के खिलाफ कोई नज़र उठा कर भी नहीं देखता । यहाँ भले ही मोटे और
लम्बे कपड़े पहन कर नहीं रहते फिर भी उनका दिल बेहद पवित्र है । मुझे लगता
है कि मेरा मन यहीं ज्यादा लग रहा है क्योंकि जीवन में आज़ादी बहुत बड़ी चीज़
होती है । माँ ! एक बार आप आ जाओ तो जाने का नाम नहीं लोगे ।
मुदित और प्रज्ञा को भी खूब पढ़ने के लिए प्रेरित करना । उन्हें मेरा ढेर
सारा प्यार ।
आपकी बिटिया
काशवी
पत्र पढ़कर माँ का मन दरका था । दो अश्रुकण झोली में आ गिरे । ना जाने पत्र
पाने की खुशी के थे, समाचार पाने की भाव विह्वलता के या काशवी के मन की थाह
उधेड़ते भावों को जानकर उद्वेलित हुई उषा के । उसे पत्र के शब्दों से अहसास
हो गया था कि काशवी कहीं भारत से अपना रुख ही ना मोड़ ले । काशवी के स्काइब
कॉल का इंतज़ार था । वो पत्र दिखाकर काशवी को उसके पीछे की कहानी बताना
चाहती थी कि कैसे डाकिया चचा का इंतज़ार करते हुए दिन बीते और आज पत्र देने
से लेकर उन्हें गुड़पारा खिलाने तक की कहानी भी बतानी थी ।
हर्षित और काशवी अक्सर उस भारतीय रेस्तरां में मिलते जहां काशवी की मनपसंद
दिल्ली-चाट मिलती और हर्षित का मसाला डोसा । दोनों एक-एक प्लेट लेते और
आधा-आधा साझा करते । ऐसी सुहानी शामों में अक्सर उनकी बातें वहां की जीवन
शैली पर होती । काशवी पूछती-“ हर्ष ! यहाँ कैसे लोग लिव-इन में भी रह जाते
हैं ना ”
“ तुम इसे आज़ादी कहती हो काशवी !” हर्षित उसकी प्लेट से दही में लिपटी पपड़ी
उठाते हुए कहता ।
“ और यहाँ नाईट क्लब में लोग जाते हैं, कोई बुरी बात नहीं ना, नाईट लाइफ
बिताते हैं ? ” काशवी अपने मन की बात खुलकर बोलती ।
“ हाँ काशवी ! ये उनकी संस्कृति है, वो उसे फ़ॉलो करते हैं, हमें अपनी
संस्कृति फ़ॉलो करनी है ” उनकी बातों का सिलसिला अनवरत चलता ।
हर्षिता का प्रोजेक्ट पूरा हुआ तो उसका भारत जाना तय हो गया था । काशवी ने
उसे बहुत रोका । यहीं नौकरी ढूँढने को कहा लेकिन हर्षित को भारत ही जाना था
। उसका कहना था कि वो अपने अभिभावकों के साथ रहेगा ।
“तुम भी अपना प्रोजेक्ट पूरा करके भारत आ जाओ, मैं इंतज़ार करूंगा। ” हर्षित
का हमेशा का वाक्य था ।
काशवी अमेरिका के जीवन की आज़ादी में अपने पंख फैलाती जा रही थी । उसके दिल
औ’ दिमाग में वहाँ के जीवन की साँसें घुल गई थी । वो अपने तराजू में भारत
और अमेरिका के मूल्यों को रखकर तोलती तो उसे अमेरिका का पल्ला भारी लगता ।
ना कोई सामाजिक दबाव, ना किसी का निजी जीवन में दखल, ना गृहस्थी के
भारी-भरकम पैमाने, एक आज़ाद पंछी की तरह घूमना उसकी प्रसन्नता को कायम रखे
था । उसकी मास्टर्स डिग्री के तीन साल बीत चुके थे । उसके भारत जाने का समय
आ रहा था । उसका स्टूडेंट वीज़ा भी समाप्ति की ओर था । काशवी का दिल धुक-धुक
करने लगा था । उसे अपने डैनों को कतरने का अहसास होने लगा था।
