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मेंढकी रात के वक्त मेंढकों जैसी टर्राने की आवाजे भी खूब आने लगी थीं। हालांकि यह बात बिलकुल स्पष्ट थी कि यह टर्राने जैसी आवाजें मेंढकों की ही हैं लेकिन इससे एक भयावह सी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। अम्मा डरी सहमी सी बोली थी, '' यहाँ सांपों का डेरा है।'' '' क्या मतलब? '' '' सुनाई नहीं दे रहा क्या? ये जो मेंढक इतना ज्यादा टर्रा रहे हैं, सांप उनको दबोचे हुए हैं।'' पहले तो लगा, अम्मा यों ही कहे जा रही हैं। हम एक दूसरे की ओर देख कर खिसिया भी दिये थे। लेकिन जब अगली सुबह ही देव भैया की नजर बगीचे बगीचे के गमले के पीछे लिपटे सांस पर पड ग़ई तो वे दौडे दौडे भीतर आये, '' अरे! बाहर सांप है।'' सांप के नाम से एक बार तो सभी के चेहरे पीले पड ग़ये। जैसे तैसे सभी बाहर की ओर भागे थे। बाहर पहुंचने तक किसी के हाथ में लाठी थी तो किसी के हाथ में ईंट या पत्थर। लेकिन बाहर पहुंचने तक सांप तो जाने कहाँ लुप्त हो गया था। देव भैया बार बार एक ही रट लगाये थे, '' अरे! अभी तो यहीं था!'' '' तो जमीन खा गयी क्या?'' कुसुम भाभी बोली। ''हाँ बहू, जमीन ही खा गई होगी।'' अम्मा पास आती हुई बोली, '' तुझे नहीं पता कि सांप कहीं भी अपनी जगह बना लेता है। और फिर सांप को मारकर अपने सर पाप लोगे क्या? अम्मा की बात के बावजूद सभी देर तक इधर उधर नजर दौडाते रह गये थे। हम सब के भीतर एक दहशत सी भर आयी थी। '' सांप यहाँ आया जरूर होगा!'' अम्मा जरा रुक कर बोलीं, '' देखो तो यहाँ मेंढकों का कैसा हूजूम लगा है। इन्हें ही खाने आया होगा।'' हम और अम्मा देर तक उन मेंढकों के हूजूम को देखते रहे। अम्मा कह रही थी, '' देखा मुए रात भर कैसे टर्राते हैं। अब आवाज ईनके गले की बजाय इनके पेट में चली गई है।'' अम्मा की इस बात पर हम सभी हंस दिये थे। सच में, मेंढकों का मुंह बार बार खुलता और बन्द हो जाता लेकिन आवाज तो नदारद होती। मुंह खुलने और बन्द होने के साथ साथ उनके पेट कभी फूलते, कभी सिकुड ज़ाते। बाऊजी, इन दिनों काकी के पास गांव गये हुए थे। कह कर तो गये थे कि बरसातें शुरू होने से पहले आ जायेंगे। लेकिन डेढ महीना होने को आया है, न चिट्ठी न खबर! रात तो अम्मा बिलख ही पडी, अरे, तुम लोगों को तो कोई खबर ही नहीं। बूढा बाप घर से बाहर निकला है, कोई खोज खबर तो ली होती।'' '' आय - हाय! कह तो ऐसे रही हो कि जैसे पहले बुङ्ढा घर से कभी निकला ही न हो।'' कुसुम भाभी ने हाथ नचा दिये ''पहले भी तो चार रोज क़ह कर जाता था और चार पांच महीने लगा कर लौटता था। तब तो तुमने कभी भी एक आंसू नहीं बहाया। आज गंगा जमुना क्यों बहा रही हो? चंद रोज वह अपनी मां के पास क्या लगा लेता है, तुम्हारे कलेजे पर छुरियां चलने लगती हैं। फिर अभी तो छोरा ब्याह कर गया है, थोडा आराम कर लेने दे उसे।'' '' तभी तो कह रही हूँ, नई बहू आई है, वह क्या सोचेगी।'' '' उसने क्या सोचना! वह तो तब सोचती जब उसका आदमी कहीं गया होता। इस बुङ्ढे - खुसट से उसे क्या लेना।'' '' चुप रह मेंढकी कहीं की। टर्र टर्र किये जा रही है। तेरी जबान खुलती है तो बन्द ही नहीं होती।'' अम्मा का चेहरा रोष से लाल हो आया था। यह झमेला यहीं रुकने वाला नहीं था अगर करमांवाली अन्दर न आ गयी होती। बगल में दबायी गठरी को उसने नीचे रखा और अम्मा के सामने पसरती हुई बोली, '' आज हंदा लेकर ही जाऊंगी। कल भी तूने टरका दिया था।'' अम्मा कुछ नहीं बोली। बस शून्य में ताकती रह गई थी। '' कहाँ खोयी हो अम्मा? जवाब तो दो! '' '' क्या जवाब दूँ! मेरे तो करम ही फूट गये।'' अम्मा ने आंखों को दुपट्टे से दबा लिया था। '' क्या हुआ?'' करमांवाली ने अम्मा के कंधे पर हाथ रख दिया। अम्मा ने आंखें पौंछी, नाक सुडक़ी फिर करमांवाली की ओर मुडी,'' ज़ब से इस घर में आयी हूँ, एक दिन भी सुख नहीं पाया '' ऐसा क्या रहा इस घर में?'' ''ब्याह कर आई थी तो सासों ने निचोडा था। अब ये बहुएं नोचने पर लगी हैं।'' करमांवाली खुल कर हंस दी, '' तू तो ऐसे कह रही है जैसे एक नहीं कई सासें हैं तेरी।'' '' वही तो बताने जा रही थी।'' '' क्या?'' '' जब ब्याह कर आई मैं, तब एक नहीं दो सासें थीं मेरी।'' '' दो सासें थीं!'' करमांवाली फटी आंखों से अम्मां के चेहरे की ओर देखने लगी, '' तूने बताया नहीं कभी अम्मा! '' '' मेरी सास तो थी ही, उपर से उसकी सास भी जिन्दा थी।'' '' हाय राम! कैसे कटी फिर?'' '' मरती खपती रहती थी। कभी एक की सुनो, कभी दूसरे की।'' '' बुङ्ढी का गला दबा देती।'' '' बुङ्ढी तो टर्र टर्र करती रहती थी सारा दिन।'' '' क्या मतलब?'' ''यही तो मैं नहीं समझ पाती थी। हाथ पांव जवाब दे गये थे उसके। लेकिन सांस छोडने की कसम खा ली थी जैसे।'' '' तब?'' '' मैं तो नई नई ब्याह कर आई थी। मेरी मां ने एक ही पाठ पढाया था मुझे। कोई कुछ भी कहे जबान न खोलियो। बस उसी एक पाठ ने तबाह कर दिया मुझे।'' '' कुछ अनहोनी हो गई क्या?'' अम्मा ने चारों ओर नजर दौडाई, फिर करमांवाली के और पास सट गई, '' मेरी सास को दहेज का बहुत लालच था।'' '' तू लाई भी तो बहुत कुछ थी, तूने ही तो बताया था।'' करमांवाली बीच में बोली। '' वही तो बताने जा रही हूँ। मुई का तब भी पेट नहीं भरता था।'' '' फिर क्या किया तूने?'' '' बस लाती चली गई। लेकिन एक दिन मेरा माथा ठनका! '' अम्मा ने माथे पर दो हत्थड मारे '' मैं ने तो साफ साफ कह दिया, अबके ज्यादा मुंह खोलेगी तो मुंह में मक्खी पडेग़ी।'' '' हाय राम! तूने कह दिया?'' करमांवाली कान छूती हुई बोली। '' हाँ, कह तो गई, लेकिन बाद में बहुत छिताई हुई थी मेरी। आज भी याद करती हूँ तो कलेजा मुंह को आने लगता है।'' अम्मा की आंखों से सच में आंसू टपकने लगे थे। करमांवाली हैरान हो आई थी। अम्मा का इतना कोमल रूप तो करमांवाली आज पहली बार देख रही थी। अम्मा का कंधा छुती बोली, '' अब काहे को आंसू टपकाती है। जुबान तो खोल बैठी थी लेकिन नरक तो कटा।'' '' नरक कहाँ कटा। मुई ने मुझे तंग करने का एक और रास्ता निकाल लिया।'' '' एक और रास्ता निकाल लिया? '' करमांवाली आश्चर्य से भरी अम्मा की ओर देखती बोली, '' वो क्या भला?'' '' मेंढकी को मोहरा बना लिया।'' करमांवाली कुछ भी नहीं समझ पाई बोली, '' तू अब पहेलियां क्यों बुझाने लगी है? अम्मा मैं अनपढ ग़ंवार पहेलियों को क्या समझ पाऊं भला!'' '' बुङ्ढी तो बिलकुल सठिया गई थी। मेरी सास उसे मेरे लिये भडक़ा देती। उसे मोहरा बना कर श्याम के बाऊजी से मेरे लिये कुछ न कुछ कहती।'' '' तू तो कह रही थी बुङ्ढी को लकवा मार गया था।'' '' वही तो! बस मेंढकी की तरह होंठ ऊपर नीचे करती रहती थी। उसकी भाषा तो जैसे बस मेरी सास ही समझ पाती। बुङ्ढी एक बार मुंह खोलती तो मेरी सास उसके चार शब्द निकालती।'' अम्मा पल भर को रुकी, फिर करमांवाली के और पास सटती हुई बोली, '' मैं ने उस रोज एक बात और जानी करमांवाली, झूठ को भी अगर बार बार दोहराओ तो वह भी सच लगने लगता है। श्याम का बाऊ तो पूरी तरह से मां की बातों में आ गया था। बस तभी से मैं ने भी ठान ली थी कि श्याम के बाऊ को गांव से निकाल कर दम लूंगी।'' '' और तू गांव से निकाल लायी।'' खरमांवाली ने उचकते हुए गठरी उठायी और होंठ फैलाती बोली, '' अम्मा, तेरी महाभारत सुनने के चक्कर में मेरे आज सारे घर छूट गये। अब तू जल्दी से कुछ रोटी दाल दे तो मैं चलूं। छालते चलते जे जरूर बता दे अम्मा, तेरा पिंड से पिंड कैसे छूटा?'' '' अरी तभी छूटा, जब मेंढकी के प्राण निकले।'' करमांवाली ठहाका लगाती बाहर निकली थी। करमांवाली हंसे और सारे घर को न सुनाई पडे? दोनों बहुएं बाहर निकल आईं। बडी तो पटाक से बोली भी, '' अम्मा ऐसा क्या दिया करमांवाली से जो इतनी फुलझडियां छूट रही थीं उसकी। कभी हमारे लिये भी हंसी के दो बोल छोड दिया करो।'' '' तुम्हारे लिये जहर उगलती हूँ क्या?'' '' कोशिश तो पूरी रहती है। पर बस नहीं चलता।'' मंझली खिसियाई और झट से अपने कमरे की ओर पलट गई। अम्मा को गहरा सदमा पहुंचा। सोचने लगी कि श्याम का बाऊ यहां होता तो उसके सामने फूट कर रो लेती। आज उसकी घर में यह बिसात रह गई है। अम्मा की मुट्ठियां भिंचने लगीं। लेकिन उसकी सुनेगा कौन? पूत भी तो कपूत हो रहे हैं। बीवियों की उंगलियों पर नाच रहे हैं। रात भर अम्मा सो नहीं पाई थी। करवट पर करवट बदलती रही। इधर बहुएं दुश्मन बन रही, उधर गांव में सास ने उसके आदमी को पकड लिया है। बुङ्ढी उसके आदमी को जाने क्या क्या पट्टी पढा रही होगी जो दो महीने से वह नहीं आ रहा है। अम्मा सब समझती है। कब अम्मा की आंख लगी, उसे नहीं पता। रात भर सपने में श्याम के बाऊ से झगडा करती रही। सुबह आंख भी तब खुली जब किवाड क़ोई पीटे जा रहा था। ये बहुएं कमबख्त दरवाजा कहां खोलेंगी! इनके लिये तो सूरज निकला न निकला, एक बराबर। अम्मा में दौडने की ताकत नहीं है लेकिन वह लगभग दौडती हुई दरवाजा खोलने गयी। खोलते ही अम्मा अवाक! सामने श्याम का बाऊ खडा था। साथ में काकी भी थी। काकी का बुढापा देख अम्मा हैरान थी। यह तो बिलकुल बुङ्ढी मेंढकी जैसी लगने लगी है। दिमाग खराब हो गया है श्याम के बाऊ का जो इस हालत में इसे साथ ले आया है। अम्मा बुरी तरह से कुढ ग़ई। बुङ्ढी यहां भी आ गई। मुई उसकी जवानी को तो खा गई, अब उसका बुढापा भी निगलेगी। अम्मा ने काकी के पांव भी छुए, होंठों पर नकली हंसी भी ओढी, लेकिन कलेजे पर छुरियां चलने लगी थीं। सहसा बडी बहू चीखी अपने कमरे से, '' ये सुबह सवेरे दरवाजे कौन तोड रहा था?'' अम्मा ने सुना, श्याम के बाऊ ने भी सुना होगा। काकी ने भी सुना होगा। पल भर में अम्मा के सीने पर छुरियां चलनी बन्द हो गईं। अम्मा मन ही मन मुस्कुराई और अपने से ही बोली, '' अब इसे मेंढकी बनाऊंगी मैं। देखती हूँ ये नई नवेलियां कैसे बोलती हैं मेरे आगे।''
श्याम का बाऊ
काकी को कंधे का सहारा देकर अन्दर लाने लगा।
अम्मा ने लपक कर
काकी का हाथ थाम लिया।
श्याम के बाऊ की ओर पलटती हुई बोली,
'' आप अन्दर चलो जी! मैं काकी को लेकर आ रही
हूँ
न!
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विकेश निझावन |
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