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भूले बिसरे लोग
जेहन में हजारों कैमरे एक साथ चलने लगते - क्लिक क्लिक क्लिक लांग शॉटसेहन, दरीचे, सहनची, सहदरा, दालान, लम्बा सीला हुआ गुसलखाना जहाँ दिन में भी अंधेरा रहता था। ईंटों से चुना हुआ रोशनदान, अलगनी पर टँगे मैले कपडों का ढेर ठंडे सर्द पानी से लबालब भरी देग - संगमरमर की चौकी, घडे, घडौची, झांवे, लौटे, उबटन, बेसनदानी, रीठे आँवले से भीगी लोहे की कढाई, दीमक लगा चुर मुर करता हिलता दरवाज़ा क्लोजअपअम्मा नावन से सर धुलवा रही हैं। उनके लम्बे काले बाल लगन में कुण्डली मारे लहलहा रहे हैं। मिड क्लोजअपबावर्चीखाने में तामचीनी की रकाबी में छह छह रोटी के जोडे लगाए जा रहे हैं प्यालों में आलू गोश्त का कलिया बोटी गिन के डाला जा रहा है हलवाहों के लिये अम्मा सीधा तौल रही हैं, एक सेर चावल, एक सेर आटा, आधा सेर दाल, नमक की डली, लाल मिर्च डाल कर अंगोछे बंध रहे हैं कैमरे ने अब टिल्टिंग शुरु कर दी ऊपर नीचेनीचे ऊपरसारे शॉट इम्पोज सब कुछ आपस में गडमडया अल्लाहसन ने अपना सर थाम लिया। इंसान जिन्दगी की तब्दीलियों का आदी होता चला जाता है वरना मर जाये, हसन ने सोचा। लेकिन उसका शुमार तो न जिन्दों में था न मुर्दों में। वह जब से कंराची आया था चैन की नींद एक रात भी न सो पाया था। शाहाना आरामदेह ख्वाबगाह में दबीज मुलायम मखमली छपरखट पर करवटें बदलते छत से लटके बिल्लोरी फानूस को तकते तकते सुबह हो जाती। शहला अकसर चिढ क़र कह देती,
'' क्या पागलों की तरह रात भर करवटें बदलते रहते होडॉ
को क्यों नहीं दिखाते?'' ऐश व आराम - एयरकंडीशंड गाडियां - महलनुमा बंगला - इज्जत, शोहरत, हसीन और जमील बीवी शहला। भारी भरकम बैंक बैलेन्स, बेहतरीन लिबास खिदमत के लिये नौकरों की पलटन मौजूद लेकिन दिलकमबख्त दिलन जाने क्यों अब भी हिन्दुस्तान के छोटे से गाँव सुलतानपुर में बसा था। खाना खाते वक्त हलक में निवाले अटक जाते। वह बार बार पानी पीता शहला टोकती। अम्मा डांटती थीं, ''ज्यादा पानी न पिया कर भूख मर जाती है।'' झमाझम पानी बरसता...नदी नाले उबल पडते - कच्चे सेहन में घुटनों तक पानी भर जाता। वह कागज़ क़ी नाव बना कर तैराता। भाग में आम के पेड पर नया झूला डाला जाता, बाजी कजरी गाती, महारत में सतरंगी चुनरियां रंगी जातीं। अम्मा बावर्चीखाने से निकला कर बाहर ढप्पर में बैठ कर बेसन भरे परांठे पकातीं, '' भैया आओ...गरम गरम खाये लियो।'' '' सर लंच इज सर्व्ड '' हाथ बांधे सफेद पोशाक में सजे बैरे एहतराम से झुक कर चांदी की काबों में खाना पेश करते, (जायकानामालूम) डायनिंग हाल में सफेद, बेदाग ख़डख़डाते नैपकिन...