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सोचो ज़रा

अगर ऐन फ्रैंक आज होती

और नाज़ियो से छुप कर

अपने मम्मी पापा के साथ

एक भले मानस दोस्त के घर के

अंदर से भी अंदर के

एक छोटे से कमरे में

रह रही होती

अनिश्चित सी

अपने शरीर के बदलावों से जूझती

डरी सी, जीऊंगी या नहीं?

मन के उफनते विचारों में डूबती तरती

फिर ख्याल आता

क्यों ना अपनी व्यथा सुनाऊं सबको

एक ब्लॉग लिखूं

और शुरू हो जाती

रोज़ के 150 शब्द

साथ में  फोटोज़

और जानकारी देते हुए लिंक्स

(नाज़ी अत्याचारों के बारे में और जानें, यहां)

(प्रतिकूल परिस्थितियों में डेटिंग कैसे करें, जानिए यहां)

कोई आश्चर्य नहीं, की डायरी लिखने की कला, अब नहीं रही।

हमारी ज़िन्दगी अब किताब नहीं, ब्लॉग है

हमारे आंसू और मुस्कान

किसी डायरी के पीले पन्नों में नहीं

 बल्कि वहां है, बाहर, सबके बीच

वहीं पैदा हो वहीं खत्म हो जाते है

बचा कहां है कुछ जो

सिर्फ और सिर्फ अपना हो

डायरी में कैद, महफूज़

कोई पढ़े या ना पढ़े

फर्क नहीं

बस  मेरा है, मेरा। 

                                          - डॉ. उर्वशी साबू 

( डॉ.उर्वशी साबू पीजीडीएवी कॉलेज में अंग्रेज़ी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, पाकिस्तानी शायराओं पर इन्होंने पी.एच.डी. की है और चार्ल्स वॉलेस इंडिया ट्रस्ट 2018 की ट्रांसलेशन फैलो के रूप में ब्रिटेन प्रवास किया है।)

 

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