मुखपृष्ठ |
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
साक्षात्कार
|
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
जब मैं
स्कूल में पढती थी तो हिन्दी की जितनी क्लासें होती थीं,
मुझे बेहद अच्छी लगतीं-
प्रसाद, महादेवी, पंत,
निराला, भगवती चरण वर्मा की
कविता हम दीवानों की क्या हस्ती है, आज यहां कल
वहां चले, मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उडाते कहां चले।
पढ क़र हम विभोर हो उठते।
अंग्रेजी की कविताओं के नाम से मुझे बुखार हो जाता पहले तो
अंग्रेजी के शब्द ही समझ नहीं आये,
शब्दकोष उलटने में ही घण्टों बीत
जायें और उसके बाद किसी तरह शब्द समझ लें तो भाव को समझने में माथा पच्ची।
सर लैन्सलाट की घुडसवारी तो समझ आती थी कि एक शूरवीर योध्दा
बढा चला जा रहा है कि गुंबद में कैद लेडी शार्लोट कपडे बुन रही है।
पर देखने में लेडी शार्लोट कैसी होगी?
मैं कल्पना करने लगती।
क्या देवी दुर्गा की तरह,
रानी पद्मावती की तरह नरगिस या
मीना कुमारी की तरह।
बचपन में मैं ने जिन अंग्रेज महिलाओं को देखा था उनमें तो
मुझे एक भी सुन्दर नहीं लगी थी।ब्रिजेट
बार्दो,
सोफिया लॉरेन कोई नहीं निर्लज्ज
कहीं की।
होंठ लाल किये रहती हैं।
उन्हीं की तरह तो हमारे मोहल्ले वाली पैम क्रेन थी,
ट्रिंकास में रोज शाम को नाचती हुई,
चाचा चा - चा
।
और
फिर वर्डसवर्थ,
शेली,
कीट्स की कविताओं में अब पता नहीं किन किन फूलों का वर्णन
रहता।
पीले डैफोडिल्स।
बेला बहनजी से पूछा था।
पर डैफोडिल्स तो यहां होते ही नहीं।
उसके बदले निराला की जूही की कली कितनी अपनी लगती थी।
एक बार मैं ने पूछ ही लिया था,
'' क्यों नहीं हम डैफोडिल्स के
बदले रजनीगंधा की कल्पना करें।''
बेला बहनजी नराज हो गई थीं।
तुम कब समझोगी वर्डसवर्थ के विदेशी मानस को।' नहीं
कभी नहीं समझ पाई।
आज भी मेरी दुनिया संतरे की भांति कई भागों में बंटी हुई है।
उन दिनों स्वाधीन भारत के स्वतन्त्रता बोध से हम आकंठ डूबे
हुए थे।
शेक्सपियर नाटक और प्रसाद के नाटकों में मैं किसे श्रेष्ठ
मानूं?
वेस्टिडिमाना और तिष्यरक्षिता में कौन ज्यादा सेक्सी थी?
मैं ने अपनी डायरी में लिखा था
जो श्रेष्ठ हो जरूरी नहीं कि हृदय के करीब हो।
प्रसाद मेरे भारतीय हृदय के करीब हैं और इन बातों को बडे
फ़ख्र से कॉलेज में मैं ने अपने अंग्रेजी के प्राद्यापक तारकबाबू के सामने
दोहराया।
पर मेरे शिक्षक अंग्रेजियत के गुलाम थे
''
क्या प्रभा, शेक्सपियर की
तुलना भी तुमने किससे की।
प्रसाद से?
रवीन्द्रनाथ से करती तब भी मैं
कुछ विचार करता।
समझी लडक़ी थोडा और गहराई से सोचो।
उस दिन मैं समझ नहीं पाई थी।
मैं ने फिर कहा,
' सर क्या प्रिय और श्रेष्ठ में फर्क नहीं होता?
