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जब कभी हो ज़िक्र मेरा याद करना पीठ पर छुरा घोंपने वाले मेरे मित्रों के लिए मेरी प्रार्थनाएँ "हे प्रभु इन्हें माफ़ करना"
याद करना हारी हुई बाज़ी को जीतने की क़शमक़श पूर्वजों के रास्ते कितने उजले कितने घिनौने कि ग्रह नक्षत्र,तारों में छप गये वे लोग उजले लोग
याद करना सम्बे समय की अनावृष्टि के बाद की बूँदाबाँदी संतप्त खेतों में नदी पहाड़ों में हवाओं में कि नम हो गई गर्म हवा कि विनम्र हो उठा महादेव पहाड़ रस से सराबोर कि हँस उठी नदी डोंडकी खिल-खिलाकर कि छपने लगी व्याकरण से मुक्त कविता की आदिम किताबसुबह दुपहर शाम छंदों में वह मैं याद करना
यादकरना ज़िक्र जिसकाहो रहाहोगा वह बन चुका होगा वह बन चुका है वनस्पति कि जिसकी हरीतिमा में तुम खड़े हो बन चुका है आकाशकी गहराइयाँ कि जिसमें तुम धंसे हो
याद करना न आये याद तो भी कोशिश करना तो करना कि अगली पीढ़ी सिर झुकाकर शर्म से कुछ भी न कह सके हमारे बारे में जब कभी हो ज़िक्र मेरा
अकाल में गाँवः तीन चित्र ।।एक।।
डबडबा उठी हैं सपनों की आँखें विधवा-सी पैंजनी / करधनी / चूड़ियों की मन्नतें मुँह लुकाए कहीं अंधेरे में बैठा है त्यौहार वाला दिन बाँझ की तरह ससुराल से मायके की पैडगरि के बीच लापता है गाड़ी वाले का गीत घंटियों कि ठुन-ठुन चित्त पड़ा है किसान छिन्न-भिन्न मन इधर बहुत दिन हुए दादी की कोठी में नहीं महकता दुबराज वाला खेत उदासी में डूबा हुआ है गाँव
।।दो।।
इस साल फिर बिटिया की पठौनी पुरखौती ज़मीन की
काग़ज़-पतर नहीं लौटेगी बूढ़ी माँ की अस्थियाँ त्रिवेणी नहीं देख पायेंगी रातें काटेंगी बिच्छू की तरह दिन में डरायेंगे आने वाले दिनों के प्रेत सपनों में उतरेगा रोज़ एक काला दैत्य मुखौटे बदल-बदल कबूदर देहरी छोड़कर चले जायेंगे कहीं और समूचाघर पता नहीं किस अंधे शहर की गुफा में और गाँव किसी ठूँठ के आस-पास पसरा नज़र आता मरियल कुत्ते की तरह भौंकता
।।तीन।।
मनचला दुकानदार किसान की बेटियों से करता है चुहलबाज़ी षड़यंत्र छलक रहा है बाज़ार से गोदाम तक ब्याजखोर रक्सा की आँखों में नाच रही हैं पुरखों के जेवरातों की चमक जलतांडव की बहुरंगी तस्वीरें उतारकर आत्ममुग्ध हैं कुछ सूचनाजीवी डुबान क्षेत्र के ऊपर किसी बड़ी मछली का फ़िराक़ में उड़ रहे हैं बगुले शहर के मन में जा बैठा है सियार गाँव सब कुछ झेलने के लिए फिर से है तैयार
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मनौती पकने लगते हैं जब अमरूद बाड़ी नहीं घर नहीं मोहल्ला नहीं समूचा गाँव एकबारगी महक उठता है मीठी और एक जरूरी गंध से महिलाएँ मनबोधी फल को मन के लाख न चाहते हुए भी शहर में छोड़ आती हैं नोन, तेल, साबुन के लिए
पकने लगते हैं जब अमरूद चिड़ियों की दुनिया उतर आती है इधर ही बच्चों के गमछे में भर-भर जाता है सुबह शाम दोपहर का नाश्ता –सब कुछ माएँ सिलाती है अमरूद बड़े भोर से जागते ही ऐसे वक्त वे कोसती भी हैं चिड़ियों को ठीक अपने औलाद की तरह वैसे भी बच्चे और चिड़िया पर्याय हैं परस्पर अमरूद के पेड़ से चिपके रहते हैं आखिर दोनों एक दिन भर तो रात भर दूसरा पिता अमरूद तोड़ते वक्त मनौती माँगते हैं रोज़ एक भी पेड़ अमरूद का सूख न पाये और पकने का मौसम हरा रहे पूरे बारहमास पता नहीं मनौती कब पूरी होगी
मिलन पाठ
बिल्ली के बिल्ले
मलाई के लिए लड़झगड़ कर
कहीं अँधेरे में दुबके होंगे
चूहों की टोह में
झिंगुर
फुसुर-फुसुर कर लेते हैं
बीते दिन को कोसा जा रहा हो
जैसे
चाँद छुप चुका है बादलों की
गुफा में
फैल चुकी है चाँदनी लबाललब
देह-कक्ष में
एक पी जाना चाहता है उसे अंतिम
बूँद तक
डूब-डूब जाना चाहता है
गहराई के सभी क्षितिजों में
एकबारगी बगरकर
मिट-मिट जाना चाहती है दूसरा
रच-रच जाना चाहती है उसमें अपना
असीम विस्तार
अलग-अलग नाम से
रूप-रंग-शिल्प-व्याकरण से
उन दोनों को कोई लिख सके
क़तई संभव नहीं
इस समय तो क़तई नहीं
अभिसार
आना होगा जब उसे
आना होगा जब उसे
रोक नहीं सकती
भूखी शेरनी
–
सी दहाड़ती नदी
उलझा नहीं सकते
जादुई और तिलिस्मी जंगल
झुका नहीं सकते
रसातल को छूती खाई
आकाश को ऊपर उठाते पहाड़
पथभ्रण्ट देवताओं के मायावी कूट
अकारण बुनी गई वर्जनाएँ
समुद्री मछुआरों की जाल-सी
दसों दिशाओं को घेरती
प्रलयंकारी लपटें
अभिसार के रास्ते में
नतमस्तक खड़ा हो जाता है
सृष्टि-संचालक
स्वयं पुष्पांजलि लिए
आना होगा जब-जब उसे
वह आएगा ही
लोग मिलते
गए काफ़िला बढ़ता गया
अनदेखे ठिकाने के लिए
डेरा उसालकर जाने से पहले
समेटना है कुछ गुनगुनाते झूमते
गाते
आदिवासी पेड़
पेड़ की समुद्री छाँव
छाँव में सुस्ताते
कुछ अपने जैसे ही लोग
लोगों की उजली आँखें
आँखों में गाढ़ी नींद
नींद में मीठे सपने
सपनों में, सफ़र में
जुड़ते हुए कुछ रोचक लोग |
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