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पल्लव पल्लव रूक कर पीछे देखने का भी अवकाश कहां है तेरे पास? उठा अपने ये खण्ड, जोड ले किसी तरह स्वयं को । प्रतिवाद करने का अब समय नही रहा। खैर जान कि रास्ते बीहड ज़रूर हैं। जुटा अपनी बची खुची शक्ति और बढा ले कदम शेष जीवन के अनजाने, रहस्यमय रास्तों की तरफ। पल्लव अनमनी सी बैठी रही अपने हाथों से सहेजे घर की टूटते टूटते बची देहरी पर । शिशिर की उंगली पकड क़र चला आया पतझड सारे बाग को सूखे पत्तों से ढक गया था, पल्लव का मन कभी एक-एक कर टूटती पुलक के ढेर से अटा था। कितनी कितनी स्मृतियों के कसते जाल । इतनी खिन्नता कि एक पल तो उसे विश्वास हो गया कि यही उसके मन का स्थायी भाव है। ''पल्लव, यहां क्यों बैठी हो, इतनी ठण्ड में ?'' अजित अपना ब्रीफकेस गार्डन चेयर पर रख कर सीधे वही चले आऐ । पल्लव ने चेहरा उठाया, बिंधी सी दृष्टि, खिंचा सा भाव, टूटी मुस्कान । ''क्या
हुआ,
ऐसी क्यों हो रही हो
?''
सशंक हो अजित ने
पूछा। '' और ज्यादा न अजित ने पूछा न पल्लव ने कुछ कहा। अजित कपडे बदलने चले गए तो पल्लव यंत्रवत रसोई में चली आई। अजित कपडे बदल कर अखबार ले कर बैठ गये। बच्चे अपना अपना होमवर्क पूरा कर खेलने भाग गए। अपने लिये एक प्याला चाय लिये वह डायनिंग टेबल पर आ बैठी। सबंध हर थोडे अंतराल के बाद ऐसे ही बदलते है और फिर बदलती है सबंधों की भाषा। ऐसा क्यों है कि कुल मिला कर स्त्री पुरूष की भाषा ही तमाम दुनिया की भाषा है, जो उनके सबंधों के मुताबिक बदलती रहती है। एक समय ऐसा भी तो आता है जब दोनों इस बदलती भाषा को समझने से इन्कार कर देते हैं और तब भाषा आत्मालाप में बदल जाती हैं, फिर रह जाती है आत्मयंत्रणाएं। आज अगर अजित ने थोडा सा उसका मन छू कर पूछा होता तो वह सब कुछ स्वीकार कर लेती। किन्तु स्वयं को स्वीकार कर दूसरे को लगातार अस्वीकार करते जाना ही दाम्पत्य की सबसे बडी विडम्बना है। अजित के छिटपुट फ्लर्ट वह अब तक सहजता से स्वीकार करती आई थी, पर वह जानती थी कि अजित इसे आत्मसात न कर पाता। सशंक था वह पर कभी स्पष्टतः उसने कुछा कहा नही। यही तो यंत्रणा थी कि हम दोनों एक दूसरे को न स्वीकार कर सके न अस्वीकार, दोनों के बीच एक निशब्द छटपटाहट थी। सच तो यह है कि जैसे जैसे हम अपनी अनैतिकाताएं स्वीकार करते जाते हैं, वैसे वैसे दूसरों को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पाते है। ''यूं तो प्रेम की कोई नैतिकता नही, मगर प्रेम ही सबसे बडा नैतिक अनुभव है। इसकी नैतिक अनैतिक परिणति कुछ भी नहीं,'' इसके आगे कहते रहे थे तुम अंत तक । तुम्हारे ही दुःस्साहसों की राहू केतु सी छाया ने ग्रस लिया था पल्लव का विवेक। ''सर
मैं चाहता हूं पल्लव भी मॉरिशस जाए मेरे साथ। इलाहाबाद में जो... ''परितोष ! अगर मेरे कान ठीक सुन रहे है तो मैं यही कहूंगा कि यह बचपना है। वहां देश-विदेश के प्रबुध्द साहित्यकारों, आलोचकों के बीच पल्लव क्या करेगी? वहां जानता ही कौन है उसे? पल्लव को उस मुकाम तक पहुंचने के लिये अभी लम्बा संघर्ष करना है। मैं स्वयं को तुम्हारे स्तर का साहित्यकार -समालोचक नही मानता तो पल्लव तो मेरी भी शिष्या है। परितोष निमंत्रण तुम्हारे लिये है। '' ''सर मैं अभी तो यही कह रही थी परितोष परितोष सर से...'' पल्लव गिरने से थोडा पहले हवा के थपेडों से कांपने वाले पात सी सिहर रही थी। परितोष का दुराग्रह प्रोफेसर शलभ के समक्ष फन उठाए खडा था। पल्लव के क्षीण स्वर वातावरण की तिक्तता में कही खो कर रह गए। प्रोफेसर शलभ हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष ही नही आर्ट फैकल्टी के डीन भी थे, और पल्लव ही नही, परितोष भी उनके शिष्य रह चुके है। सदा शांत, संतुलित रहने वाले शलभ सर तमतमा गए, स्वयं को संभालते हुए बोले, ''परितोष, तुम मेरे छात्र भी रहे हो और सहकर्मी हो, पल्लव मेरी एक रिसर्च-स्कॉलर। तुम दोनों ही समान रूप से प्रिय हो मुझे। इलाहाबाद से लौटते हुए थोडा सशंकित था पर तब लगा कि नहीं, तुम प्रबुध्द हो और पल्लव समझदार गृहिणी। बस वही चूक हो गई अन्यथा आज तुम इस विनाशकारी दुराग्रह को लिए मेरे समक्ष न खडे होते। '' परितोष न जाने किस जिद में उठ कर चले आए। वह भी थोडी देर हतप्रभ सी बैठी रही फिर अपने बिखरे अध्याय उठा कर चली आई। अगले ही दिन पल्लव शलभ सर के ऑफिस में जा कर आई, ''सर मेरी कोई रूचि नहीं है मॉरिशस जाने में, मेरी थीसिस का अंतिम अध्याय चल रहा है, जल्दी ही सबमिट करवा दूंगी, आप वायवा की डेट फिक्स करवा दें। '' परितोष सर जानती हूं माफ नही करोगे मुझे किन्तु अपराध था भी क्या मेरा? जहां तुम्हारे अतीव आकर्षण की लहरें महाजलराशि में डुबो जाती वहीं दूसरे ही पल नैतिकता, समाज, दाम्पत्य की लहरें ला पटकती सूखी रेत पर, मैं थक गई थी, मेरा साहस चुक गया था। व्यवहारिक तुला पर तुम्हारे मेरे आकर्षण जनित अलौकिक सम्बंध के आगे समाज, पति, बच्चों का पलडा बहुत भारी हो गया था। हमारे असंख्यों स्वप्न मात्र रूई के फाहे थे और परिवार, समाज लोहे के मोटे-मोटे बांट थे। तुम न भी आते तो क्या था, मैं तो जी ही रही थी ना उसी एकरस लीक पर। पति के बनाए सुरक्षित घेरों में घिरी-सी, जहां वे जाते मैं भी जाती, वह व्यस्त रहते, मैं बच्चे पालती। कभी एकाकीपन से घबरा बाहर जा बैठती, बाहर के सन्नटों से उचट अंदर आकर प्रतीक्षा विषय पर कविता लिखती। तुमने आकर क्यों लीक मिटाई, क्यों अजित के एकाधिकार का घेरा तोडा? ऐसा ही घुटा-घुटा सा दिन था वह । प्रोफेसर शलभ ने लाइब्रेरी में चपरासी भेज बुला लिया था उसे। प्रोफेसर शलभ और परितोष सर इलाहाबाद एक साहित्यिक कार्यशाला में आमंत्रित थे और उसके शोधप्रबंध के कुछ अध्याय वैसी ही एक साहित्यिक चर्चा के विषय के अन्तर्गत आते थे। शलभ सर ने उसे अवसर देना चाहा। पल्लव अब तक हिन्दी में शोध करने वाले अपने विद्यार्थियों में विषय के प्रति इतनी गंभीरता व तन्मयता नहीं देखी मैंने। हिन्दी विषय अब हर विषय में डूबते विद्यार्थी को पार लगाने वाला विषय मात्र रह गया है और पी एच डी लेक्चररशिप तक पहुंचने की बैसाखी। प्रितोष के बाद यह लगन मैने तुममें देखी। देखो न, परितोष ने तो अंग्रेजी में एम ए किया और गोल्ड मैडल मिला उसे, चाहता तो अंग्रजी में ही पी एच डी करता पर साहित्य मात्र के प्रति लगाव ने उसे हिन्दी की ओर उन्मुख किया। उसने दुबारा एम ए किया, हिन्दी में पी एच डी की, फिर यूरोप जा कर पाश्चात्य एवं भारतीय समीक्षा के तुलनात्मक अथ्ययन पर गहन शोध किया और डी लिट की उपाधि प्राप्त की। इस अभूतपूर्व योग्यता के बाद भी वह यायावर ही रहा फिर मैंने ही साग्रह उसे इस विश्वविद्यालय में एक पद संभालने को प्रेरित किया। पल्लव उसकी योग्यता मात्र शैक्षणिक नही, वह तो जन्मजात है। आज वह चालीस की उम्र में ही वरिष्ठ आलोचकों और सुलझे हुए रचनाकारों में गिना जाता है। ''
परितोष सर के
प्रति श्रध्दा और बढ ग़ई थी।
जाने कब
बदला वह स्वरूप उस श्रध्दा का।
पल्लव
तूने कब चाहा था ऐसा।
वही
डिपार्टमेन्ट में कभी-कभी टकरा जाते थे।
कभी शलभ
सर के ऑफिस में तो कभी लाइब्ररी में,
कभी उसके
पूरे-अधूरे अध्याय उठा कर पढ लिया करते,
कहते कुछ
भी नहीं बस पढ क़र चल देते।
जब मिलते
उसके नमस्कार का उत्तर मर्मभेदी दृष्टि से देते और फिर निर्लिप्त भाव से सर हिला
कर चल देते। वह
थी ही कौन,
एक तुच्छ
रिसर्च स्कॉलर?
कहां वो
जाने माने आलोचक और तेज तर्रार विद्रोही कवि-कहानीकार।
जब वह शलभ
सर की अनुपस्थिति में एम ए की क्लास लेती तो रूक कर उसका व्याख्यान सुनते और
विश्वविद्यालय की हिन्दी पत्रिका में उसकी एक रचना जरूर छापते,
मगर अपनी
कांट-छांट के बाद।
रहते उतने
ही वीतरागी,
न प्रशंसा
करते,
न कुछ और
ही कहते। |
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