मैं हिन्दी स्कूल से आई
हूं।
मैं ने
प्रसाद को पढा है।
वे मुझे प्रिय हैं। मैं ने
अपनी डायरी में उस दिन लिखा,
मेरा जन्म 1942 में हुआ,
पराधीन भारत में,
मुझे पढाने वाले शिक्षक औपनिवेशिक पूर्वाग्रह का शिकार हैं।
उनके दो चेहरे हैं।
द्वैत में बंटा हुआ इनका मानस है।
स्वतन्त्रता से पहले और स्वतन्त्रता के बाद
,
नवजागरण की पहल अंग्रेजी सरकार ने की थी, उसकी
लहर बंगाल से उठी थी और अंग्रेजी से अच्छी तरह परिचित हो,
हमें पढाने वाले प्रोफेसर तारकनाथ
आक्सफोर्ड के छात्र थे।
पर उस औपनिवेशिक मानसिकता से मुझे उबरना होगा,
उसके विकल्प में मुझे मेरी
भारतीय पहचान दिन पर दिन और स्थापित करनी होगी।
गांधीजी को मालूम था कि असली दुश्मन कौन है,
उनके स्वदेशी आन्दोलन के सामने
कोई ठहर नहीं पायेगा।
पर आज तो मैं द्वैत में नहीं सोच रही,
हम भारतीय और वे पश्चिमी ऐसा
नहीं मेरी अपनी पहचान पूरे भूमंडल पर चिंदियों में बिखरी है।
किसी स्थायी केन्द्र के अभाव में हम सब लोग समन्दर में
डुबकियां लगा रहे हैं।
आज बाटा का द बेस्ट इंडियन जूता के विज्ञापन की जगह
प्लैनेट रिबॉक के गीत गाये जाते हैं।
अंतराष्ट्रीय स्तर की बात की जाती है।
विली वास्कोविच कहता है,
एक दुनिया,
एक कंपनी हम कितने करीब हैं।
कितने पास।
पर क्या सच में हम एक हैं?
ग्यारह सितम्बर को जो घटा वह
हमारी अन्तर्राष्ट्रीय एकता का इम्तहान तो नहीं था।
फिर गुजरात का भूकंप,
गोधराकांड,
स्वामीनारायण मंदिर पर आतंकी हमला। खैर
छोडिये इन बातों पर वक्त जाया करके क्या होगा?
हो सकता है कि एक नये तरह का
भूमण्डलीय आदमी जन्म ले जो सारी भिन्नताओं को स्वीकार कर चले।
जिसके जीवन में विलयन हो उलझन नहीं।
जो श्रीकृष्ण के विराटत्व के प्रतीक स्वरूप,
एक ही साथ कई कई संस्कृतियों को
समेटने का प्रयास करता हो।कल्याणी
की बडी बहन ललिता की नतिनी के नामकरण उत्सव पर मैं निमंत्रित थी।
उसका नाम रखा गया डोका,
बडी वाली बहन का नाम था मीका। यह
भूमंडलीय मानुष शायद अपने जन्म स्थान पर कभी रहे ही नहीं।
मि गुरुमूर्ति का कहाना है कि उनके पास हवाईउडानों की इतनी
अधिक माइलेज है कि रिटायर होने के बाद बिना पैसा खर्च किये घूम सकते हैं।
वे चाहें तो हर शनिवार - रविवार को चैन्नई आ सकते हैं।
पुराने प्रश्नों के हमें उत्तर नहीं देने हैं।
बल्कि ये तो नये नये प्रस्न उठ खडे हुए हैं जिनका हमारे पास
समाधान नहीं है।भूमंडलीय
आदमी की कर्तव्य परायणता अपने गांव,
अपने शहर अपने लोगों के प्रति कहां से पैदा होगी,
क्या जनम लेने से लगाव पैदा हो जाता है?
क्या पासपोर्ट में भारतीय लिखा हो तो आप
भारतीय हो गये।
मिस्टर गुरुमूर्ति ने पूछा। बाहर
बिजली चमकती है भीतर कुछ कौंधता है,
हां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में
हम जब चाहें अपना पुराना केंचुल उतार फेंक सकते हैं।
चेहरा इस चेहरे को भी आप बदल सकते हैं पोसाक,
चश्मा, मेकअप बालों के
स्टायल और किसी भी स्थायी लगाव से, उस परंपरा से
जो स्थायी घर, देशज भाषा
और संस्कृति सबसे परहेज रख सकते हैं।
एक ऐसा उपन्यास लिखा जाना चाहिये जिसके पात्रों को नाइट
मेयर ऑफ डिसओरियेन्टेसन एण्ड डिसकनेक्शन हो।
समाज में वे कहां किस वर्ग किस जाति के हैं कोई नहीं बता
सके।
स्वजन,
परिजनों की कोई स्मृति उसके पास
न हो।
किसी भी स्थानीय
आदत
को वह न अपनाये। बडे
ख़ुले और आत्मीय स्तर पर मिसेज लिन पा मुझसे |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |