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विश्वास

अनन्त निराकार निर्विकार
इन गुणें को
परिभाषित करने का व्यर्थ प्रयास
मैं कैसे करूं
बुद्धि से परे अस्तित्व को मानना
कैसे संभव है
इसलिये शायद
तुम अवतरित हो जाते हो
गोताखोर की तरह
और
समुद्रगर्भ से सीप निकाल
दे देते हो हमें विश्वास
उसमें छिपे मोती का।

– डा सी एस शाह

आक्रोश

माना धृतराष्ट्र अंधा था
लेकिन सुन तो सकता था
चीखें असहाय अबला कीॐ
अरे भीष्म, आचार्य द्रोण
और विदुर तुम भीॐ

धर्म और अधर्म की
व्याख्या तो स्पष्ट थी
फिर कौन सी
समस्या में तुम उलझे थे
जो द्रौपदी की उतरती लाज
आपको क्रुद्ध न कर सकी

इतना भयानक
उत्पीड़न और आक्रोश
शायद इतिहास
फिर ना लिख पाये
इसलिये अब
उसके दोहराने की प्रतीक्षा न करो।

हर ललचाती नजर
हर सरकता हाथ
हर उतराता ऑंचल
काफी है
अधर्म की गंभीरता समझने में।

क्यों कि आजकल
देर हो रही है
कृष्ण को
सहायता के लिये आने में।

– डा सी एस शाह
 

भ्रम और सत्य

बहुत धीमा धीमा आयेगा
दृष्टिक्षेप में मनोनीत आकार
सुगंध फैलती है जैसै मधुर
कण कण में
पर नहीं होती साकार।

अदृष्य किंतु अस्तित्व प्राप्त वयुमंडल
आवृत हो जानेपर घन हो जता है
और खो देता है जैसे
अपना र्सवव्यापी स्वरूप

अब इसे एकरूप कहना भी कठिन
और विविध रूप घनत्व भी
उद्बोधन की इस समस्या में
नामलीला की होती है शुरूआत
बाप बेटा मेरा तेरा
सत्य असत्य जन्म मृत्यु

भ्रमविलास और भ्रमविकास के
इस दौर को संज्ञा मिलती है
विज्ञान के विकासकी

इस बाहरी विकास में ज्ञान होता है
सम्राट अशोक या सिकंन्दर के
जीतकर भी हार जाने का
सुख की क्षणभंगुरता का
मृत्यु के खोखलेपन का
बाहरी अस्तित्व के मायाजाल का

विनाश दरिद्रता और अधोगति के गिद्ध
मंडराते है विचारों के धरातल पर
और हो जाता है कइयों का भ्रमनिरास

ढूँढते हैं हम शरण हेमिंग्वे सी
असीम शक्ति के निराकार रूप में
याद आते है कष्ण राम बुद्ध और ख्रिस्त
अस्तित्व हनन के डर से
सर्वनाश की कल्पित पीडा से 
अज्ञान की परिकल्पनासे
और
लाखों में एक पा जाता है
अनायास सर्वसत्य मुक्तिगान

अवतरित इस महात्मा के प्रकाश में
अनेक रहगुजर साधक
जुगनू की तरहा ज्योतिमान होकर
कुछ एक क्षण तेजपुंज
परमगति का दर्शन कर लेते है

और टिकी रह जाती है चाह
इस ज्योतिक्षण के अधिकारी
बने रहने की
हर युग में युगों युगों तक।

– डा सी एस शाह

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