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मासूम
''तुमने
कुछ नहीं किया
''तो
क्यों निकालता टीचर ?
''मैं
पागल हूं
''नईं
सर
''तो
निकलो
गर्मियों की छुट्टियों के बाद
आज पूरे दो महीने और दो दिन बाद जब स्कूल खुला तो सबसे पहले वही मिला।मैं कार
से निकल रहा था और वह वहीं स्कूल बस से उतरा।आंखें मिली।उसने मुस्कान
फेंकी।मुझे कोफ्त-सी हुई और मैंने मन ही मन कहा कि पहले ही दिन
, सबसे पहले तुम्हारी ही
सूरत देखने को किस्मत में थी। सोचा
, कि इतने के बाद वह मेन
गेट की ओर बढ़ लेगा लेकिन उधर बढ़ने के बदले वह मेरी ओर बढा।हाथ मिलाया और पूछा
, '' टीचर
''या
जवान बेटा विज़िट पर
आया।एयरपोर्ट पर उसे इमिग्रेशन से बाहर निकलते देखकर ही लगा कि कुछ गड़बड़
है।इतना खराब स्वास्थ्य।सिर्फ दस महीने ही तो वह हमसे दूर लखनऊ में रहा है।
फिर
सोचा कि ऐसा तो नवजवान लड़कों के
साथ होता ही है।मगर हालत खराब थी और
, और खराब होती गई ।
हालत इतनी बिगड़ गई कि जो लड़का दवा की गोली और सूई के नाम से डरता था
, उसने एक बजे रात को
कहा, ''पापा
कई टेस्ट हुए और पता चला कि उसे
खतरनाक स्थिति तक पहुंची हुई जांडिस है।मेरा दिल कांपता रहा।पूरे बावन दिन वह
बिस्तर पर रहा।इस दौरान सभी जानने-पहचानने वाले उसका हाल-चाल लेते रहे।देखने
आते रहे।बेटे की देखभाल के लिए एक दिन मैं तो दो दिन पत्नी छुट्टी लेती
रही।छुट्टी के बाद वापस आने पर और कोई पूछता न पूछता पर फलेबियन ज़रूर पूछता
, ''टीचर
, तुमारा बेटा कैसा है
मैं कहीं नहीं जा सका।बेटे की
देखभाल में ही मैं और पत्नी लगे रहे।स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर सुधार तो हो
रहा था मगर प्रगति की गति बहुत धीमी थी।मूली,
सलाद,
कच्चे नारियल का पानी
,मौसमी का रस,
गन्ने का जूस,
खीरा,
तरबूज और अनार का
रस।कमरा पूरा फलों की
मण्डी बना हुआ था।इसके अलावा
पाकिस्तानी हक़ीम साहब की दवा भी पीनी होती जो सुबह तीन लीटर पानी में बनाई
जाती।यह दवा मेरे शुभचिन्तक खुर्शीद भाई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर से हक़ीम साहब से
लाते थे।नॉन वेज खाने का शौकीन लड़का किसी तरह बमुश्किल क्वॉपरेट कर रहा था
खैर,
वक्त गुज़रा।स्वास्थ्य
में सुधार होना शुरू हुआ और जो बीस-पचीस पाउण्ड वज़न कम हुआ था वह धीरे-धीरे
बढ़ना शुरू हुआ।स्कूल खुलने को आ गया।उसका वीज़ा भी खत्म होने को आ रहा था।उसके
वापस लखनऊ
जाने की तैयारियां शुरू हो गई
थीं।तैयारियों में हिदायतें ही सबसे ज्य़ादा होतीं।ऐसे रहना।ये खाना।ये मत
खाना।बाहर कहीं पानी मत पीना।फिलटर ले जा रहे हो तो सबसे पहले इसे
लगवाना।ज़ाहिर है कि बेटा खीझता और बोलता,
''आया था कि जिंजर चिकेन
उसने मुझे हतप्रभ तो किया ही है
, साथ ही इस दशा में भी
छोड़ा है कि मेरा चेहरा सपाट हो गया है।याद है कि
प्राय:
मैं उसपर चीखता ही रहा हूं।क्योंकि इस तरह हतप्रभ छोड़ जाने के मौके तो उसने
बहुत कम दिए हैं
उसका चेहरा आंखों के आगे
है।आंखों में बस गया है।वह मेरे दिल के किसी कोने में शायद पहले से ही घुसा
हुआ है।घुसपैठिया।शायद उसने अतिक्रमण किया है।ठीक वैसे ही जैसे लोग ज़मीनों पर
अनधिकृत कब्ज़ा कर लेते हैं।मगर किस बल से
? लड़ाई हमेशा शस्त्र-बल
से ही तो नहीं जीती जाती।क्या यह पुत्रात् शिष्यात् पराजयम् की भावना है
या मेरा व्यक्तिगत स्वार्थ ?
उसने मुझे इस हाल में भी
नहीं छोड़ा कि मैं किसी को बताऊं कि देखो यार,
यह बारह-तेरह साल का
लड़का
सेक्शन एफ।कक्षा सात।तीस
लड़के।सभी नए।सेण्ट जोसेफ स्कूल से आए।टाइम टेबल के हिसाब से मेरे हिस्से आया
सेक्शन एफ।पहला दिन।मैं क्लॉस में घुसा।सभी लड़के खड़े हुए और एक स्वर में बोले,
''नमस्ते शिक्षिकाजी
''हां टीचर ...'' उसने कहा तो ज़रूर मगर टहलता रहा।मेरा ध्यान उसके पूछे सवाल पर आ गया था.
उस दिन स्कूल से छुट्टी के बाद
मैंने अपने डॉक्टर से ब्लडप्रेशर चेक कराया और उसी शाम से एक टैबलेट टेनॉरमिन
शुरू हो गई।बी.पी.
हाई था ...अगले
दिन फ्लेबियन फिर मेरे सामने, ''चेक
कराया ?'' दिनों को गुज़रना होता है।वार्षिक परीक्षाएं हो गईं।फ्लेबियन पास होकर आठवीं में आ गया।इस कक्षा में भी उसका सेक्शन मुझे ही मिलना था।मिला ...
एक दिन इण्टरवल में स्टैडियम की
सीढ़ियों पर अकेले बैठा बच्चों को खेलते देख रहा था।उंगलियों में सिगरेट
थी।मैंने देखा कि फ्लेबियन अपनी ही चाल से चलता हुआ आ रहा है , ''टीचर
, तुम बिमार है
....?''
''सिगरेट नईं फेकेंगा तो मरेगा तुम.. क़ैसा टीचर है ..सिगरेट पीता है ...'' अस्फुट शब्दों में अंट-शंट बोलते हुए वह कैंटीन की ओर बढ़ गया।मैं सोचने लगा कि यह लड़का किस जन्म की दुश्मनी निकाल रहा है।क्यों इतना करीब आ रहा है। पिछले दो दिनों से गला खराब होने के कारण मैं क्लॉस में कम बोल रहा था।सभी कक्षाओं में बच्चों ने यह बात नोट की होगी लेकिन पास तक आकर पूछने और सलाह देने की हिम्मत कहूं ,या अपनाइयत , फ्लेबियन ने ही दिखाई।उसका चेहरा फिर चिपक गया और अपनी मुस्कान के साथ स्थिर हो गया।मगर इस मुस्कान में चिन्ता थी।अपने अध्यापक के स्वास्थ्य की चिन्ता।इस लड़के को न जाने कितनी बार तमाचे लगा चुका हूं ।न जाने कितनी बार क्लॉस से बाहर निकाला है।न जाने कितनी बार हेड-मॉस्टर से इसकी शिकायत की है।गुस्से में न जाने क्या-क्या इसके मां-बाप से कहा है।मुझे याद नहीं।लेकिन क्या इसे भी कुछ भी याद नहीं? अगर ऐसा है तो अध्यापक और छात्र का इससे बेहतर कोई रिश्ता नहीं हो सकता...... आज दो महीने बाद वह मेरे बेटे के स्वास्थ्य की प्रार्थना के साथ दिखा। उसका मासूम चेहरा खुदा के चेहरे से भी आगे खड़ा है ....उसकी प्रार्थना की ताकत सबसे बड़ी है ...जिसने मुझे और मेरे बेटे को ज़िन्दा रखा है ''...आई सेल्यूट यू फ्लेबियन...''
कृष्ण बिहारी
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