|
मेरी
दो ज़िंदगियां समानांतर : एक प्रवासी मन:स्थिति
मेरी दो ज़िंदगियां समानांतर
एक अंधेरे को खोजती
दूसरी अंधेर से लिपटी
एक रौशनी को तरसती
दूसरी रौशनी से चुंधियाई
एक तुम तक पहुंचने को आकुल
दूसरी तुम्हीं से बचती – कतराती।
किसी संझा में दोनों के मिल आने का इंतज़ार करती
और चिढ़ती इंतज़ार के नाम से
उलझती – गुलझती वर्तमान से
सहेजती बिछड़े अतीत को
रह जाती अटकी किसी अद्र्धविराम में।
क्या मेरी चाही है यह समानांतरता‚ यह बंटवारा ‚ यह दो नावों की सवारी!
क्या ये चाहना है?
या कि एक सफर की उबाहट ही
क्षर होते होते गर्भ का बीज बन जाती है
और जन्म देती है इस समानांतरता को!
इस दोहरेपन को
लेकिन उबाहट तो बांझ है
इस बांझ से पैदा होने वाला
गांधारी के पेट से निकले गोले की तरह
सिर्फ सैंकड़ों दुर्योधनों को ही जन्म देगा।
क्यों हो चाह मुझे दुर्योधनों की?
परन्तु ……
युधिष्टरों की कामना भी मुझे क्यों हो
अर्ध सत्य तो मैं खुद हूँ
रौशनी – नारौशनी‚ अंधेरे – अनअंधेरे‚
चुप या बोलती खामोशी के युद्धनाद से बधिराती
झूठे विश्वासों और सच्चे भुलावों में हिंडोलती
जीने‚ न जीने के रिश्तों में लोटती
यूं अपने अच्छे – बुरे की पहचान मैंने भली सीखी है
हीरे की परख न कर पाऊं
कोयले की परख जरूर जानी है
मोती न टटोल पाऊं
रेत की पहचान मुझे खूब आती है।
मेरे लिये तो कृष्ण भी पिटा हुआ नारा भर है
उसे चाहे चमकती– धमकती पोशाक पहना क्वीन्स के मंदिर मैं बैठा दूं
या अपने अपार्टमेन्ट के पूजा – शेल्फ में।
महाभारत के अर्जुन में ऊर्जा भर देने वाला कृष्ण मुझे रास नहीं आता
महाभारत कहानी है दो दुश्मन भाइयों की
जिनका चालाक दोस्त कृष्ण कहीं मार नहीं खाता
और किसी पूंजीवादी शक्ति की तरह
बहका देता है उन भाइयों को आपस में लड़ –भिड़ मर जाने को
भरे पेट देखता है तमाशा
मारामारी का
बलात्कार का
और उगलता है गीता
सेल्यूलायड के परदे पर
बेतार तार पर!
स्ांस्कृति मेरे तन – मन का सिंहासन छोड़
आ बैठी है किसी फैशन डिज़ायनर के बुटीक में
किसी मुगलई रेस्तरां के मेन्यू में
पीतल की बेढब मूर्तियों में
या ताज की नकल का दंभ भरती किसी जुआखाने की बेढंगी और सस्ती सजावट में
हर कोई टुच्चा – पुच्चा टटपुंजिया बन जाता है यहां भारतीयता का प्रतिनिधि
भारतीयता जैसे कोई अनाथ बालक हो किसी धाय की खोज में
या कोई बदनाम औरत हो एक नाम की खोज में
बंटा है कि बसा है यह अदृश्य‚ रहस्यम्य मन
इन दो ज़िंदगियों में!
पर रहता है कहीं और –
किसी अंतहीन अंतरिक्ष में ?
या कि किसी
अबूझ बंद गली में?
कुछ भी हो मुझे जीना है
पनाह लेनी है किसी महफूज़ मरक़ज़ में
ये दो जिंदगियों का इकलौता सच है
सच है कि झूठ है
पर जो भी हो है।
– सुषम
बेदी
|
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|