अपनी आज़ादी को बरकरार रखने के लिए उसने दिन रात एक कर दिया । उसका
प्रोजेक्ट पूरा होने से पहले ही कंपनी में नौकरी मिल गयी और फिर से उसे दो
साल का एच-वन वीज़ा मिल गया था । उछल पड़ी थी वो । माँ-पापा को खुशी से फोन
किया । वो नहीं जानती थी कि माँ कैसे खुश होगी । उनकी आँखें झिलमिला रही थी
। हर्षित को भी पुकारती रही समय समय पर । “ आ जाओ हर्षित ! यहाँ तुम्हारी
योग्यता के अनुसार बहुत काम है ”
“ नहीं काशवी ! मैं यहाँ जिस कंपनी में वहाँ महीने में एक टूर तो विदेश का
यूँ ही लगा जाता है । विदेश का चाव भी पूरा और घर का घर में ”
काशवी अपनी नौकरी में रमती जा रही थी । कंपनी का उद्देश्य था पूरे विश्व को
हाईटेक करना । “2040 में कैसा होगा विश्व” जैसे टास्क काशवी की झोली में आ
रहे थे । काशवी को विकासशील और अविकसित देशों का जिम्मा मिला था वो भी
लड़कियों के सेगमेंट का । “अहा !” खुशी से मतवाली हो गयी थी काशवी । वो
विश्व भर की लड़कियों को हाईटेक बनायेगी, वो आज़ादी बांटेगी जो उसने अब तक
अर्जित की है । इन दो वर्षों में वो प्राग, चेकोस्ल्वाकिया, चेक, घाना,
सिंगापुर, देशों का दौरा कर आई है । नौकरी लगने के बाद उसका भारत का दौरा
भी बढ़ा था जब भी वो किसी देश की यात्रा पर होती भारत आ जाती लेकिन दो
सप्ताह से ज्यादा नहीं रहती ।
जब से व्हाट्स-एप्प आया है वो माँ को अपनी हर छोटी बड़ी उपलब्धि के सन्देश
भेजती है पर माँ कोई प्रतिक्रिया नहीं देती है । माँ का मायूस चेहरा बता है
कि माँ खुश नहीं है । उस दिन काशवी के ऑफिस के टेबल पर उसके नाम का लिफाफा
पडा था । भारत से आया था । माँ की लिखावट लग रही थी । उसने जल्दी से खोला ।
लालगढ़
5 जनवरी 2020
प्रिय काशवी
ढेर सारा प्यार !
आज मेरा भी मन हो आया कि तुझे पत्र लिखूं । भले ही कितनी फोन पर बात कर
लूँ, कितने ही व्हाट्स-एप्प सन्देश भेज दूं, मन संतुष्ट नहीं होता । अब तो
व्हाट्स-एप्प पर कॉल भी शुरू हो गई है लेकिन पत्र की महक अलग ही होती है ।
मुझे खुशी है कि मेरी बेटी ने आज़ादी पा ली है और वो अपनी योग्यता के बल पर
उस मंजिल पर पहुँची है जहां विश्व की अन्य लड़कियों की शिक्षा और आज़ादी की
चिंता भी कर रही है । लेकिन मुझे इतना कहना है कि तुम अन्य देशों की
लड़कियों की आज़ादी की चिंता कर रही हो लेकिन भारत देश की लड़कियों की आज़ादी
की फिक्र कौन करेगा । उनके पंखों में उड़ान कौन भरेगा । भारत के बच्चों को
हाईटेक कौन बनाएगा । अपनी जन्म भूमि का भी हम पर कर्ज होता है । उससे उऋण
कैसे हुआ जा सकता है ।
मेरी बात पर विचार करना ।
पापा की तरफ से आशीर्वाद ! प्रज्ञा और मुदित का तुम्हें प्यार ।
तुम्हारी माँ
उषा
पत्र पढ़कर काशवी के चेहरे पर स्मित रेखा फ़ैल गयी । माँ क्या जाने कि वो
अपनी बात विश्व फलक पर रखने में जुटी है । माँ की मंशा तो उसे भारत बुलाने
की है और शादी करवाने की बस !! उसे अगले महीने वियेना जाना था । घर आकर
काशवी ने पलंग पर लेट कर एक बार फिर माँ का पत्र पढ़ा तो उसे माँ की बात का
मर्म समझ में आ रहा था । माँ हमेशा से ही उसे कहती रही कि कश्शो ! तू भले
ही विदेश से पढाई कर रही है लेकिन उसका फ़ायदा अपने देश के विकास में लगाना
ताकि हमारा देश भी अमेरिका जैसा सशक्त बन सके । हमारे देश के बुद्धिमान
बच्चे अगर देश से ही चले जायेंगे तो ये देश तो खाली हो जाएगा ना । और यहाँ
की लड़किया कैसे अशिक्षा की बेड़ियों से आज़ाद होंगी । अपने पंखों को दूसरे
देश की ज़मीन पर खोलोगी तो यहाँ की चिड़ियों जैसी लड़कियां तो दुबकी ही रहेंगी
अपने घोंसलों में । काशवी के मन में आज माँ की कही गई कतरा-कतरा बातें उसके
मन के पटल पर एक संगीत की तरह चल रही थी ।
चीन से किसी बीमारी के संकेत आ रहे थे कि ऐसी बीमारी आई है कि अस्पताल कम
पड़ रहे हैं । चीन में रातों-रात अस्पताल बनाने की खबरें रहस्यमयी-सी लग रही
हैं । फिर कोरोना वायरस का नाम उजागर हुआ जो अमेरिका में पदार्पण कर चुका
था । डब्ल्यू.एच.ओ. की घोषणाएं सच्ची साबित हो रही थी । इसे महामारी घोषित
कर दिया गया था ।
काशवी का ऑफिस पहले आधा दिन चलने लगा । अचानक एक दिन घर से काम करने की
घोषणा ने चौंका दिया था । सारी अंतर्राष्ट्रीय उड़ाने बंद हो गयी । उसका
वियेना का टूर भी रद्द हो गया । पूरा अमेरिका कोरोना की चपेट में आ गया ।
लॉक डाउन की घोषणाओं से पूरा विश्व स्तब्ध रह गया । पहले काशवी के माँ-पापा
अमेरिका की स्थिति को लेकर चिंतित हुए । काशवी को फोन करके देशी काढ़ों की
हिदायत देते रहे । अचानक भारत में भी लॉकडाउन से भयावह स्थिति पैदा हो गई ।
अमेरिका और भारत एक ही थैली में गडमगड थे । काशवी खुद की चिंता से ज्यादा
भारत में माँ-पापा और भाई-बहन की चिंता करने में लगी थी । सारे उड़ाने रद्द
होने से जैसे पंछियों के पंख कट गए थे । आसमां था, आज़ादी थी, पंख थे, पर
पंछियों को उड़ने की आज़ादी नहीं थी । काशवी आज़ादी को विस्मित हो कर देख रही
थी । एक बार पूरा विश्व स्तब्ध था । एक महीने का लॉकडाउन फिर बढ कर दो
महीने हो गया था । स्थिति नियंत्रण में ही नहीं थी । सारी व्यवस्थाएं गड़बड़ा
गयी थी ।
“ अरे अमेरिका ही नहीं संभल पा रहा तो भारत का क्या होगा ” पापा रोज़
अमेरिका में संक्रमित लोगों के आंकड़े देखकर चिंता करते ।
“ कुछ दिन की बात है, सब ठीक हो जाएगा, चेन टूटेगी, सब घर में रहें ” माँ
तसल्ली देती ।
काशवी अमेरिका में ही एक कमरे में बंद होकर रह गई थी । बस धूप-छाँव वाली एक
खिड़की ही सहारा थी ।
भारत से आती खबरें काशवी को विचलित करती । महीने दर महीने गुज़र गए पर
बीमारी काबू में आने को नहीं थी । माँ-पापा ने तो उसे बताया भी नहीं था कि
बड़े ताऊजी को कोरोना लील गया था । उस दिन मुदित से व्हाट्सएप्प कॉल पर पता
चला कि छोटी चाची को कोरोना हो गया है । अस्पताल में बेड भी नहीं है और
ऑक्सीजन भी नहीं । पापा किसी से इंतज़ाम की बात करने गए हैं । काशवी परेशान
हो गई ।
अमेरिका तो सम्भल गया । उसके भारत देश से एक तिहाई जनसंख्या और तीन गुना
क्षेत्रफल वाले देश के लिए सम्भलना आसान था । यहाँ तो वैक्सीन भी सबको लग
गई थी । पर उसके देश का क्या होगा । अभी तो इलाज ही नहीं पहुंच रहा है और
हर व्यक्ति के पास वैक्सीन पहुँचाने में समय लग जाएगा ।
फेसबुक पर दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों के लिए कुछ सेवाभावी लोगों की मुहिम
थी अस्पतालों में बिस्तर दिलवाने और ऑक्सीजन सिलेंडर दिलवाने की लेकिन उसके
छोटे शहरों के लिए ये काम कौन करेगा । छोटे शहर में पापा जैसे कितने लोग
होंगे जो अस्पताल में बिस्तर और ऑक्सीजन के सिलेंडर का इंतज़ाम करने के लिए
दर-दर भटक रहे हैं ।
“ काशवी ! तू क्या कर रही है ? क्या काम आयेगा तेरा ये हाई टेक होना ? उठ
अपने देश के लिए, कुछ कर तो कर अपने शहर के लिए, अपनों के लिए कर, बहुत
कर्ज है तुझ पर अपनी माटी का ....” काशवी के मन से आवाज़ आई थी ।
काशवी ने टेबल पर पड़े कप में केतली से गर्म पानी पानी डाला और कॉफ़ी का सैशे
खोल कर डाल दिया । वो टेबल पर बैठ गई अपना लैपटॉप खोल कर । आज उसे अपना
भारत दिख रहा था और भारत का अपना वो शहर लालगढ़ । उसने नैट से कईं
जानकारियाँ जुटाई । डॉ.क्टर्स, अस्पताल, ऑक्सीजन, निशुल्क, खाना, वैक्सीन,
अन्य जानकारी । जो अपने एप्प में दे सके ताकि उसके शहर के लोग एक ही जगह जब
फोन नम्बर पा सके । काशवी अपनी सुध-बुध खो बैठी । इस काम में नैट पर अपने
स्थानीय अखबारों की सुध ली । स्थानीय कार्यकर्त्ताओं से बात की ।
काशवी को हर संभव मदद करनी थी । उसने अपने चाचा से बात की जो स्थानीय लोगों
के नम्बर दे सके । दिन और रात लैपटॉप के सामने बैठे हुए कितनी बार उसकी
आँखें नम हुई, कितनी बार अविरल बही । उसे उसका देश खींच रहा था, उसका भारत
देश, उसकी मिट्टी, जहां उसने जन्म लिया था । महामारी के इस युद्ध में आखिर
उसे अपनों की ही याद आई । वो अपनी सारी योग्यता अपने देश के लिए झोंक देना
चाहती थी ।
एप्प बनकर तैयार हुआ तो बढ़ते उपयोगकर्ता उसे सुकून दे रहे थे । चैट बॉक्स
में लोगों की दुआएं उस तक पहुँच रही थी । उसके एप्प पर लगातार मेसेज बढ़ते
जा रहे थे ।
कब रात से सुबह हुई । उसे पता ही नहीं चला । वो टेबल से उठकर उस खिड़की के
सामने जा बैठी जहां सलाखों के बीच से धूप और छाया एक साथ अन्दर घुसपैठ कर
रही थी । उसके चेहरे पर धूप छाया की छाप पड़ रही थी । काशवी ने अपनी हथेली
पर रखे चेहरे को ऊपर उठाया और खिड़की बाहर नीले आसमान की ओर देखा “ इस आसमान
में पंछी कब उड़ेंगे, कब उड़ेगी उड़ान देश के लिए ”
उसे जाना भारत आज़ादी देने ।
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