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गोवा डायरी – अनुकृति उपाध्याय दिसंबर २०१६ की डायरी से - गोवा शब्दों का भी अपना गुरुत्वाकर्षण होता है - एक शब्द लिखो, वह दूसरा शब्द खींच लाता है, एक और, फिर एक और, और-और असंख्य शब्द । तुम्हारे गिर्द शब्दराशि के अम्बार लग जाते हैं, वैसे ही जैसे सिरिस का वृक्ष हिलाने पर नाज़ुक फूल और पत्तियाँ झरते हैं, और तुम उस रूप-रस-गंध की वर्षा में किसी तरह अपना आपा सम्भालने की चेष्टा करते हो। मेरी देह गहरी गाढ़ी नींद सोती है , सागर के दोलन का शब्द भीतर झंकृत होता रहता है, दूर बजते मृदंग सा, और सूर्य और पंछी स्वरों से जागती है देह, धीरे धीरे, जैसे लहरों पर दिन उतरता है, धीरे धीरे... रिसोर्ट के भोजनालय में बुफ़े ब्रेकफास्ट लगा है। हम कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते हैं और नारियल वृक्षों पर क़रीने से धरी धूप को देखते हैं। रिसोर्ट के कर्मचारी व्यस्तता से आ जा रहे हैं , गर्मागर्म नाश्ता और चाय-कॉफ़ी परोस रहे हैं। मुखों पर मुस्कान साधे झुक कर पूछ रहे हैं - और कुछ, गर्म कॉफ़ी , टोस्ट, फल? अधिकांश अपने घर छोड़ कर आए हैं - कुछ निकट के गाँवों से तो कुछ सुदूर मणिपुर नागालैंड की पहाड़ियों से। हम जो यहाँ छुट्टी मनाने आए हैं और ये जो यहाँ जीविकार्जन करने आए हैं, एक दूसरे के जीवनों से हो कर गुज़र रहे हैं जैसे पानी में से रौशनी गुज़रती है - बिना छुए, बिना घुले। अतिथि समुद्र तट के आनंदों की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेना चाहते हैं और यहाँ के कर्मी सुबह के नाश्ते के बाद दोपहर के भोजन, शाम की चाय के बाद रात्रि-भोज के चक्र में जुते रहते हैं। बार-बार , हर दिन, निरन्तर यही नियम, नए सैलानियों के वही-वही प्रश्न, वही-वही दुहराए जाते उत्तर, आनंद की वहीँ उन्मादी pursuit ,श्रम का वही अनथक क्रम। अपने दैनिक जीवन से कुछ दिन की परोल पर छूटे क़ैदियों के विलास पर टिकी जीविकाएँ। ... सागर तट पर हमने लहरों से होड़ लेने का खेल बनाया है। खेल कुछ यूँ है - तट को आती समुद्र-भर लहरों में से एक को चुनना और उसके आगे-आगे तट पर दौड़ना जब तक कि वह पस्त हो कर रेती पर पसर न जाए या झपट कर हमारे पैरों के तले से तट न खींच ले। फिर-फिर सबसे चमकीली , फेन-सजी , त्वरित-पग लहर को चुनना, उसे अपने पैरों की गीली पैंछर से परचाना और दौड़ते चले जाना। पुलिन की लगभग श्वेत रेत में अभ्रक चमक रहा है, आकाश में सफ़ेद कंठ और ताँबई परों वाली ब्राह्मणी चीलें तिर रही हैं, हम सूर्य-रंजित लहरों के साथ दौड़ रहे हैं ... सुनहरे सागर में रुपहले जाल फेंकते अधनंगे मछुआरे हँस रहे हैं। उनकी हँसी की खनक से लहरे सिहर रही हैं लेकिन अजर तपस्वी सागर अपनी कालातीत साधना में डूबा है ... कभी जीतती हैं मछलियाँ और कभी मछुआरे कभी सागर-फलों से भर जाते हैं सागर-पुत्रों के जाल और कभी लौटते हैं छूँछे किन्तु अंत में हारते हैं दोनों ही जीतता है केवल विरक्त सागर अपनी गति से डोलता अनंत काल से अनंत काल तक खसखसी रेत पर चलते चले जाने का सुख पैरों के तलवों से होता हुआ देह में फैल जाता है, कांच-हरे और पुराने नीले सागर की चमक आँखों के ज़रिए भीतर आ कर एक-एक cell को आलोकित करती है, नारिकेल कुंज से उठी हवा नासारन्ध्रों की बेहद संवेदनशील झिल्लियों से सीधे नाड़ी-तंत्र में समाहित हो जाती है। भुरभुरी मिट्टी पर चलते चलते हम सड़क तक पहुँच जाते हैं। मैं नंगे पाँव हूँ , चप्पलें पुलिन पर बहुत दूर उतार डाली थीं , V अपने जूते मुझे दे देते हैं ! इतने बड़े की एक ही में मेरे दोनों पैर समा जाएँ और फिर भी जगह छूटे! लेकिन आगे जाने के जोश में उनमे पैर अटकाए मैं बढ़ती जाती हूँ और बेचारे V नंगे पाँव ! हम Y को दूर से देख लेते हैं - लम्बा, छरहरा , झबरे बाल, धूप में झिलमिलाते गीले कंधे। वह दोस्तों के साथ पूल में खेल रहा है। सब मिल कर यहाँ के क्लब और स्कूल के दलों के साथ फुटबॉल खेलने आए हैं । वह मुड़ कर हमें देखता है, मैंने नाश्ता कर लिया, बहुत सारा कॉर्नफ़्लेक्स , और शुगर्ड डोनट्स। ये कैसा नाश्ता हुआ, सिर्फ़ ढेरों शक्कर, न फल, न कोई प्रोटीन। ..? डोनट में अंडा होता है और अंडे में प्रोटीन, हँसते हँसते वह पूल में कूद जाता है । तट से दीखती गली के मुहाने पर एक लड़का, शायद ग्यारह -बारह वर्ष का, बढ़वार वाली दुबली - लम्बूतरी देह साइकिल पर साधे, ढीली टाँगों से जल्दी जल्दी पैडल मारता है और सीट पर उठंगा, अपने ही अंतरसंगीत पर झूमता, घुमावदार सड़क पर तैरता चला जाता है। बिना बाँहों वाले घिसे लाल बनियान से उसके हड़ीले कंधे झलक रहे हैं और उसका सर लंबी गर्दन पर बादल सा डोल रहा है। सामने से चला आता लड़कों का एक गुच्छा पुकारता है - रैंडेल , रैंडेल ! लेकिन वह तो अपने भीतर बजती धुन ही सुन पा रहा है। उसके हाथ साइकिल के हैंडल पर ऐसे टिके हैं जैसे डाल पर पंछी और वह अपने मन के गगन में उड़ रहा है। तुम्हारा दोस्त है , हम पूछते हैं ? लड़के हँस पड़ते हैं। मैं लिखती हूँ कि जान पाऊँ क्या घटा, क्या घट रहा है। यदि न लिखूँ , तो कैसे जानूँगी ? जो घटा, सो अचीन्हा, अबूझा रह जाएगा, जीने के कोलाहल में खो जाएगा। 'घटना' भी क्या ही शब्द है। अपने भीतर छीजना समोए हुए है। लिखना उस छीजत को पूरना है, छेद, दरारों से झरते को सहेजना। लिखना निरंतर समेटने, सुधारने , साधने की क्रिया है शायद। मैं इस समय Y के खेल के मैदान के पास एक धातु की बैंच पर बैठ कर लिख रही हूँ। लम्बे आकर्षक मुँह और सुनहरी आँखों वाला एक कुत्ता मेरे पास आ बैठा है और पूँछ से भूमि बुहार रहा है। पास में बादाम के पेड़ों का एक छोटा झुरमुट है। एक वृक्ष की डाल पर एक बड़ा सा ततैयों का छत्ता लटक रहा है , गोलाकार डिब्बे की शक्ल का, उसकी बाहरी सतह पर पत्तियों के आकार के उभार हैं। कुछ ततैये सांझ की सुनहरी धूसर हवा में फिर रहे हैं। मैदान की और से आ रही आवाज़ें साँझ के अपने संगीत - चिड़कुलों , कौवों के स्वर , झिल्लियों की झंकार, हवा के मर्मर शब्द - में घुल रही हैं। मैं कल रात सपने में देखी पेपरमैशे की चिड़िया के बारे में लिखना चाहती हूँ जिसके पुराने हाथीदाँत के रंग के शरीर पर बेलबूटे अंके थे और जो अपना चमकता काला सर उठाए छायाओं-छपी घास पर सुघड़ता से फुदक रही थी … -अनुकृति उपाध्याय अंग्रेज़ी में कई किताबें लिख चुकी अनुकृति उपाध्याय की विनम्र उपस्थिति ने हिंदी जगत को अपने पहले कहानी संग्रह ‘जापानी – सराय’ से चौंका दिया था। मानो मौलिकता का नये विषयों और अनूठी भाषा ने नया वातायन खोला हो। अनुकृति के सरोकार पर्यावरण और सामाजिक जागरुकता को लेकर रहे हैं। अनुकृति की डायरी में भी उसके संकेत मौजूद हैं। |
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