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माँ आकाश सा व्याप्त, पकड़ने चली हूँ माँ के आँचल का छोर... सोचा है बटोर कर ममत्व के सब ताने बाने, बाधूँगी एक कविता, माँ को उपहार देने। खीचूँ पल्लू का वह कोना जिसे पकड़ मैं बडी हुई, वह धुंधला सा बचपन, जब माँ ही सच थी... और सीख हर उनकी लकीर पत्थर की। या उनकी उस साड़ी से आखर जोडूँ जिसे पहन मैं इठलाती थी, और इतराती मुझ पर माँ भी। बातें, सीखें जो भूल गयी वों, पर भूल सकतीं नहीं मैं कभी भी। इन अनगिन बातों का कैसे पाऊँ कोई कोना, मुश्किल, नहीं... असंभव अपार प्यार का व्यक्त शब्दों में होना। – गरिमा गुप्ता |
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