मेज पर छुरी कांटे जगमगाते (कोई हंसी, कोई कहकहा नहीं) कांटों से खाने के टुकडे पलकों की तरह उठाये जाते, नैपकिन होठों से छूते हुए रख दिये जाते। सुबह वह देर तक पडा सोता रहता, सोता रहता। शहला भी सोती रहती। कुछ दिनों से उसने भी अपना बेडरूम अलग कर लिया था। शहला भी क्यों उसकी वजह से अपनी नींद खराब करे। उसे तो रतजगों की आदत सी हो गई है। गाँव में अम्मा सुबह सुबह कमरे में आती थीं। चुपचाप खडी उसे देखती रहतीं, बन्द आंखों से वह जान लेता कि अम्मा हैं आसपास, एक नर्म सा अहसास, एक खुश्बू चुपके से पैरों की चादर बराबर करतीं, खिडक़ी के परदे ठीक करतीं ताकि धूप अन्दर न आये, पंखे की रफ्तार कम करतीं, दरवाज़ा आहिस्ता से भिडातीं। नौकरानी से कहतीं, '' भैया का कमरा छोड देना...जब उठेगा तो मैं झाडू लगा दूंगी।'' शहला आजिज है। लेकिन स्टेटस जानती है। खुद उसने जानबूझ कर शादी की थी। वह तैयार नहीं था। वह तैयार थी बल्कि दिलोजान से पीछे पडी थी - बेशुमार दौलत....आलातरीन सोसायटी में शामिल होने का शौक...। ''
सबकुछ तो है।''
वह चहकती फिरती। इस घुटन से बचने का एक ही तरीका है, उसने सोचा चलो एक बार हिन्दुस्तान हो ही आएं। बारह साल की उम्र में फूफा उसे ले आये थे। फूफी के कोई औलाद न थी। अब्बा से उसे मांग लाईं। अब्बा के काले कलूटे, सूखे चिमरिख नौ नौ बच्चे, दिन ब दिन बढती पहाड सी मंहगाई वही शक्ल का अच्छा था। अम्मा जार जार रोई पर तेजतर्रार दौलतमंद ननद के आगे चूं न कर पाई। ''
यहाँ उसका कौनसा मुस्तकबिल
बनना है?
हम इसे पढा लिखा कर इंसान बना
देंगे।''
फूफा ने बडे घमण्ड से कहा था।
आसपास हसीन व जमील लडक़ियां मंडराती। '' कूपमंडूक अब बाहर निकलो भाई।'' लोग मज़ाक उडाते। रेशम के कीडे क़ा खोल उस पर इतना सख्त चढा था कि उतरता ही न था। अम्मा के अलावा वह कभी किसी से जुडा ही नहीं। फूफी उम्र भर साथ रही। पर वह दिल से कभी उनका न हो सका। वह अपनी जाहिल, बुरकापोश, नौ बच्चों वाली अम्मा के साथ ही चिपका रहा। फूफी के बाल नये फैशन में कटे रहते। वे खुश्बुओं से महकती रहतीं। चमकीले भडक़ीले लिबास पहनतीं। मेकअप से चमचमाती। उसको कपडों की करीज बचा कर सीने से चिपकाती। ''
मेरा लाल...मेरा बेटा''
सबके सामने कहती।
अकेले में हडक़ातीं - ''
देहाती,
भुच्च मलिच्छा''
वह डरा सहमा रहता।
पार्टियाँ होतीं तो घर के कोने खुतरों में दुबक जाता,
लाख बुलाने पर निकलता।
बात करता तो आवाज हलक में फंस जाती,
कभी ज़ोर से हंसा भी
नहीं। शादी उसकी फूफी ने बडे अरमानों से की। अपनी सारी तमन्नाएं निकाल लीं। शानदार दावतें हुईं। बडे बडे नेता व रईसजादे आए। लाखों मिनटों में बहाया गया। ब्यूटीपार्लर में फूफी ने उसकी रगडाई करायी। मेनीक्योर, पैडिक्योर, मसाज, फैशियल, सोनाबाथ और न जाने क्या क्या लेकिन उसका खुरदरा पन नहीं गया। सेहरे के अन्दर उसकी आंख बार बार भर आती, ''काश! आज अम्मा होतीं काश! आज अम्मा होतीं...काश! अम्मा'' हालांकि बिचारी अम्मा होती तो क्या करतीं? हल्दी लगाती उसे? मुंहजोर, परकटी, नीचे गले का बित्ते भर का ब्लाऊज पहने बहू को देखतीं तो गश खा जातीं। उसके सिर से तो चादर कभी सरकी ही नहीं थी। हसन विजिट वीजा पर हिन्दुस्तान आ गया था। दिल्ली, लखनऊ, सुलतानपुर...