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फुलमतिया
रोज़-रोज़
उसका वही ढर्रा देख मैं खीज उठी थी ।उसके आते ही बरस पड़ी
,'साढ़े
पांच बज रहे हैं और अब तुम आ रही हो ?मैं तो तुम से
कहते-कहते थक गई । तुम्हारे ऊपर असर ही नहीं पड़ता !'आँगन
के कोने में अपना डंडा टिका कर उसने चप्पलें उतारीं और नल के नीचे लगाने को
बाल्टी उठाई ।
न बहुओं को
काम करने देगी
,न खुद से सम्हलेगा !छोड़ती भई तो नहीं ,जो
दूसरी ही ढूंढ लूं ।जब कह-सुनी तो वदो एक दिन साढे तीन बजे आ जायेगी ,नहीं
तो वही चार-साढे चार -पाँच। भला यह भी कोई चौका बर्तन करने का टाइम है !
और कुछ कहो,
तो अपना दुखड़ा लेकर रोने बैठ जायेगी ।श्यामू की ससुराल यहीं
शहर में है । पर उसकी सास बिदा नहीं करती बेटी को ।श्यामू गये तो कह दिया
' नहीं बिदा करेंगे हम !'
मैं खिसिया
उठती हूँ ।
देखा तो
नहीं है अभी,
पर वही बताती रहती है ।उसका आदमी उससे बालिश्त भर छोटा है ।
बड़ा दुबला-पतला ,पक्के रंग का - पक्के रंग से उसका
मतलब होता है चमकता गहरा काला रंग ।महरी
खूब लंबी है ।अब तो कमर भी झुक गई है। डंडे के सहारे बिना,
सीधी होकर खड़ी नहीं हो पाती ।एड़ी भऱ-भऱ महावर लगाती है और
माथे पर बड़ी-सी कत्थई प्लास्टिक की
बड़ा सब्र
है महरी में । कहती है
, '
देखित रहो बहू , दुइ-चार बरिस में बच्चा-कच्चा हुइ
जाई तब देखी महतारी केतने दिन रखती हैं । अभै तो अकेल दुइ परानी हैं। बिटिया
चाकरी करिके हाथ में पइसा धरत है घरउ केर धंधा करत है । तौन ऊ काहे भेजी
?' जब इससे तय किया था, तो पहली बात मैंने यही कहा थी कि काम दुपहर ग्यारह-बारह कर कर लेना है। इसी बात पर मैंने मुँह माँगे पैसे दिये थे - साठ रुपये महीना !मैंने तो ये भी कह दिया था कि फिर पाँच बजे तक कोई घर में नहीं मिलेगा ।लेकिन वह तो जानती है न कि चौका-बर्तन कराये बिना मैं जाऊंगी कहाँ ! वह अपने उसी समय पर आती है और मैं इन्तज़ार करती मिलती हूँ ,जैसे उसकी नौकर होऊं ।मैं तो बल्कुल बँध गई हूं -कहीं जा भी तो नहीं सकती ।जानती हूँ वह चार बजे से पहले नहीं आयेगी पिर भी बैठी-बैठी बाट जोहती हूँ । बीच में निश्चिनत होकर सो भी नहीं सकती । ज़रा झपकी आई और कुंडी खटकी तो फ़ौरन उठना पड़ेगा।नींद तो हिरन हो जायेगी और सिर दर्द करता रहेगा शाम तक ।ऐसा कई बार हो चुका है । बार-बार घड़ी देखती हूं -इतने बज गये अभी तक नहीं आई -सोच-सोच कर झींकती हूँ उसके नाम को । उस दिन तो हद हो गई ! मैने सुबह ही कह दिया था का कि ग्यारहृ-बारह बजे तक आ जाना ।पर नहीं आई ।पप्पू आया -पौने चार बजे ।पूछा तो बोला,' अम्माँ ने कहा ही नहीं ।' 'तुम्हारी अम्माँ के बस का काम नहीं है पप्पू ,तुम अपनी दुल्हन को क्यों नहीं बुला लेते ?' 'हम अपने मुँह से कैसे कहें बहू जी ?घरवालों की मर्जी होगी तब वही बुलायेंगे ।' घरवाले भी अजीब हैं ।पप्पू की बहू का मायका यहीं धरा है क्या ? इतनी दूर गोंडा से बुलाने में किराया खर्च होता है ।पप्पू का ससुर भी बड़ा जबर आदमी है 'कहता है नौकरी करके पेट भर सको तब बिदा करा ले जाना ।'
'क्यों
तुम इतनी लंबी और तुम्हारा आदमी बालिश्त भर छोटा ! तुम्हारे पिता ने नहीं
देखा था पहले ?'
किसना जरा
नहीं डरा ।उसने तन कर कहा
,''विवाह
करूंगा फुलमतिया से ।'
फूलमती की
ऊपर की साँस ऊपर नीचे की नीचे ।बाप ताव खा गये ।लौंडे की इतनी हिम्मत ! एक बार फूलमती के भाई लाठियाँ लेकर खड़े हो गये थे । बात कुछ नहीं थी । रास्ते में किसना मिल गया और फूलमती जरा-सा रुक गई थी -दो मिनट बात करने में ऐसा क्या बिगड़ जाता ? पर भाइयों को लगा उनकी इज़्ज़त का सवाल है । फूलमती आड़े आ गई थी ,'तुम्हार सिर नीचा न होई भइया ,हम अइस कबहूँ न करी । मला किसना को जाये देओ ।' 'अब कहाँ है वह ",मैं पूछती हूँ वह कुछ जवाब नहीं देती गहरी साँस छोड़ कर बर्तन माँजने चल देती है । कितनी तेज़ धूप है !अचार मर्तबान छत पर रखने गई इतनी देर में ही सिर चटक गया ।ढाई बज भी तो गया है ।मिन्टू कब का सो गया ।पर मुझे नींद कहां ?दिन में ज़रा-सी सो जाऊं तो कोई-न -कोई आकर दरवाज़ा भड़भड़ाने लगेगा ।सबसे बड़ा झंझट है महरी का । जिस समय झपकी लगेगी उसी समय ये ज़रूर दुपहरी में आकर जगायेगी । वैसे तो चार से पहले रवि-छवि आते नहीं और इनका लौटने का तो ठिकाना ही नहीं साढ़े पाँच से पहले तो सोचना ही बेकार है ,कभी-कभी छः-सात भी बज जाते हैं ।मैं तो ऊब जाती हूं । दिन भर घर में करूँ भी क्या ? थोड़ी-बहुत सिलाई या इधर उधर का काम कर लिया बस । गर्मी में कुछ करने की इच्छा नहीं करती ।कढ़ाई करने का शौक है पर रोज़-रोज़ उससे भी जी ऊबता है ।
सिर अभी तक
गरम है ।पाँच मिनट और धूप में खड़ी रहती तो चक्कर आ जाता । अरे
,
महरी अभी तक नहीं आई । आँगन में छाता लगा कर उपलों की धुयेंदार आँच में रोटी
सेंक रही होगी । उपलों की आग फूँकते-फूँकते राख उसके बालों में भर जाती है
आँखें लाल हो जाती हैं ।ढाई तीन तक खा-खिला कर सफ़ाई करती है बर्तन माँजती है
,फिर गोड़ सीधे करते-करते चार बज जाते हैं,
रोज़ । ऊँह , मुझे क्या ?मुझे तो रोज़ झिंकाती है -चौका जूठा पड़ा रहता है शाम के पाँच बजे तक । जितना मैं देती हूँ कहीं से नहीं मिलता होगा ! होली-दिवाली पर - नकद दस-दस रुपये ,खाना अलग । कपड़े भी पा ही जाती है दो-चार जोड़े । काफ़ी मज़बूत होते हैं ,मेरी साड़ियाँ वैसे भी घिसी हुई नहीं होतीं । ब्लाउज़ उसके नहीं आते इतनी लंबी जो है ।
दो-चार,दो-चार
रोटियाँ रोज़ ही बचती हैं और कभी-कभी आठ-दस भी ।सब उसी को मिलता है । सुबह
बासी दाल या तरकारी के साथ एकाध रोटी खा लेती है बाकी बाँध लेती है -पप्पू
नास्ता कर लेई ।एक
बार दाल कुछ महक गई थी ।मैंने उससे कह दिया था
,'दाल
खराब हो गई है ,फेंक आना ।'
''बहू,चक्करदार
ऊँचावाला झूला लगा है उधर का पारीक में । झूल आओ बाबू केर साथे ।'
उसका बताया
गाँव के मेले का दृष्य मेरी कल्पना में साकार हो उठता है । रंग-बिरंगी
चुनरियों से सजी ग्रामीणाओं की भीड़ - दुकानों पर खरीदारी की होड़ लगी है
।चाट के ,
जलेबी के ठेलों पर लोग जमा है । झुंड-केझुंड लुगाइयां,
पगड़ी बाँधे मनई, मचलते बच्चे
,उड़ती धूल ,बैलों के गले में
घंटियाँ और गाड़ियों की चरमर ध्वनि के बीच उठती ग्राम्य गीतों की ताने !
फुलमतिया ने
पहले ही तय कर लिया है -- माँ-बाप सोचेंगे मेले में हिराय गई । कहीं रो
रही होगी अकेली !
'हियाँ
सहर में मेला नहीं लागत है ?"
तभी वह
किसना के साथ आती दिखाई दी ।भागती -सी आई और माँ से लिपट गई
,'अम्माँ
,तुम कहाँ चली गई रहीं । हम चुटीलावाली दुकान देखित
रहेन और तुम हमका छोड़ दिहन ...हम सारे मेला माँ खोजत फिरेन ।'
माँ उसे
असीसें दे रही है
,'तुम
नाहीं रहत तो हमार फुलमतिया हेराय जाती ...जुग-जुग जियो बिटवा ।'
' बहू,
बाबू का कोई पुरान-धुरान सूटर होय तो हमका मिल जाय ।'
ठंड में
सिकुड़ती रहे पर मेरा दिया कार्डिगन सहेज कर रख देती है बर्तन माँजते समय ।
इसे क्या?
बीमार पड़ेगी तो परेशानी तो मुझे होगी ।
महरी का
आदमी ?बालिश्त
भर छोटा तो है ही ,शक्ल-सूरत भी अजीब।गहरा काला रंग
,मुँह कुछ आगे को निकला-सा ,सींकिया
शरीर । शुरू-शुरू में लोग छींटाकशी करते थे -मेहरिया अइस जइस गुलाब क फूल और
मगद जइस काँटा !' 'अच्छा !' मैं थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करती हूँ । हमारे इहाँ ई सब चलता है बहू,पर धन्न है हमार छाती किसउ पर मन नहीं डोला ।रूखा-सूखा खाय के जलम बिताय दिहिन ।अब का बहू,बुढ़ापा है ।फिर भी मरद चैन नाहीं लेन देइत । सक के मारे मरा जात है हरामजादा ।हमसे कहित है -आदतें सुरू से बिगड़ी हैं मरदों से आँख लड़ाती फिरती है ।
' हम
बियाह के बाद किसउ को गलत आँखिन से देखा होय तो हमार आँखी फूट जाय,
बहू ।' पर वह यह सब समझेगी नहीं ।उस दिन वह गोल कर गई थी, पर आज मझे उत्तर मिल गया है -कि उसके ब्याह की इतनी जल्दी उसके बाप को क्यों पड़ गई थी ।' यह जो इसका आदमी है इससे ब्याह की बात फूलमती के बाप ने की थी ।.यह कुछ दिन को देस गया था ।उसके बाप के साथ उठना-बैठना हुआ ,बात-चीत हुई ।एक बिरादरी थी ,दोनों ने आपस में तय कर लिया ।बाप ने पहले तो रौब से बताया ,' लड़का सहर में रहता है ,मिल में नौकरी करता है ।राज करेगी लड़की ।'
माँ ने
विरोध किया था
,' ई मरद हमार बिटिया के जोड़ का नहीं ।ऊ से नाहीं करिबे ।'
'
हमार बाप उइसेइ सराब पी के महतारी को मारत रहा ।हम भाग जाइत तो हत्या हुइ
जाती ।अम्माँ से कहत रहा ,तूने ही लौंडया को मूड़े पे
चढ़ाया है ।मैं तो इह के लच्छन देख के गर्दन काट के फेंक देता ।फिर चाहे
फाँसी हुइ जाती ।' माँ ने रोते-रोते कहा था 'भगवान मेहरारू का जलम काहे दिहिन जौन सपनेहुँ मां सुख नाहीं ।कबहूँ चैन नहीं - चाहे बाप होय चाहे खसम ,जिनगी भर मरद की ताबेदारी करो ।'
बिदा होती
पूलमती ने समझाया
,'हमका
हमार कस्मत पे छोड़ देओ अम्माँ ।हमरे लिलार जौन सुख-दुख बदा होई तौन जहाँ
जाइब तहाँ पाइब ।तुम सबुर करौ ।'
आज मेरा
जन्मदिन है। मनाती तो नहीं पर इन लोगों ने पिक्चर का प्रोग्राम बनाया है ।
इन्होंने मुझे पिंक कलर की साड़ी गिफ़्ट की है । तैयार होकर आँगन में निकलती
हूँ ।महरी चाह-भरी निगाहों से मेरी साड़ी की ओर देख रही है । तब से फूलमती ने शादी के अलावा नये कपड़े ही कहाँ पहने ,गुलाबी रंग की तो बात ही दूर की है ।
फूलमती की
आँखों का मोह भरा सपना टूट गया है - हमेशा के लिये ।उसके बाप ने गुलाबी चूनर
की धज्जियाँ उड़ा दी हैं । पर जाने क्यों मुझे लगता है उसकी भटकती दृष्टि अब
भी वही रंग खोज रही है ।मुझे याद आ रहा है कुछ दिन पहले पड़ोस के घर में शादी
हुई थी । हमलोग बाहर बारात देख रहे थे । महरी पहले तो रोशनी और बाजे-गाजे देख
खुश होती रही पर जब दूल्हा देखा तो चुप हो गई । फिर अन्दर जाकर बड़बड़ाने लगी
थी ,'अईस
सोने की मूरत अस लौंडिया और दुलहा जइस बबूर ! गालन पे चकत्ता अउर माता के दाग
।' 'जोड़ ना मिली तो जिनगी भर लरकिनी के मन माँ काँटा अस चुभत रही । ऊ कहे चाहे न कहे ।' मैं अवाक् उसका चेहरा देखती रह जाती हूँ !'
रामू की
दुलहिन अपने मैके में बीमार पड़ी है । उसकी अम्माँ कहती हैं
,'
समधिन देखन नहीं आईं ।ल
हमका कहाँ फुरसत है बहू,जौन
घंटा भर हुअन जाय के बैठी ।' ' ऊ आवा चाहित है पन ऊ लरकिनी केर मन नाहीं देखित हैं ।'वह बताती है - दुइ बिटियाँ मर गईं तब रामू भे ।बड़ी मुसकिल उठाई रही ।जब ई भवा तो सनकै ना ,सब मार घबराय गये बहू ।फिर दाई इह केर हिलावा-डुलावा ,पीठ पे थप्पड़ मारेन ,तब ई रोवा । फिन हम कान छिदाय दहिन ।' नहीं भेजेगी रामू की सास अपनी लड़की को तो महरी क्या कर लेगी ?पप्पू के ससुर ने अपनी सड़की डेढ़ साल से नहीं भेजी तो क्या कर लिया इसने ?वे पैसेवाले हैं तभी इतना गुमान है । पर पप्पू को कुछ नहीं देते ,सीधे मुँह बात भी नहीं करते ।लड़की काली है और खूब तंदुरुस्त ।वे तो कहते हैं नहीं जायगी ससुराल ,न होगा दूसरा व्याह कर देंगे ।। बड़े जबर हैं लड़कियों के बाप ! ऊँह, होते रहे अपन को क्या ?अपना ते बस काम चलता रहे ।पर फिर तरस आ जाता है । कोई ढंग की मिलती भी तो नहीं । यह ईमानदार भी बहुत है । चो-तीन बार आटा गूंदते पर अँगूठी चौके में रख कर भूल गई ,उठा ले जाती तो क्या कर लेती मैं उसका ?आटा सनी अँगूठी । चूहे खींच कर ले गये होंगे यही लगता !चौके में कोई देखनेवाला था भी नहीं ।पर उसने छुई तक नहीं आवाज़ लगा कर बोली ,'ई आटा सनी तोहार अँगूठी धरी है का ? मूस उठाय लै जाई तौन हमार नाम आई ।' हाथ जोड़ कर सिर तक ले जाती है वह ,कहती है ,'माँग के लै लेई बहू ,चोरी करि के पाप न चढ़ावे ।ऊ जलम का भुगतान तौन ई जलम में करित हैं ,और अवगुन करी तौ आगिल जलम नसाय जाई ।' औगुन-गुन की परिभाषा उसकी अपनी है ।मेरा दखल तो वहाँ भी नहीं चलेगा । पिछली महरी तो बड़ी चोर थी । हमेशा कुछ-न-कुछ माँगती रहती थी -कभी रोटी दे दो पानी पीना है ,कभी मिर्चें देदो,कभी प्याज।चाय पीने तो रोज ही बैठी रहती थी ।बच्चों के कपड़े भी हमेशा चाहियें।ऐसी महरी थी कि दो नये पेटीकोट आँगन से गायब कर दिये और अफनी लड़की को दे आई । एक तो मैंने पहचान भी लिया -वही लेस लगी थी जो मैंने जोड़ कर सिली थी । पर उसकी ब्याही लड़की से रहती भी क्या ? और लट्ठे के पेटीकोट में कोई पहचान मानेगा ही क्यों ?
जब से ये आई
है,सुई
तक गायब नहीं हुई । अपने काम से काम ।हाँ, मुँह
से बड़बड़ करती रहती है ।मन हुआ तो हाँ हूँ कर देती हूँ नहीं तो चुपचाप किताब
पढ़ती रहती हूँ । इसके साथ बच्चों का झंझट नहीं और लालच बिल्कुल नहीं है
इसमें ।तभी तो निभाये जा रही हूँ ।
और वह कहती
क्या है? शादी के बाद उसका आदमी इसे लेकर यहाँ चला आया । फिर इसे मायके नहीं जाने दिया ।चार बच्चे हो गये तब गई थी बाप के मरे पर। दस साल में कितना बदल गये था गाँव ,गाँव के लोग ! वह कहती है ,'अब हुआँ जाय के का करी ? न बाप रहे ,न संग-साथ को लोग ।हमारे लै तो गाँव उजड़िगा ।'आदमी ने कसम धरा दी थी कभी किसना से बात भी करे तो बाप-भाई ,आदमी सबका मरा मुँह देखै क मिलै !' छःबरस बाद जब दो बच्चों की माँ बन गई तब गाँव जाने का हठ पकड़ा था इसने ।पर नहीं जाने दिया ,माँ मर गई तब भी नहीं । गई तब जब बाप भी मर गया तब भी आदमी के शब्द थे ,'जौन किसना की सकल भी देखी तौन चारों लरिकन और हमती लहास तोहरे सामने एक ही दिन में उठ जाये !'
जाने
क्या-क्या कसमें दिलाईं थीं उसने फुलमतिया को ।वह लाचार हो गई थी -गाँव गई और
वह मिल गया तो
?...एकदम सामने ही पड़ गया तो !'फिर
मिला था कभी ?' इसने कुछ सुख दिया होता ,कुछ मन पूरा किया होता तो शायद उसे भूल गई होती ।पर यहाँ मिलते हैं हमेशा किसना के नाम के ताने --भूले भी कैसे उसे ? कभी-कभी मैंने देखा है,कही हुई बात सुनाई नहीं दे रही उसे , ऐसी गुम-सुम बैठी रहती है । पूछती हूँ ,'क्या आज बुढ़ऊ से झगड़ा हो गया ?' ' इत्ती-इत्ती-सी बात पर हरामजादा ताना मारत है --कहत है जौन किसना होत तौन तन-मन से सेव करती । हमका कऊन पूछित है ?हम कबहूँ छिपाव नाहीं कियेन बहू,किसना कहाँ होई कइस होई हमारा ऊ से कौनो मतबल नाहीं ।मुला ई दईमारा विसवास न करी ।' 'बाबू लोगन से आँखी लड़ाये बिना चैन नहीं पड़ता सुसरी को ,'उसका आदमी उससे कहता है ।जब वह जवान थी उसका घर से निकलना आदमी को अच्छा नहीं लगता था ।पर उसकी यह बात फूलमती ने नहीं मानी ।
'घर
माँ घुसे-घुसे तो हमार जी घबरात है ,थोरा बाह-भीतर तो
होय का चही ।'गाँव
की उन्मुक्त हवा में पली लड़की शहर के कमरे मे बंद होकर जियेगी कैसे
?तभी
वह कहती है ,'थोरा
तुम पंचै से बतियाय लेइत है जी और हुई जात है ।पइसा-कौड़ी का सहारा हुइ जात
है ।घर माँ बंद हुइ के मर जाई का ?'
पहले
कभी-कभी उसके काम वाले घरों में चक्कर भी लगा आता था ।अब बंद कर दिया है ।
सोचता होगा बूढी हो गई है । पर उलाहना देने से फिर भी नहीं चूकता ।कभी-कभी
उसकी आप बीती सुनी नहीं जाती तो उठ कर चली जाती हूँ ।कुछ देर पहले तुलसी के
चौरे में जो दिया जलाया था उसका घी चुक गया है । एक धुँधुआती हुई बाती सुलग
रही है । जरा देर में यह रुई में चमकती चिंगारी धुय़ें की गहरी लकीर छोड़ कर
विलीन हो जायगी ।
अब फिर
मुझसे कमीज़ माँग रही है
,बुढऊ
के लिये ।मैं जानती हूँ ,उसी ने कहा होगा ,'साली
अपने लिये माँग लाती है ,और किसउ की चिन्ता नहीं ।'
उस दिन कह
रही ती ,'बहू,दस
रुपैया चाही ।'मैं
कुछ नहीं बोली ।कठोर मुद्रा देख कर चुप हो गई।
'क्यों
? सभी तो कमा रहे हैं ,तुम्हीं
क्यों उधार माँगती हो ?' वह गिड़गिड़ाने लगी 'बहुत कमजोर हुई गये हैं ।तीन दिन हुइ गवा अन्न का दाना मुँह में नहीं डालेन बहू , चहा पी-पी के चेहरा उतरि गवा है । रुपैया मिल जाय तो डबलरोटी मुसम्मी के साथ खबइबे । मुला ताकत न होय तो मिल में काम कइस करी ?'हार कर मैं दस रुपये लाकर पटक देती हूँ
'और
किसी को फ़िकर नहीं तो तुम्ही क्यों मरी जाती हो ?' उदास-सी चुप्पी हमलोगों के बीच पसर गई है ।
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प्रतिभा सक्सेना
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