मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
डायरी
|
साक्षात्कार |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
|
बुरका बेगम का यह कहानी उस समय की है, जब भारत में लौह शकट यान, यानी अगिया बैताल या हवागाडी (रेल गाडी) अभी-अभी लोगों के यातायात के साधन के रूप में उपयोग में आया था। रेल गाडी क़े प्रति लोगों में काफी उत्साह था। बलेसरा गांव के निवासी मोहम्मद इम्तियाज अली उस समय लखनऊ के एक नवाब के मुलाजिम हुआ करते थे। बलेसरा में मियां के अब्बाजान व अम्मीजान उनकी बेगम गुलबदन के साथ रहते थे। मियां की खुशनसीबी ही समझिए कि बेगम केवल नाम की ही गुलबदन नहीं थी बल्कि उनके चेहरे का नूर, गदराया बदन, मस्त हथिनी की तरह मंथर चाल उनके नाम को सार्थकता प्रदान करता था। बेगम की झील सी शरबती आंखों में मियां सदैव ही अपने को बेसुध पाते। लखनऊ के काम से जब भी छुटकारा होता, मियां का मन होता कि उडक़र गुलबदन बेगम के पास पहुंच जाऊं। भाग्य से बलेसरा के एक गांव बाद ही जलालपुर रेलवे स्टेशन था। वहां से मात्र तीन स्टेशन बाद यानी चौथा स्टेशन लखनऊ होता था। अतः मियां शाम की गाडी पर बैठ जाते और रात होते ही अपनी मंजिल जलालपुर स्टेशन पहुंच जाते। एक रात मियां को अपने गांव पहुंचते पहुंचते रात के दस बज गए। गांव तो ठहरा बच्चे की आंख जो शाम ढलते ही नींद के आगोश में समा जाता है। मियां इम्तियाज अली का गांव भी सो चुका था। सौभाग्य से चन्द्रमा अपने शुक्ल कला के चढान पर था। चांद की मध्दिम रोशनी में वे अपने घर पहुंचे। इधर बेगम गुलबदन सारे काम निपटाकर बिस्तर पर पडी मन ही मन मियां का इंतजार कर रही थीं। लगभग बीस मिनट पहले अगिया बैताल धडधडाते हुए दूर देश को रवाना हुयी थी। धडधडाहट के साथ रात की नीरव शांति को चीरती उसकी चीख अभी भी बेगम के कानों में ताजा थी। पर बेगम ने अभी तक इस अगिया बैताल को देखा नहीं था। उनकी पडोसन जमीला की ननद शबीना भी लखनऊ की है। उसी से सुनकर जमीला जबतब उससे अगिया बैताल के बारे में बातें करती तो वे मन ही मन जलभुनकर राख हो जाती। आज उसी की बातें मन में एक एक कर आ रही थीं कि - ''अगिया बैताल राक्षस की तरह काला है। एक बार में सैकडों आदमी और उनके सामान को अपने पर बैठाकर चीखता हुया दौड ज़ाता है। वह आग खाता है और पानी पीता है। उसको दौडने के लिए लोहे की सडक़ बनी हुयी है। वह आंधी तूफान की तरह चलता है। वह सांस छोडता है तो काला काला धुंआ आसमान में फैल जाता है। उसको देखो तो साक्षात बैताल लगता है।'' वह सोच रहीं थी कि उनका कैसा भाग्य है कि उनके मियां लखनऊ में ही मुलाजिम हैं और वे ही आज तक अगिया बैताल की सवारी से मरहूम हैं। अगर आज मियां आ गए तो उनकी एक न सुनेंगीं। चाहे जो भी हो इस बार तो अगिया बैताल पर चढक़र लखनऊ जाएंगी ही। हर बार मियां उनको टाल जाते थे। पर आज तो वे हां करवाकर कर ही मानेंगी। वह सोच ही रही थीं कि दरवाजे की कुण्डी खडक़ी। बेगम ने दौडक़र दरवाजा खोला। मियां भी अंधेरे का फायदा उठाकर घुसते ही उन्हें बाहों में जकड लिए। पर उनको एक जोरदार झटका लगा और बेगम उनसे अलग हो गयीं। वे गिरते गिरते बचे। मियां का उत्साहित मन एकाएक आसमान से जमीन पर आ गया। बेगम उनकी तरफ देखे बिना पैर पटकती हुयी अपने कमरे में चली गयीं। इस अचानक नाराज़गी का सबब जानने के लिए मियां जी बेगम के पीछे पीछे भागे। ''आज क्या कारण है कि चांद जबरन बादल की ओट में छिपने को बेताब है? आखिर बात क्या है कि गुस्ताखी बताए बिना ही मुल्जिम को सजा दी जा रही है? मियां जी के सब्र का बांध टूटता जा रहा था। बेगम के कमरे में जाते हुए किसी प्रकार उन्होंने ये शब्द पूरे किए। पर जवाब कुछ नहीं मिला। बेगम एक कोने में चुपचाप बैठ गयीं। खिडक़ी पर रखा दीया अपनी मध्दिम रोशनी में टिमटिमाता रहा। मियां का हृदय अगीया बैताल की तरह धडधडाने लगा। दबे पांव बेगम के पास पहुंचकर बोले, ''मेरी जाने जिगर पहले आप नाराज़गी का कारण तो बताएं। वरना मेरी रूह फना हो जाएगी। अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है। ये देखिए आप के चेहरे के नूर को जहां की काली नजरों से बचाने के लिए क्या ही खुबसूरत काली घटा सा, शीशे और कलाबत्तू के काम वाला बुरका लाया हूं।और एक आप हैं कि कोने में चुपचाप बैठकर मुझे बेजार कर रही हैं।'' गुलबदन बेगम न चाहते हुए भी अपनी चुन्नी की ओट से मियां के हाथ पर निगाह डालीं। मन ही मन खुश हो गयीं, परंतु अगिया बैताल पर चढने की बात मन में आते ही खुशी को मन में दबाकर रह गयीं कुछ भी न बोलीं। मियां परेशान होते रहे। उन्होंने बेगम की नाना प्रकार से आरज़ू-विनती की। पर फल कोई न निकला। रात अंतिम ढलान पर आ गयी। अंत में मियां ने अंतिम चाल चली।
बेगम......।
अगर आपका यही हाल रहा तो मैं सुबह की गाडी से वापस जा रहा हूं। आप अपना
गुस्सा अपने पास रखिए।
ऐसा कहकर मियां
खडे होते हुए अपनी टोपी सम्भालने लगे।
साथ ही साथ कनखियों से बेगम की प्रतिक्रिया भी देखते जा रहे थे। जैसे ही जाने को हुए बेगम ने धीरे से आकर उनका हाथ पकड लिया। मियां तो यही चाहते थे। पर उपरी मन से कहने लगे, छोडिये मुझे। बेगम मन ही मन सोच रही थीं कि कहीं चले गए तो मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी। उन्होंने उन्हें पकड क़र जबरन पलंग पर बैठा दिया। मियां जी का सब्र का बांध तो पहले ही टूट चुका था। उन्होंने आव देखा न ताव गुलबदन बेगम को अपनी बांहों में जकड लिया। बेगम कसमसा उठीं।
'' आपको तो बस
इसी से मतलब है। मेरी तो कोई परवाह ही नहीं है आपको। बेगम पकड ढ़ीली कराने
का प्रयास करती हुये बोलीं। फिर तो दोनों ही कल की यात्रा की तैयारी पर विचार करते हुए आलिंगनबध्द हो गए। कब नींद आयी पता ही नहीं चला। अगले दिन दोनों की नींद देर से खुली। उठते ही उन्होंने बेगम से कहा कि, शाम चार बजे की गाडी है सारी तैयारी पहले ही कर लीजिए। दो दिन लखनऊ में सैर सपाटा करेंगे फिर वापस आ जाएंगे। बेगम के पैर जमीन पर नहीं पड रहे थे। एक थैले में आवश्यक सामान रखकर बेगम शाम होने का इंतजार करने लगीं। आज का दिन उन्हें काफी लम्बा लग रहा था।
'' मैं और
गुलबदन दो दिन के लिए शहर जा रहे हैं। वह घर में पडे पडे बोर होती रहती
है। थोडा मन बहल जाएगा।'' मियां
ने अब्बा व अम्मीजान से बताया। अब्बा ने भी सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी।
मियां खुश
होकर चल दिए।
परंतु अब्बा जान की एक बात उनके मन में घर कर गयी।
रेलगाडी में तो मर्दाना व जनाना अलग अलग डब्बे में बैठते हैं।
जनानेवाले में तो कई बुरकापोश बैठी होंगी।
मैं गुलबदन को कैसे पहचानूंगा।
स्टेशन पर तो गाडी भी रूकती है थोडे ही समय के लिए।
मैं उन्हें बाहर से पुकारूंगा कैसे।
लोग क्या कहेंगे कि बेगम का नाम लेकर पुकारता है शर्म भी नहीं है इसको।
अगर बेगम पर छोड देता हूं तो बुरके के अंदर से वे स्टेशन पहचानेंगी कैसे।
''बेगम....
। बेगम....।
बेगम
मियांजी के पास आकर बैठ गयीं। '' अपने जलालपुर स्टेशन से चौथा स्टेशन लखनऊ होता है। गाडी एक एक कर चारों स्टेशनों पर रूकेगी। आपको चौथे स्टेशन पर उतरना है। मैं इस दस्ती में चार गांठें बांध देता हूं। आपको यही करना है कि जब गाडी रूक़े तो यह समझ लीजिए कि एक स्टेशन आ गया और आप एक गांठ खोल दीजिएगा। इसी प्रकार जब अंतिम गांठ बाकी रहे तो समझ जाइएगा कि अगली बार गाडी लखनऊ स्टेशन पर रूकेगी और चौथी बार गाडी रूक़ने पर उतर जाइएगा। मैं आपके पास आ जाउंगा। और हां उतरने के बाद वहीं खडी रहीएगा। लखनऊ बहुत ही भीड-भाड वाला शहर है। सतर्क रहिएगा।''
बेगम भी
सारी बातें समझने की हामी भर दीं और दस्ती सम्भालकर रख लीं।
अब बेगम और
रोने लगीं कि अब क्या होगा।
मियां से तो वे बिछुड चुकी हैं और मियां का क्या हाल होगा। वे
धाड मारकर रोने लगीं। पर
गांव की औरतों ने उन्हें ढाढस दिलाया और अपने घर ले गयीं।
दूसरे दिन पहली अगिया बैताल से कुछ लडक़े उन्हें उनके घर पर पहुंचाने चल
दिए। "जनाब बलेसरा गांव कौन सा है? "
"जी.....। बस
आगे वाला गांव है।"
- सुधांशु
सिन्हा हेमन्त |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |