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मर्ज तो आखिर खत्म हुई मामूजान की दास्तां । शुरूआत से ही अर्ज है ।
अपने महकमे के किसी काम से ही
मामू आए थे । मुरादाबाद काम निपटाकर । बड़े भाई फरहत के दसवीं में दुबारा लुढ़क
जाने से अम्मी और अब्बा दोनों परेशान थे । कस्बे में लटूरों की सौहबत का
सूरते हाल ये था कि उन्हें लेकर अम्मी अपनी खानाखराबी को खूब कोसतीं मगर मजाल
कि फरहत भाई के कानों जूं भी रेंगती तुरन्त तो नहीं मगर जल्द ही अम्मी मान गयीं और अगले जुम्मे को अब्बा मुझे दिल्ली छोड़ भी आए । दिल्ली बड़ा शहर है इसलिए मुझे थोक में हिदायतें थीं कि मैं अपना ध्यान कहीं और न भटकने दूं । यूं खबरों या जरूरी मालूमात के लिए टेलीविजन देखना कोई गुनाह भी नहीं था । अब्बा ने चलने से पहले खर्चे वगैरा के लिए कुछ रकम मामूजान को पकड़ाई तो वे भड़क उठे ...'क्यों तौहीन करते हैं अनवर साहब...जैसे इरशाद और सगीर हैं, वैसे ही अब नजीर मियां हैं... कोई बोझ थोड़ेई हैं' 'इसमें तो कोई शक-शुबहा है ही नहीं...पर भाईजान मां बाप की भी कोई खुशी या फर्ज हो सकता है कि नईं...' । शुक्र था ज्यादा हील-हुज्जत नहीं हुई । मेरे यहां आने के हफ्ते बाद ही मामू सामने वाले गोविल साब के यहां मेरे दाखिले के सिलसिले में तफ्तीश करने गए थे । वैसे गोविल साहब के प्रति मामूजान के ख्यालात का बित्तेभर इल्म मुझे गयी शाम ही हो गया था जब मामूजान ने हिदायत और मशविरे का मलीदा मुझे परोसा...'हम हैं छोटे आदमी...यूं अल्ला की मेहरबानी में कमी नहीं है लेकिन बरक्कत का ही खाते है । सामने वाला जो गोविल है, अनाप शनाप कमाता है । सेल टैक्स में जो है । खैर ये उसका ईमान है । मगर ध्यान रखना उसके बच्चों से कोई होड़ नहीं है तुम्हारी...।' यहां तक तो ठीक था मगर मेरे कमर फेरते ही वे अपने पर बुदबुदाए... हराम का पैसा कभी फला है किसी को...जहां तक मेरी समझ है तो मामला यही था कि दाखिले के सिलसिले में मामू पहले चार कदम दूर रहने वाले उन हजरत के पास गए थे जो कृष्ण्नगर के उसी स्कूल में अध्यापक थे । दो दिन की दरयाफ्त के बाद जब उन्होंने हाथ खड़े कर दिए तो मामू ठगे से रह गए; वे तो उन्हीं पर दारोमदार लगाए बैठे थे । 'दुनियां में रत्तीभर इखलाख नहीं बचा है... पैसे ने किस किस की रोशनी नहीं छीनी...' मामू तमतमाए थे । उसी रोज सगीर भाई अपने कुछ कागजात गोविल साहब के यहां से अटैस्ट कराकर लाएं थे सो उन्हीं का नाम सुझा दिया । मामू का मन नहीं था । लिहाजा एक दो रोज पशोपश में पड़े रहे । लेकिन कोई दूसरा जुगाड़ नजर ही नहीं आया तो लाचार होकर...। गोविल को वे शातिर जुर्मवार मानते थे । उसकी मदद लेने का मतलब था कहीं न कहीं उसके गुनाहों में शरीक होना, जो उन्हें गवारा न था । मगर यह भी था कि उन्हें मेरे मुस्तकबिल और अम्मी-अब्बा के प्रति अपनी जवाबदेही की भी चिन्ता थी । गोविल साहब के यहां जाते जाते मुझे भी साथ ले लिया । उन्होंने बड़ी खुशमिजाजी से बिठाकर हमें शरबत पिलाया और बड़े इतमीनान से वायदा किया कि जिस स्कूल में जाफर साहब चाहेंगे, मेरा एडमिशन करा देंगे । दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग का कोई उपनिदेशक उन्हीं के बैच का था (ये बैच क्या होता है मेरे पल्ले नहीं पड़ा, घर आकर सगीर भाई ने समझाया )। मेरे कागजातों की एक एक नकल अपने पास रखवाली थी । लौटते वक्त मामू के चेहरे पर कुछ राहत तो झलक रहीं थी मगर कई परतों से छन छनकर । गोविल के ड्रॉईंग रूम में पसरे दो पीतल के वजनदार चीतों और गलीचे को देखकर मामू को गोकि गोविल की बातों पर शुबहा थाः इतना मतलब परस्त आदमी किसी का काम यूं ही क्यूं कराऐगा । इसलिए घर आते ही उसांस लेकर बोले '...अब देखते हैं नजीर मियां तुम्हारी तकदीर को क्या मंजूर है'। गर्मी की छुट्टियों के बाद नया सैसन चालू हुए दो चार रोज बीत चुके थे । मामू सुबह दफ्तर निकल जाते तो शाम को ही लौटते । इरशाद भाई तो बंगलौर में ही थे । सगीर भाई करीब आठ तक लौटते । कभी कभार तो उन्हें ग्यारह बारह भी बजते, (तब वो बताते कि ऑडिट के सिलसिले में उन्हें एक क्लाईंट की गुड़गांवां या नजबगढ़ फैक्टरी में जाना पड़ा था)। उन्हें जितना स्टाईपेंड मिलता था उसमें माह का बस का किराया निकलने के बाद चाय पानी के लायक ही बमुश्किल कुछ बचता था । घर पर बचते मैं, मामी और सबीना दीदी । मामी तो अम्मी की तरह घर के काम काज और साफ सफाई में मशरूफ रहतीं पर सबीना दीदी तो पूरी निठल्ली होकर ऊंघती रहती । पडौस से मांगकर लायी सरिता-मुक्ता या ग्रहशोभा के भी वरक पलटने में उन्हें उबकी आती । या हो सकता है वे उन्हें कब तक पढ़तीं ? बहरहाल चर्बी उन पर काफी चढ़ आयी थी । निठल्ला तो मैं भी था मगर इसकी वजह स्कूल में दाखिले की देरी थी । शाम को एक दिन मैं टहलकर आया तो मामू घर पर चाय पी रहें थे । ' आज मामूजान कुछ जल्दी...' मैंने चकित होकर पूछा तो बोले 'हाँ नजीर मियां, तुम्हारे ही सिलसिले में एक जगह गया था... उसके बाद सीधा घर ही चला आया ...वाईस प्रिंसपल से एक जान पहचान निकाली है...अब देखो' । मामू का चेहरा मुरझैल था । पता नहीं कहां कहां की ठोकरें खाकर आ रहे होंगे ? मुझे मामू पर तरस और खुद पर किल्लत हो आयी । मगर मैं करता भी क्या...सिवाय मन ही मन कसम खाने के कि मामू बस दाखिला करा दो, फिर देखना मैं कैसे अव्वल नम्बरों से...। मेरी चुप्पी को पढ़कर मामू ने ही टहेला 'भाई नजीर मियां, तुम्हारी एक बात हमारी समझ नहीं आयी... तुम चाय भी नहीं पीते हो...' । 'चाय कोई नियामत तो है नहीं' मामूजान कि बिना पीए गुजारा न हो... आपको तो पता ही है, घर पर अम्मी-अब्बा फरहत भाई सब पीते थे, मैंने कभी नहीं पी ।... चाय से खली पीली कुछ होता भी है' मेरे जवाब में पता नहीं कैसे चंदौसी घुल आयी। 'अरे नहीं, माशाअल्ला, अच्छी आदत है, मगर वो क्या है नजीर मियां कि दूध दही तो तुम जानते हो यहां कैसा है । बीस रूपये किलो में क्यां तो कोई पीए और क्या पिलाए... शहर में रहकर पचास तरह के खर्चे अलैदा' मामू जैसे किसी जुर्म के साये में सफाई देने लगे । 'वैसी कोई बात है ही नहीं मामू... आप अम्मी से पूछ लेना...दूध या दूध की चीजों से मुझे बचपन से ही एलर्जी सी है...' । मेरे बयान से उन्हें कितनी तसल्ली हुई ये तो पता नहीं मगर मेरी आदतों के बरक्स थोड़ी राहत वे जरूर महसूस करते थे । हर सुबह उठकर कृष्ण्नगर की मदर डेयरी से एक लीटर दूध और हर तीन चार रोज में शाहदरा मंडी से सब्जियां मैं लाने लगा था । थोड़ा बहुत इधर उधर का परचूरन भी । यह सब करने में मुझे कतई तकल्लुफ इसलिए नहीं होती थी कि एक तो यह सब मैं चंदौसी में करता ही था; दूसरे, घर से बाहर निकलने का भी यह अच्छा जरिया था । फिर मुझे कौन सा पैदल जाना होता था; मामू की साईकिल थी ही । तो क्या हुआ जो वह मामू के ही हिसाब से चलती थी ! अगले इतवार के बाद जो सोमवार आया उसमें मामू आधी छुट्टी करके ही घर आ गये । साथ में वो हजरत भी थे जिनकी वाइस प्रिंसपल से जान पहचान थी । कृष्णनगर के जिस सरकारी स्कूल में दाखिला होना था वह दोपहर को ही खुलता था । सुबह की शिफ्ट लड़कियों की थी । पहुंचने पर वाईस प्रिंसपल साहब ने हम लोगों को बाइज्जात अन्दर बुलाया, कागजात देखे और दाखिले का फॉर्म भरने को दे दिया । कोई एकसौ दस रूपये नकद फीस भरनी थी जो मामू ने फौरन दे दी । तभी मैंने देखा कि वह सौ का पत्ता जो मामी ने किसी शगुन की तरह चलते वक्त मामू की जेब में ठूंस दिया था, बड़ा काम आया । वर्ना तो बात किरकिरी हो सकती थी । चलते समय वाईस प्रिंसपल साहब ने अदब से उठकर कहा 'जाफर साहब, मैं तो पुरी साहब से बात कर ही लुंगा पर आप भी उन्हें इन्फोर्म कर दें कि जिस ऐडमिशन के लिए उनका आदेश था, हो गया है...उन्हें अच्छा लगेगा और तसल्ली भी रहेगी' मामू थोड़ा अचकचाए । कौन पुरी साहब ? मैं तो नाम ही पहली मर्तबा ... मगर आदाब करते खिलखिलाए ...'अरे जनाब, आपका लाख शुक्रिया... मैं उन्हें आज ही इत्तला कर देता हूं ' । मैं समझ गया --- शायद मामू भी, कि ये पुरी साब गोविल साब के ही हमबैच होंगे । मगर मामू को इस पर यकीन, होते हुए भी, नहीं था । थोड़ा समय लगा, मगर काम मुकम्मल हुआ । मैंने अम्मी को तीसरे खत में बता भी दिया । मेरी गैर हाजिरी में थोड़ा परेशान तो हो रही होंगी, मगर अब तसल्ली मिल जाएगी ।कितना सुकून मिलता है जिन्दगी की गाड़ी के पटरी पर चलने में । सगीर भाई और मामू की तरह मेरा भी एक ढर्रा बन गया । सुबह उठकर एकाध वही घरेलू काम, फिर स्कूल का होमवर्क, नहाना-धोना, खाना और फिर स्कूल को रवाना । शाम को वापसी । फिर मामी या सबीना दीदी से थोड़ी बहुत गपशप । टीवी में एकाध प्रोग्राम और उसके बाद खबरें । खबरों को मामू बहुत ध्यान से सुनते, गोया किसी झंझावात का अंदेसा हो । उस वक्त उनसे कुछ भी पूछना कहना उन्हें नाकाबिले बर्दास्त था ।इस बीच रोजे आए, ईद आयी । मामू के एक खास दोस्त ने ढेर सारी ईदी भिजवायी । दिल्ली की पहली ईद पर लगा, यहां के बासिंदों का कलेजा वाकई बड़ा होता है । मामी ने एक भगौना भर के सिवैयां बनाई । मुहल्ले के लोग ईद मुबारक करने आए । मिसेज गोविल अकेली आयीं । मामी की कटौरी भरी सिवैयों में से उन्होंने बमुश्किल एक चम्मच खायी । बाकी छोड़ दी । लेकिन जिन्दगी यूं ही ढर्रे पर चलती रहे तो कैसे यकीन होगा कि ढर्रे पर चल रही है । उसमें कुछ धौल-धक्का तो लगना ही था । और जिस दिन यह लगा, सचमुच कयामत आ गयी । उस रोज सगीर भाई गुड़गांवां ही ठहरने वाले थे (गोविल साब के यहां फोन करके उन्होंने बतला दिया था ) । खबरें हम सब ने इकट्ठी ही सुनी थीं । दो चार सवाल लगाने के बाद मै भी सो गया था । हमारी सोने की जगह अमूमन तय थीं - हम दोनों भाई आगे वाले कमरे में (यानि ड्रॉईंग रूम में) तथा मामू-मामी और सबीना दीदी अन्दर वाले कमरें में । और कोई आ जाता तो या तो हम लोग गुंजाइश करते या फिर छत जिंदाबाद । जुलाई का आखिर था तो उमस बेइन्तंहा थी । चंदौसी में जैसे बन्दरों का कहर है, पूर्वी दिल्ली में वैसे ही बिजली का है : फर्क यही है कि एक कब न आ जाय तो दूसरी कब न चली जाय ! सबीना दीदी ने रूआंसी होकर उठाया 'नजीर नजीर, उठना तो...अब्बा की तबियत ठीक नहीं है !' पूरा घर रोशनी से सराबोर था । चुंधियाते हुए मैंने देखा तो कोई डेढ़ बज रहा था । दूसरे कमरे में पड़े फोल्डिंग पर मामू आंख मूंदे ही हांफे जा रहे थे । मामी हथेली सहला रही थीं । वह कुछ बुदबुदाते तो मामी पूछती ...'कैसा लग रहा है ?' वे बिना बोले दूसरे हाथ को डैने की तरह हवा में हिला देते ... ठीक नहीं लग रहा है । मैंने अपने घर में ऐसी हालत किसी की नहीं देखी थी। सबीना दीदी ने बताया कि एक डेढ़ घंटे से यही चल रहा है । बारह बजे के करीब बिजली गयी थी, तभी मामू थोड़े परेशान होकर उठ बैठे थे । पानी मंगाकर पीया मगर फौरन ही उल्टी कर दी । वो तो अच्छा हुआ कि बिजली थोड़ी देर में ही आ गयी । पहले कहने लगे, मतली हो रही है । उल्टी कर दी तो हमनें सोचा राहत मिल जाऐगी । मगर फिर कहने लगे पेट में दर्द सा उमड़ रहा है । आधा गिलास नीबू पानी पीया (मुझे तसल्ली हुई कि आज सब्जी लाते में मैंने पचास ग्रांम नीबू भी चढ़वाए थे) । मगर फिर भी घबराए जा रहे हैं । और वाकई ऐसा था । मामू के टकलू सर पर पुरजोर पसीना चुहचुहा रहा था । मेरे लिए यह नजारा बड़ा अटपटा था । अम्मी अब्बा को सर-दर्द या बुखार वगैरा में कराहते तो देखा था मगर वह तो बाम की मालिश या सर पर पट्टी खींच देने से काबू हो जाता था । यहां तो लग रहा था दिलोजान से प्यारे मेरे मामू को किसी ने चलती बस से फेंक किया है और वह जोड़ों के दर्द से छटपटा रहे हैं। एक बार तो मैं घबरा गया । किसी तरह अपनी घबराहट अपने तईं संभलकर मैं मामू के करीब गया और दुलार करते हुए धीमे से पुकारा '...मा.मू...मा.मू...'। जवाब की ख्वाइश होती तब भी नहीं दे सकते थे क्योंकि ऐन वक्त पर उनकी खांसी उखड़ गयी जिसमें 'अल्लाह अल्लाह' की गुहार बड़ी बेकसी से शरीक होती जा रही थी । खांसी का जलजला थमते ही बड़ी बेचैनी से अपनी मुंडी को वे तेजी से 'उंह उंह' की बुदबुदाहट के साथ दांए-बांए घुमाते । मैंने मामू की दूसरी हथेली अपने पंजो में थाम ली ।
एक दो दिन से मामू थोड़े बदन
दर्द या हरारत की शिकायत सी तो कर रहे थे लेकिन वो तो दिल्ली की बसों में
सुबह शाम सफर करने वाला हर इन्सान हरचंद करता होगा । उस दिन सगीर भाई के साथ
जब लालकिला और जामा मस्जिद देखने गया था तो लौटकर मेरी भी हुलिया कैसी टाईट
हो गयी थी। मुझे थोड़ी झुंझलाहट हुई कि सगीर भाई को घर से आज ही गैर हाजिर
रहना था । सबीना दीदी तो निकम्मेपन की हद तक लद्दड़ हो रही थी । रात के इस पहर
में मामू को कहां ले जाएं,
कैसे ले जांए?
रिक्शा भी नहीं मिलने की
है। और डॉक्टर या दवाखाना ? दवाखाने
की याद आते ही मैंने मामी को तलब किया । मुझे एक झपाटे से ख्याल आया कि इस तूफान से गोविल अंकल ही निजात दिला सकते हैं। और मैंने मामी की इजाजत लेकर उनकी डोरबेल बजा दी।दरवाजा उन्होंने ही खोला । गहरी नींद से उठने का अजनबीपन उन पर अभी तक चस्पां था लेकिन बिना एक पल जाया किए मैंने उन्हें मामूजान की हालियत से वाकिफ कराया ।'एक मिनट' कहकर वे सिलबटी कुर्ते पायजामे की जगह दुरूस्त पैण्ट-शर्ट डाल आए (मुझे यह तकल्लुफी अंदाज दिल्ली की खास पहचान लगा, वर्ना अपनी चंदौसी में तो कुर्ते पायजामे में लोग मुरादाबाद - बरेली छान आंए)। तब तक गोविलानी (मोहल्ले में सारी औरतों को उनके खाविन्दों के नाम में इसी तरह तब्दीली करके जाना जाता था। इस सिलसिले में मोहल्ले की गुफ्तगू से ही मुझे पता चला था कि कमबख्तों ने मेरी मामी का नाम एक जर्रा और मरोड़कर ;जाफरानी पत्ती' कर दिया था) आंटी भी उठ आयीं थी । उनके 'व्हाट हैपन्ड' का जवाब गोविल अंकल ने मुख्तसर देकर चाबियों का एक गुच्छा उठा लिया और मुझसे मुखातिब होकर बोले 'चलो' । घर आकर मैंने देखा मामूजान नमाज अदा करने के अन्दाज में आंखें मूंदे बैठे थे । जैसे निचुड़ा हुआ नीबू । गोविल अंकल ने कुछ जान फूंकती आवाज में पुकारा 'अरे जाफर साहब, क्या हो गया ... घबराईए मत' फिर नब्ज थामकर यकीन दिलाते बोले '...कोई खास बात नहीं है...बस घबराहट है ' । मामू और हम सबकी हौसला अफ्जाई में उनके अल्फाज बिलाशुबहा कामयाब थे । मामूजान के चेहरे पर मुश्कराहट की हल्की सी किरच छिंटक आयी तो मुझे घर पर किसी 'आदमी' के होने भर से मुस्तकिल राहत मिली । वर्ना मामी की लड़खड़ाती आवाज को देखकर तो लग रहा था कि मामू तो मामू, कहीं मामी न ज्यादा तकलीफ का सबब बन जाएं । बीपी और शुगर तो उन्हें है ही । दवाखाने की सलाह पर मामी ने शालीमार पार्क वाले डॉक्टर अमीन के दवाखाने का नक्शा गोविल साब को समझाया ।
'जाफर
साहब गाड़ी तक चल पायेंगे या उठाकर ले चलें'
बरांडे में सो रही किसी दाई सरीखी औरत ने बताया कि डॉक्टर साब तो बाहर गये हुए हैं 'दूसरा कोई डॉक्टर' के जवाब में उसने दो टूक 'नहीं' कहा और लेटे लेटे ही करवट बदल ली । मुझे ताज्जुब हुआ, क्या दिल्ली में ऐसे भी दवाखाने होते हैं ? 'अब क्या करें जाफर साब... कहां चलें' अपने फर्ज की एक किश्त पूरी करने के अन्दाज में गोविल साब ने मामू से पूछा जो पिछली सीट पर अधलेटे पड़े थे ।
'कोई
और दवाखाना नहीं खुला होगा?'
मामूजान ने गोविल साब की
ओर ही खुद को लुंढ़काया । गोविल ने तुरन्त फैसला किया।अरोड़ा का दवाखाना कोई मील भर दूर होगा । दवाखाना क्या, बीच बाजार में बहुमंजिला कोठी थी । दरवाजे पर मरीज के मालूमात पूछकर हमें पांचवीं मंजिल पर जाने को बोल दिया गया जिसके लिए एक कद्दावर लिफ्ट मौजूद थी । डॉक्टर अरोड़ा तो नहीं थे लेकिन डॉक्टर साहनी नाईट डयूटी पर थे । गोविल अंकल ने डॉक्टर अरोड़ा से अपनी जान पहचान का हवाला देकर बटुए से निकालकर एक शिनाख्ती कागज डॉक्टर साहनी को पकड़ाया और तुरन्त अपने करीबी दोस्त को अटैन्ड किए जाने की गुजारिश की । आनन फानन में, एक तैयार बैड पर मामू को लिटाकर डॉक्टर मामू की जांच करने लगा । वहीं मैंने देखा कि छोटी सी मशीन से एक लम्बा कागज ऊल बिलाब सी लाईन बनाता हुआ बाहर निकल रहा था । मुझे बाद को पता चला कि इसे ईसीजी कहते हैं । खैर मुझे क्या, ये तो डॉक्टर जानें । थोड़ी देर बाद मामू के मुंह में थर्मामीटर भी लगा दिया । बाद में जब डॉक्टर साहनी मामू की नब्ज का मुआयना करने लगे तो उनका ताररूख भी लेने लगे ।
'आप
कहां काम करते हैं?'
'शाम
को कुछ बाहर-वाहर तो नहीं खाया पीया था
?' 'बस यही तो गड़बड़ कर दी आपने' साहनी ऐसे बोले गोया सुराग पकड़ लिया हो । मामू कसूरवार से देखते रहे, बोले कुछ नहीं । अब डॉक्टर उनकी नब्ज छोड़ स्टैथिस्कोप लगाकर जांच करने लगा । बोलना मगर मुसलसल था । ' इस उम्र में रात को उड़द की दाल गड़बड़ नहीं करेगी तो कब करेगी' साहनी के नतीजे में तोहमत थी । मैं मन ही मन बड़ी राहत महसूस कर रह था । एक तो यही देखकर कि मामू कम से कम ज्यादा आसानी से बोल बतिया रहे थे । दूसरे, इस ख्याल से भी कि, चलो थोड़ी बदहजमी या गैस-वैस का ही मुआमला निकला ।
अपने कानों से स्टैथिस्कोप का
शिकंजा ढीलाकर साहनी किसी अन्जाम तक पहुंचने की कशमकश करते बोले
अपनी
डैस्क पर जब वो आकर बैठे तो गोविल अंकल ने कुछ खौफ खाते हुए,
शाइस्तगी से अंग्रेजी
में पूछा... मेरी धुकधुकी बढ़ गयी । साहनी पास खड़े रहकर गौर से मामू पर नजर गढ़ा रहे थे । उन्होंने इशारे से ही हमें कुछ भी न बोलने या करने की हिदायत दी तो मुझे मामू की बेबसी पर बड़ा तरस आया । शुक्र यही था कि चन्द लम्हों की मुश्किलात के बाद मामू खुद बखुद निढाल पड़ गये (साहनी ने बाद में बताया यह मस्क्यूलर पेन था)। उसी दौरान शायद मामू को ग्लूकोज की बोतल चढ़ा दी गयी थी क्योंकि तभी साहनी की लिखी गोली को नीचे से लाने के लिए गोविल साब ने मुझे टहेल दिया था । दवाई की दुकान पर एक और सदमा लगना था । साहनी कि लिखावट की वह पर्ची जब मैंने दिखाई तो उस नामाकूल शख्स के मुंह से निकला 'अड़तीससौ' । मेरे 'एक पत्ता नहीं एक ही गोली' की सफाई दिए जाने पर उसने नीम खुमारी की हालत में ही झिड़की दी 'हां हां भाई, एक सिंगल गोली की ही बात कर रहा हूं'। मामी के पकड़ाए तुड़ी मुड़ी नोटों को मैंने ध्यान से गिना तो पचास पचास के चार निकले । मैं तुरन्त गोविल अंकल की तरफ लपका और उनसे अपनी परेशानी कही । उन्होंने फटाफट अपना बटुआ खोला और आठ नोट मेरी तरफ बढ़ा दिये । मैंने 'आठ सौ नहीं, अड़तीससौ' की सफाई दी तो दुलार से भूल माफ करती अदा में बोले 'पांच सौ के हैं'। मैं सकपका गया । फिर भी एक बात जेहन में कौंधे बिना नहीं रही कि अभी तो उनके बटुए में इस कदर तो चार पाँच हजार और होंगे !
खैर,
दवाई आई और मामू को दे
दी गयी ।
मुझे पहली बार डॉक्टर और
डॉक्टरी की पढ़ाई को सलाम करने का मन हुआ ।
जो भी हो,
मामू अब गोविल के मुरीद
थे । घर के खर्चो की क्या हालत थी इसका तो मुझे क्या इल्म होना था मगर यह हकीकत है कि इरशाद भाई के बंगलौर जाने से फिलहाल मामू किसी तंग गली से गुजरते लगते थे । कंप्यूटर के जमाने में जो तालीम वो हासिल कर रहे थे उसके बरक्स मामू की पेशानी पर सलवटों के वजूद का कोई सबब नहीं था, मगर यह जमीनी हकीकत थी, तो थी । हादसे से पहले की एक वारदात याद है । मुझे हल्का वायरल हुआ था जिसकी वजह से शाहदरा मंडी नहीं जा पाया था । सुबह के वक्त जब फेरी वाले ने आवाज लगाई तो मामूजान बाहर निकले और आधा किलो लौकी का भाव ताव करने लगे। वह किसी भी हालत में छह रूपये से नीचे नहीं उतरना चाहता था जबकि मामू सीधे सीधे पांच रूपये देने की सहूलियत उठाना चाहते थे । जब वह नहीं माना तो मामू ने थोड़ा धनिया और हरी मिर्चें यूं ही डलवाने की मांग की । लेकिन सब्जीवाला जाहिरा तौर पर कमजर्फ था । उसने मामू के हाथ से लौकी झपटकर छह रूपए उनकी हथेली पर मार दिये और चलता बना । मामू का मुंह उतर गया लेकिन हार उन्होंने भी कबूल नहीं की '... जा चला जा ... तेरे जैसे बहुत आते है यहां ... हम किसी और से ले लेंगे ...' मैं बिस्तर पर पड़े पड़े हो रही बोरियत की वजह से उठकर दरवाजे पर आकर इस वारदात का चश्मदीद गवाह न होता तो कभी न जान पाता । और अब जब मामू घर वापस आ गये तो भी खर्चे के बारे में उनकी मीनमेख बदस्तूर रही । डॉक्टर अरोड़ा, डॉक्टर साहनी उनसे ताकीद करते कि उनके बच्चे, इंसाअल्ला, लायक निकले हैं और जल्द ही उनकी माली हालत ठीक हो जाएगी इसलिए घबराने या चिन्ता करने जैसी कोई बात होनी ही नहीं चाहिए । मामू का भी इस मामले में इत्तफाक था । मगर ज्यादा आशुफ्ता शायद वो सबीना दीदी को लेकर रहने लगे थे । कभी चाय या पानी वानी देने के कारण सबीना दीदी उनके सामने आ जाती तो उसके बाद मामू की जुबान से ऐसा कुछ जरूर निकलता जिससे उनकी चिन्ताएं जाहिर हो जातीं । उसी बहाव में एक रोज वे पीएफ और ग्रैच्युटि में जमा पैसे का भी मोटे तौर पर हिसाब लगा बैठे थे । धुंध को छांटते हुए फिर बोले '...अपना गुजारा तो पैंसन में ही हो जाऐगा ... नजीर मियां तुम्हारी वजह से हमारे बुढ़ापे में रौनक रही आऐगी' । इन बातों का अर्क मेरे जेहन में पचास फीसदी से ज्यादा नहीं आ पाया था । घर आने के कुछ और चन्द रोज बाद जब उन्होंने सुबह शाम गली में ही टहलना शुरू कर दिया तो किसी हमदर्द ने इसरार किया कि जाफर साहब जो हुआ सो हुआ मगर आगे के लिए पूरा एहतयात बरतिए ।
' अमा, पूरा क्या, पूरे से भी ज्यादा बरत रहा हूं' । ' मसलन ?' ' मिर्च मसाले बन्द, चिकनाई बन्द ... सुबह शाम एक सिगरेट का कश ले लिया करता था, वो कभी बन्द । सैर तो करता ही हूं ... दवाईयां नमाज की तरह टैम से ...' ' अजी ये तो ठीक है सब मगर नाकाफी हैं ' ' तो मियां और क्या करना पड़ेगा ?' ' करना ये पड़ेगा कि जब फुर्सत हो जाय, सहूलियत से, एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी करवा लीजिए...' ' वो क्या होती है ' मामू सकते में आकर बोले । ' उसमें होता ये है कि दिल से निकलने वाली जो वाल्व होती है उसके कचरे को एक बुलबुला घुसाकर डॉक्टर निकाल देता है ... जैसे किसी नाली में बांस डालकर सफाई करते हैं ...' उनकी बात पर मामू पहले तो चकित हुए मगर बाद में पराजित भाव से हिनहिनाने लगे । इसका अहम सबब ये था कि उन हजरत ने दोनों तकनीकों - तरकीबों में होने वाले खर्च का जो मोटा मोटा हिसाब बतलाया था, कोई एक लाख के आसपास बैठ रहा था - मतलब ताउम्र कटे पीएफ-फंड की रकम के तीन चौथाई से भी ज्यादा । दिल की किसी नली की साफ सफाई पर इतनी रकम खर्चना मामू को सरासर नागवार था । यह उन्होंने कहा चाहे न हो मगर इन दिनों उनके साथ उठते बैठते मैं उनकी इतनी समझ और सरोकारों से वाकिफ होने लगा था । मुझे पूरी तरह तो समझ नहीं आता था कि उनकी चिन्ताओं का सबब सबीना दीदी ही है, रिटायरमैंट या हर रोज होने वाला दवाई गोलियों का खर्चा ...या कुछ और...। एक रोज शाम को सैर करते वक्त ही पता नहीं किस बात पर मुझसे बोले 'नजीर मियां खुदा की खुदाई को भी क्या कहिए ... पहले गरीब आदमी को हैजा - बुखार होता था, पीलिया - मलेरिया होते थे ... और अब देखो हार्टाटैक भी होने लगे ... कोई गुर्बत से लड़े या बीमारी से ... पर ठीक है ... जो ऊपरवाले की मर्जी ' । बहरहाल मुझे यही लगता था कि दिल जैसे खौफनाक मरज के लिए पैसे को लेकर उतनी कोताही जायज नहीं ठहरायी जा सकती थी जितनी मामू बारहा करने लगते थे । मैं तो बस यही कह सकता हूं कि उन्होंने ज्यादा दुनिया देखी थी, तो हो सकता है, उनके मुताल्लिक चीजों के वे बेहतर जज हों । अब जैसे उस दिन मैं मामू को रूटीन चैक अप कराके अरोड़ा के दवाखाने से लौट रहा था तो मामू की ऑटोवाले के साथ बदमगजी हो गयी । ' कितना हुआ ?' मैंने कूदकर ऑटो वाले से पूछा । ' सत्रह रूपये '
' पन्द्रह होते हैं भाई ' मामू ने तरजीह की हालांकि वो अभी सलीके से उतरकर खड़े भी नहीं हुए थे । ' बाऊजी मीटर देख लो और चार्ट मिलालो ' ' अरे मीटर क्या देख लें ... उसे तो तुम लोग पहले से ही तेज करके रखते हो ' मामू भड़क उठे । मैंने चार्ट से रीडिंग मिलाई तो सोलह रूपये नब्बे पैसे बन रहे थे। ' बाऊजी मुझे बेईमानी करनी होगी तो आपसे ही, दो रूपये की करूंगा...' ऑटो वाले ने शराफत की अड़गी डाली ' अरे तो अंधेर मच रहा है ... जाते टैम पन्द्रह में गए थे तो ... ' मामू का रूख सख्त होने लगा । ' बाऊजी आप एक पैसा मत दो, पर गलत बात नईं करो ' ' अच्छा गलत बात हम कर रहें है कि तू कर रहा है ' मामू अपनी मरियल आवाज में ही बिखरे । इस पर वह कमबख्त ऑटोवाला सरासर बदतमीजी पर उतर आया । मगर मामू को अपने मुताबिक जितने पैसे देने थे, उतने ही दिए । ऑटो वाला पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाता चला गया । उसी दिन, शाम को, गोविल साहब मामू का हाल चाल लेने आये थे । मामू के दफ्तर से भी कोई आया हुआ था । मामू ने बड़े रौब से गोविल साहब के डिप्टी कमिश्नर से अपने हमदफ्तर की शिनाख्त करवाई । बीमारियां, अस्पताल और डॉक्टरों के रोज ऊपर नीचे होते ताल्लुकात पर नुक्ताचीं करने के बाद बात सीधे सीधे जिन्दगी के आखिरी मकाम यानि मौत के ऊपर केन्द्रित होने लगी जिसकी बुनियाद में गोविल साहब ने कैंसर के कारण अपने एक करीबी रिश्तेदार की मौत की मिसाल चर्चा में रखी थी । ' मेरे अपने अनुभव में आजकल जितनी मौतें कैंसर से हो रही हैं उनका किसी और बीमारी के कमपैरिजन में कोई मुकाबला नहीं है । जाफर साब हार्ट अटैक भी नहीं । बाकी सब बीमारियों को पहले या बाद में कन्ट्रौल करने के लिए आप कुछ कर तो सकते हैं ! या उनके लिए किसी न किसी हद तक जिम्मेवार होते हैं ! मगर कैंसर का क्या ? दो साल के बच्चे को हो रहा है ! एकदम सात्विक जीवन जीने वाली औरतों को हो रहा है ! और डॉक्टर क्या करते है ? अन्धों का हाथी ! रेडियोथेरपी तो कभी कीमोथेरपी ! और इनसे भी बात न बने तो सीधे सीधे मॉरफीन और पता नहीं क्या क्या ...'। गोविल की बातों को सभी तक कर सुन रहे थे । मामू के हमदफ्तर ने भी कैंसर के शिकार हुए अपने रफीकों के किस्से सुनाये । मामूजान की उस बातचीत में शिरकत सबीना दीदी को चाय का हुक्म देने के सिवाय गोविल साब से एक सवाल पूछ्ने में ही थी । ' अच्छा जी ये बताईये, हम तो आये दिन अखबारों में सुनते हैं, कि नोएडा में धर्मशिला बन गया, रोहणी में राजीव गांधी के नाम पर बन गया, ऑल इण्डिया और सफदरजंग तो पहले से ही हैं ... तो फिर ये सब क्यों चल रहें हैं ? कुछ तो ...' ' बस तीर तुक्के के हिसाब से चल रहे हैं । किसी मरीज की किस्मत अच्छी हो, तो वो कहते हैं, वो बचा सकते हैं । भले मानसों से पूछो कि अगर किस्मत ही अच्छी हो तो क्या कैंसर ही होगा किसी को ... । अच्छा आप ये बताईये, आपने आज तक किसी कैंसर पेशैन्ट को भला चंगा होते देखा है ?' गोविल साब का लहजा और दलील दोनों लाजवाब थे । अभी तक अमूमन चुप्पी साधे मामू ने फिर जो बात या फलसफा दागा, उसका उनके पहले के नजरिए से मीलोंमील कोई रसूखात न था । ' गोविल साब, मेरी बात सुनिये ... ये डॉक्टर लोग किसी को क्या भला चंगा करेंगे ? इनके अख्तियार में है क्या ... ? पैदाइश की तरह इन्सान की मौत भी खुदा उसी वक्त मुकर्रर कर देता है जब वह मां के पेट में कंसीव होता है ! और येई क्यों, उसे किस वक्त क्या बीमारी होनी है और क्या होना है, सभी कुछ खुदा के बहीखाते में तभी दर्ज हो जाता है ... ठीक है हम लोगों का फर्ज है, फितरत है, हकीमों डॉक्टरों के पास जाना ... जाना भी चाहिए ... मगर हकीकत यही है कि ... जो होना है, होना ही है ...' मैं हैरान था । ये मामूजान ही बोल रहे हैं । ऐसे वाइज बनकर ! डॉक्टरों की बदौलत मौत के कुए से चार हफ्ते पहले निकलकर आए मेरे ही मामूजान ! कहां तो डॉक्टरों और गोविल अंकल तक को अपनी जिन्दगी का सबब मानने से सरेआम नहीं हिचकिचा रहे थे और आज ... यानि अभी ... मगर मामू का छेड़ा मुद्दा फिलहाल था ऐसा कि उसकी कोई काट थी भी और नहीं भी । बशर्ते आप के पास उस मुबाहिसे पर जुगाली करने की फुर्सत हो; जो न उस वक्त गोविल साहब के पास थी और न दूसरे महाशय के पास । इस दरमियान हुआ यह कि मामू की सेहत रफ्ता रफ्ता और सुधरी । मैं स्कूल जाने लगा । इरशाद भाई तो पहले ही बंगलौर चले गये थे । सगीर भाई अपने हाकिम के ऑडिटों पर जाने ही लगे थे । मामू को अभी कुछ हफ्ते और आराम फरमाना था जिसकी मार्फत मामी और सबीना दीदी को घर पर एक्स्ट्रा काम मिल गया था। एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी जैसी खालिस अमीर और अय्याश लोगों की चोंचलेबाजियों को तो मामू ने कब का दरकिनार कर दिया था । उन्हीं के लफ्जों में, जब तक अल्ला ताला की उन पर नवाजिश कायम है, जिन्दगी चलती रहेगी । और जिस रोज यह बन्द हो गयी तो क्या कर पाऐगा पेसमेकर और क्या करेगी एंजियोप्लास्टी ! और फिर ये कोई जरूरी है कि जान दिल के दौरे से ही जाए ? उस दिन गोविल साब क्या क्या नहीं बता रहे थे ... कैंसर के बारे में । असल चीज वही है ... कि दुनिया जहां में खुदा की बही में आपका हिसाब चुकता हो गया, मियाद पूरी हो गई, तो उसे चालू करना फरिस्तों के भी बस में नहीं है, इन्सान की तो बिसात क्या ।
दवाखाने से वापसी के नोंवे
हफ्ते में एक रोज मामूजान को शाम के वक्त तकरीबन उसी तरह की बेचैनी हुई जैसी
उस रात हुई थी ।
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