फूलपुर खटखटखट...सडक़ पक्की हो गई है। टैक्सी दरवाजे पर लगी...कई आंखे डयौढी से आन लगीं। सबसे उसका परिचय कराया गया। भानजियां, भानजे, भतीजियां, भतीजे, छोटी नई बहुएं, यकायक उसे अजनबियत का अहसास शिद्दत से हुआ। '' आदब बडे अब्बा...सलाम चचा..मामूजान.. तस्लीम...बडे भैया सलाम... सलाम... वालैकुम।'' उसे रोना आने लगा। उसको उसके नाम से पुकारने वाला क्या कोई नहीं बचा? हसन..हस्सू..हसनवा...हसुवा कहने वाला? मुंह धोने वह गुसलखाने में घुसा। सीले से गुसलखाने में अब अंधेरा नहीं रहा था। चुना हुआ रोशनदान खोल दिया गया था। दो गोरैया वहां बैठी तोता मैना की कहानी सुना रहीं थीं। अलगनी पर मैले कपडे नहीं टंगे थे। देग गायब थी। नल की टोंटी मुंह चिढा रही थी। रीठे आंवले गायब, शैम्पू की लम्बी बोतल सामने खडी थी। फिनायल की तेज महक दिमाग में घुसी जा रही थी। संगमरमर की चौकी जगह जगह से दरक गई थी। अम्मा...अम्मा...अम्मा उसका जी चाहा खूब जोर जोर से चिल्लाया। गुसलखाने से निकला। सहनची में मेज पर बोनचायना की नई प्लेटों में नाश्ता सजा था। '' कोई तामचीनी की रिकाबी बची हो तो?'' पास खडी भतीजी फक से हंस पडी। बहुत ढूंढ ढांढ कर एक सफेद धारी वाली हरी रिकाबी उसके सामने रख दी गई। उसमें एक स्याह सुराख साफ नजर आ रहा था। वह रोटी नहीं रिकाबी खा रहा थी। कांटे चम्मच मेज पर रखे वह हाथ से खाता रहा। शहला देख ले उसे इस तरह खाते तो'' उफ! जानवर से बदतर'' कहेगी वह हंसा। सबने ताज्जुब से एक दूसरे को देखा। बडे शौक से उसने बीते दिनों की बात की। लेकिन बातें जल्द ही खत्म हो गईं। उसे कुछ मायूसी हुई। बातचीत का कोई विषय नहीं मिल रहा था। रात सबकी चारपाईयां बडे से आंगन में बिछ गईं। उसका पलंग एकदम कोने में डाल दिया गया। उसे बार बार अहसास होने लगा कि वह बेकार आया। जो खुलूस मोहब्बत लेने वह आया था वह कहीं नहीं थी। शायद यह बदलाव कुदरती था। वह खुद बदल गया था शायद। फासला और वक्त इन्सान को किस तरह बदल देते हैं। दूधिया चांदनी चिटकी थी। उसे हल्की सी नींद आ गई। दूर की चारपाई से एक आवाज टन से उसके कानों में टकराई - ''
कोने चक्कर में आये हैं कुछ
बताईन?'' वह रात भर खुले आसमान में तारे गिनता रहा। आसमान व जमीन के बीच भयानक स्याह शून्य जिसमें वह छोटा सा लडक़ा भटक रहा था खो गया था। सुबह का तारा जाने लगा तो वह उठ बैठा। बाग का चक्कर लगा आया। सारे पुराने पेड सूख चुके थे। नाश्ते की मेज पर उसने कहा ''
कल्लू से कहना टैक्सी ले आये'' हालांकि उसे मालूम था शहला उसकी गैरहाजरी खूब एंजॉय कर रही होगी। '' अम्मा मैं कहाँ सुकून पाऊं?'' अम्मा की टूटी खस्ताहाल कब्र पर फातिहा पढते हुए उसने पूछा। कब्रिस्तान की बेतरतीब घास हंसने लगी - अम्मा, अब्बा, बाबा, चाचा, दादी की कब्रों पर धूल के बगूले नाचने लगे। – गज़ल जैग़म
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