मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
डायरी
|
साक्षात्कार |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
|
दूसरा ताजमहल-3
नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है? ''
आपकी तबियत ठीक है?
'' रवि की हल्की हँसी और जवाब ने नयना को संभाल लिया। उसके अन्दर बुझी खुशी फिर जिन्दा हो गय्ी और वह चहकने लगी। बातों में पता नहीं चला कि वह होटल पहुंच गये हैं। ऊपर समन्दर के सामने वाली कुर्सी पर बैठा रवि सिगरेट पीता रहा और वह बातें, फिर रवि ने लम्बी गहरी सांस लेकर खाली चाय की प्याली रखते हुए कहा, '' मुझे आज बंबई से निकलना होगा। अहमदाबाद में होटल बन रहा है, वहाँ कुछ दिक्कत पेश आई है। बहुत अच्छा हुआ हमारी मुलाकात हो गयी। शाम की एक उडान दिल्ली के लिये हैअगर दिल चाहे तो रुको, मैं दो तीन दिन में लौटता हूँ।'' नयना सकपका सी गई। कोई उत्तर नहीं सूझा। दिल पर घूंसा सा लगा। मगर जल्द संभल गई। गहरी नजरों से उसने रवि को देखा। आंखों में छाया सूनापन था। उसने दिल को तसल्ली दी कि वे दोनों जिन्दगी के उस पडाव पर हैं, जहां फर्ज क़ा नम्बर पहले आता है। उसने शाम की उडान से लौटना तय कर लिया। रवि ने उसको बाजार छोडा ताकि वह कुछ शॉपिंग करना चाहे तो कर ले, फिर वह दो घंटे बाद जरूरी काम निबटा कर लौटता है और लंच पर साथ रहेगा। इस बीच वह टिकट भी बदलवाने की कोशिश करता है। नयना को सबकुछ अटपटा लगा। फिर यह सोच कर चुप हो गयी कि यह दो शहर की अपनी संस्कृति का प्रश्न भी है। बम्बई प्रोफेशनल सिटी है, दिल्ली पॉलीटिकल, जहाँ कभी भी प्रोग्राम बदला जा सकता है। लंच पर रवि थोडा खुला। अपने काम के बारे में बताया कि वास्तुविद कला उसका ईमान है। उसे शब्दों से ज्यादा लकीरों पर विश्वास है, जिनसे वह घरों का खाका खींचता है और लोगों को छत मुहैय्या करवाता है। नयना ने रवि के लिये एक शर्ट खरीदी थी जो उसने थैंक्स के साथ ले ली और नयना को हवाई अड्डे छोडने के लिये उठा। जब वह बाय करके चलने लगा तो उसकी आंखों में एक नरमी सी उभरी। यह संदेश नयना को संतोष दे गया। उसे याद आया कि रवि ने कहा था कि मिलना, रहना और जीना क्या होता है, इसको समय से नहीं आंका जा सकता है, कभी कभी पल भर की मुलाकात पूरी जिन्दगी पर भारी होती है। नयना को लगा आखिर रवि भी तो उससे मिलने चंद घंटों के लिये ही तो आया था। अब वह भी दो चार दिन की जगह एक दोपहर एक साथ गुजार कर जा रही है और इसमें बुरा क्या है? आखिर रवि वास्तुविद् है, उसका काम नक्शा बनाना है, अपने नक्शे को साकार रूप में देखने के लिये संयम, धैर्य की आवश्यकता होती ही है। बता तो रहा था कि उसके कई प्रोजेक्ट कई कई वर्षों तक चले हैं। फिर मुझे इतनी व्याकुलता दिखाने की जरूरत नहीं, न ही उसके बर्ताव में अतिरिक्त कुछ पढने की जरूरत है। एक नई तरंग के साथ नयना दिल्ली लौट आई। नौकर जो दो तीन दिन के आराम का प्रोग्राम बनाये बैठे थे, वे हडबडा गये। ठीक दस बजे फोन की घंटी घनघना उठी। अहमदाबाद से रवि का फोन था। नयना हाथ में पकडा कौर प्लेट में रख बेडरूम में आ गयी और बिस्तर पर लेट कर बातों में डूब गई। फोन रखते हुये उसको चुम्बन मिला, नयना के चेहरे पर एक साथ कई चांद चमक उठे। उसने आंखें बन्द कर लीं। सामने एक भरपूर जिन्दगी का नक्शा था, जहाँ वह होगी और रविभूषण। उसने हंस कर आँखे खोलीं और अपने से कहा - '' नयना, जरा धैर्य से काम लो, माना कि तुम्हारा काम सूने कमरों को सजाना है, मगर इतनी जल्दबाजी क़ी क्या जरूरत है, जिन्दगी से भरपूर शरबत का गिलास तुम्हारे हाथ में है। उसको आहिस्ता आहिस्ता करके पियो, एक एक घूंट कर, ताकि तरावट तुम्हारे वजूद में इस तरह फैले, जैसे सूखी धरती पर पानी धीरे धीरे उसकी खुश्की क़ो जज्ब करता है।'' नयना ने रात को एक सपना देखा। एक खूबसूरत घर है, जिसके सामने घास का मैदान है, जिसके चारों तरफ फूलों से भरी क्यारियाँ हैं। एक बडे सायेदार दरख्त के नीचे रवि उसके साथ बैठा है। सामने पडी मेज पर एक नक्शा फैला है जिसको दिखाते हुए रवि कह रहे हैं, नयना, जापान में मेरे इस प्रोजेक्ट को बहुत पसन्द किया गया है। उम्मीद है इस जाडे में इसकी शुरुआत मैं कर दूँ। तुम साथ रहोगी, देखना मेरी लकीरों का कमाल - वह इस तरह बोलेंगी कि उनके सामने शब्द भी फीके पड ज़ाएंगे। ' नहीं रवि जाडे में नहीं हम बसन्त में जाएंगे, जब हर तरफ फूल की मालाएं लिये पेड हमारा स्वागत करेंगे। चमकीला सूरज नीचे आसमान पर चमकेगा। तब हिरोशिमा घूमने में मजा आयेगा, वह शहर बमबारी के बाद दोबारा बसा है जैसे हमारी यह जिन्दगी, जो बिना बमबारी हमको सागर मंथन के द्वारा मिली है! '' नयना हँसती है। उसकी बात सुन रविभूषण ने जोर से ठहाका कहकहा लगाया और गहरी सम्मोहन भरी नजरों से नयना को ताका और सिगरेट मुंह में दबा लाईटर को जलाया, लपकते शोले ने सिगरेट को लाल बिन्दी में बदल दिया। धुंए के छल्लों में घिरी नयना के कान सुनते हैं - '' तुम्हारी आँखे बहुत खूबसूरत हैं। तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिली नयना? मैं इस तरह न भटकता, मैं इस भटकाव में जिन्दगी की जुस्तजू को छोड नहीं पाया हूँ, तो भी नयना तुम मुझे कभी छोडना मतचलना क्षितिज के अंतिम छोर तकमेरे साथ।'' रात का सपना नयना के दिमाग पर छाया रहा, दिल ने कहा कि रवि मैं दुनिया छोड सकती हूँ, मगर तुम्हें नहीं, तुम मेरी श्वासों में बस गये हो, मेरे वजूद में समा चुके हो। तुमसे अलग होने का मतलब है अपने शरीर को दो हिस्सों में बांट देनानहीं नहीं रविमैं अब तुम्हारी हूँ। सिर्फ तुम्हारी। जैसे मीरा कृष्णमय हो गय्ी थी, मैं रविमय हो गई हूँ, मेरी तपस्या हो तुम, मेरी निष्ठा हो तुम, मेरी जिन्दगी की नई शुरुआत हो तुम! कई दिनों से रविभूषण के जुमले रात दिन नयना के कानों में गूंजते थे। उस पर हर पल नशा दर नशा चढाते हुए। काम करते करते वह ठहर जाती, बात करते करते खामोश हो जाती। ''नयना! तुम कैसे उस माहौल में जी लेती हो। आओमैं तुम्हारे इंतजार में यहाँ बैठा हूँ। मुझ पर विश्वास करो। अपनी बडी बडी आंखों से इस रविभूषण को देखो, यह तुम्हारा है। नयना, सिर्फ तुम्हारा है। मैं तुम्हारे सारे दु:खों को मिटा दूंगा। तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम फिर से खिल उठोगी, एक तरोताजा गुलाब की तरह महकी महकी सी।'' रात के लम्बे पहर तक टेलीफोन व्यस्त रहने से बाकि की कॉल रुकी रहतीं। कई बार नरेन्द्र को सुनने को मिला कि मरीज क़ी हालत खराब थी, घर फोन किया मगर बात न हो पाई। बेटों का भी ई मेल मिला तो इसमें भी वही जिक़्र, जिसको पढ क़र नरेन्द्र को कोई विशेष फर्क नहीं पडा। आखिर नयना फोन पर अपने क्लाईन्ट से ही तो बात करती होगी, फिर मेरा तो सैल ऑन रहता ही है। मगर उस दिन न जाने क्यों नरेन्द्र पर क्रोध का दौरा पड ग़या। जब कानपुर से कॉल था। मरीज क़े रिश्तेदार फोन मिलाते मिलाते थक गये थे। सुबह जब फोन मिला, तब तक मरीज बिना दवा की गोली खाये चल बसा यह दवा उसकी जान बचा सकती थी, अगर समय पर मिल गई होती तोवह होश खोकर नयना पर जी भर के बिगडा, यह मरीज उसके कैरियर की सबसे बडी उपलब्धि था। उसका ऑपरेशन कामयाब हुआ था। मेडिकल क्षेत्र में उसके काम को सराहा गया था। अखबारों में उसकी तस्वीरें छपी थीं। बी बी सी ने उसकी एक विशेष भेंटवार्ता प्रसारित की थी। उस कामयाबी का यह अम्जाम? नयना को नरेन्द्र की यह बातें बेहद बुरी लगीं। उसके पास तर्क था कि पूरे अस्पताल में कितने फोन होंगे, उसका अपना सैलुलर था। क्या सारा मेडिकल विभाग एक ही फोन पर टिका है? इस बात को जान कर नयना बुरी तरह भडक़ उठी, जब नरेन्द्र ने बताया कि उसने थकान के कारण सैल बन्द कर दिया था, ताकि पूरी नींद सो सके। दूसरे दिन उसको कहीं लैक्चर देने जाना था। नयना को लगा कि सारी जिन्दगी नरेन्द्र ने अपनी हर लापरवाही का इल्जाम नयना पर थोपा है। उसकी हर गलती को नयना ने हंस कर टाला, मगर कब तक? वह भी इन्सान है, उसको भी प्यार चाहिये, तारीफ चाहिये, धन्यवाद वाले चन्द शब्द, ताकि वह भी जी सके, मगर पूरी जिन्दगी वह इस घर की सलीब पर टंगी हर तरफ से ताने सुनती रही है। जिसकी जरूरत पूरी नहीं हुई उसीने शिकायत दर्ज कर दी, मगर कभी यह नहीं पूछा कि उसकी जरूरत क्या है, उसके मन में कौनसी नाकाम इच्छाएं मचलती रहती हैं? रवि ठीक ही कहता है कि मैं यहां क्यों टिकी हुई हूँ? नयना उस रात बहुत दुखी थी। उसने अपने मन का दुख रवि के सामने नहीं खोला, जब वह कह ही चुका है कि तुम आओ, यह चैम्बर तुम्हारा है। तुम्हारे लिये मैं इतनी रात गये तक यहां रुकता हूँ, ताकि बात कर सकूं, वरनायह सब सोच कर नयना खामोश रही कि फैसला जब उसी को लेना है तो फिर शिकवा क्या, सो रविभूषण की जादुई आवाज में खोई रही, जो कह रहा था। '' नयना, मैंने कितने घर बनाये मगर दुखी होता हूँ, जब उनमें लोगों को खुशी के साथ रहते नहीं देखता हूँ। क्या वे नहीं जानते कि नर नारी एक दूसरे के पूरक होते हैं, फिर काहे कि लडाई? जो सम्बन्ध शाश्वत है, उसमें एक दूसरे को ध्वस्त करने की बेजा हठ क्यों? इन सारी गैरजरूरी बतकही का जवाब कौन देगा? शताब्दियां गुजर गईं हैं, मगर यह जो समस्या नर नारी के बीच आन खडी हुई है, वह आज की तारीख तक सुलझ नहीं पाई है, आखिर क्यों? क्या कर रहे हैं हमारे बुध्दिजीवी, जिन्हें लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी की सम्मानित उपाधि समाज ने दे रखी है, जो शब्दों के जन्मदाता हैं, जो शब्दों से खिलवाड क़रते हैं, मगर क्या उन्होंने इन सम्बन्धों के लिये कोई त्याग किया है? नयना सच मानो किसी ने कुछ नहीं किया है, केवल दिमाग को पालने, मन को मारने के सिवा। मेरा तो अटूट विश्वास है कि इंसान को मन की बात माननी चाहिये। संवेदना से बढ क़र सुन्दर इस संसार में कुछ भी नहीं है और यह शातिर दिमाग जाने कबसे उसको तबाह करने की योजनायें बनाता आया है। कितनी तरह के नियंत्रण, कितनी संख्या में कारागार, अनेक तरह के अत्याचार हुए हैं इस पर, देखो नयना, इतिहास के पन्ने पलट कर देखो। मगर क्या कोई कैद कर पाया है भावना को? क्या वास्तव में किसी ने उसकी हत्या की है? नहींनहीं, बस शोषण के बलबूते पर इंसान एक दूसरे का दोहन कर रहे हैं, नहीं जानते वे मूर्ख कि नर नारी संबध संसार का सबसे सर्वोत्तम संबंध है। काश! कोई इस संबंध को जीने का सही फार्मूला ढूंढ पाता और उसको घर घर बांट सकता। काश!'' रविभूषण की आवाज ग़हरी होते, अंत में आकर भर्रा गई। नयना को लगा कि रवि रो रहे हैं। उसका दिल भी भर आया। बांध से रुके आँसू बेकरार हो गालों पर लुढक़ आये। उसकी सिसकियां सुनकर रविभूषण ने चुम्बन लेना शुरु कर दिया। आवाज द्वारा स्पर्श की यह भूमिका नयना को और भावुक बना गई। सारी जिन्दगी का दुख मोम बन कर पिघलने लगा। जब शमा पिघल कर खामोश हो गयी तो रवि का स्वर फूटा - '' नयना तुम्हारे पास होता तो ये सारे आंसू पी जाता। आंखों में आये पानी को मैं बहुत पवित्र मानता हूँ। उसको संभाल कर रखो। मेरा दरवाजा खुला है, जब चाहो आ जाओ नयना।'' नहाते हुये नयना ने अपने सरापे को निहारा। बदन का हर अंग जैसे उत्सव मनाने की चाहत में सरशार लगा, मन बार बार भटक जाता था। अभी तक रविभूषण ने उसके गालों पर चुम्बनों के फूल नहीं खिलाए थे, मगर इस बार रात को हवा में तैराये गये सारे लाल गुलाब उसके चेहरे पर खिलेंगे। झब वह हमेशा के लिये रवि के साथ होगी। तब वह अनुभव कैसा होगा? उसने पिछले कई वर्षों से किसी का चुम्बन नहीं लिया है, न पति का, न बेटों का। पति के संग उसके सम्बंध अलग तरह से पनपे थे, जिसमें बिस्तर लगभग गायब हो गया था और जिम्मेदारी, परिवार, काम, भविष्य की समस्याओं ने उसकी जगह ले ली थी। वह मर्द के स्पर्श से बेगाना एक बैरागी जीवन व्यतीत कर रही थी, जहां पति को उसके स्पर्श की चाहत जगह मरीजों की चिन्ता ज्यादा सताने लगी थी। यह सब कुछ धीरे धीरे घटा था। मगर आज का यथार्थ यही था कि मधु की बूंद की तरह मीठा प्यार शब्द व्यवहारिक रूप से उसकी धरती छोड चुका था। – आगे पढें |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |